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Written By WD

कली और मधुप

कली और मधुप
- डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल'

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गगन देखता है न नजदीक आना।
कली ने कहा पर मधुप ने न माना।
प्रकृति सुंदर सज के आई हुई है,
धवल चाँदनी में नहाई हुई है,
महक रजनी गंधा की छाई हुई है,
सरित-जल की कल-कल समाई हुई है,
उसे सुन नहीं तुम प्रणय-गीत गाना।
कली ने कहा पर मधुप ने न माना।
पवन उठके हलचल मचाने लगा है,
वो सोये विटप को जगाने लगा है,
महक हर कली की चुराने लगा है,
तपन हर ह्रदय की बढ़ाने लगा है,
न मदहोश होकर प्रणय तुम जताना।
कली ने कहा पर मधुप ने न माना।
वो पूरब दिशा लाल होने लगी है,
अँधेरे की कालिख को धोने लगी है,
सुनहरे किरन बीज बोने लगी है,
नजर अंधपन अपना खोने लगी है,
हटो भी कहीं बन न जाए फसाना।
कली ने कहा पर मधुप ने न माना।।

साभार- मसि कागद