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कालिदास समारोह : तब और अब

कालिदास समारोह :  तब और अब - kaalidas Samaroh
* किरण बाला जोशी 
 
उज्जैन में कार्तिक माह में हर वर्ष शिप्रा नदी के किनारे प्रथम दिवस पशुओं का मेला लगता है (गर्दभ)। उसके बाद सामान्यत: वि‍धिवत कार्तिक पूर्णिमा को मेला प्रारंभ होता है। यह मेला ठीक उसी प्रकार लगता है, जैसे कि राजस्थान में पशुओं (ऊंटों का) का पुष्कर मेला लगता है। 
उज्जैन के प्रसिद्ध विद्वान रहे स्व. पं. सूर्यनारायण व्यास, जिन्होंने बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की थी, उनके मन में आया कि उज्जैन को भी बनारस की तरह धार्मिक और विद्वान लोगों की नगरी के रूप में पहचान मिले। यह उनकी कल्पना थी। 
 
आज आप जिस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कालिदास समारोह को देखते हैं, वह स्व. सूर्यनारायणजी व्यास के त्याग, तपस्या और मेहनत का परिणाम है। इस उज्जैन नगरी को उन्होंने संस्कृत और साहित्य के प्रति प्रेरणादायक बनाया।
 
त्याग, तपस्या और कई वर्षों के संघर्ष के बाद विद्वानों के दर्शन कालिदास समारोह में समूह के साथ होते हैं। स्व. व्यासजी ने जो भी कार्यक्रम किए, वे उन कार्यों के प्रति समर्पित रहे और उस कार्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए प्रयासरत रहे।
 
उज्जैन में विक्रम विश्वविद्यालय की स्थापना हो या फिर सम्राट विक्रमादित्य पर पिक्चर बनाने, विक्रम पर पत्रिका का संपादन करना- यह सभी महत्वपूर्ण कार्य स्व. सूर्यनारायणजी व्यास के कठिन परिश्रम और संघर्ष के परिणामस्वरूप ही संभव हो पाए।
 
व्यासजी अगर चाहते तो खुद को महिमामंडन करने के लिए विक्रम विश्वविद्यालय का नाम अपने नाम से कर लेते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि व्यासजी ने अपने नाम को महत्व न देते हुए उज्जैन नगर के प्राचीन नाम (विक्रम) को बहुत महत्व दिया तथा उसके बाद भी विक्रम विश्वविद्यालय को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए कई देशों की यात्रा की।
 
व्यासजी ने कहा कि संस्कृत देवताओं की वाणी है, भाषा है इसलिए संस्कृत को सभी जगह उच्च सम्मान मिलना चाहिए। यह बात उनके संस्कृत के प्रति प्रेम और सम्मान को दर्शाती है।
 
आज प्राय: कालिदास समारोह का व्यापारीकरण कर दिया गया है और संस्कृति को विकृत कर दिया गया है‍, जिसे देखकर आत्मा को कष्ट होता है। आजकल आयोजित होने वाला कालिदास समारोह संस्कृत नाट्य, मंचन, कवि सम्मेलन, वाद-विवाद प्रतियोगिता, विचार मंथन पर अपार जन समूह का आना पूरे नगर के भूगोल का व्यवसायीकरण हो जाना संस्कृत साहित्य के लिए अच्‍छा नहीं है।
 
दिन-प्रतिदिन यह समारोह अपना स्वरूप खोकर एक व्यापारिक मेला बनकर रह गया है। हमारी आस्था और भावना के साथ इन लोगों ने हमारी नगरी की पहचान खो दी। शासन प्रतिवर्ष लाखों रुपए खर्च कर व्यापार मेला लगाता है, फिर कालिदास समारोह का व्यवसायीकरण करने की क्या जरूरत है?
 
प्रशासन को इस व्यवस्था को तत्काल बंद कर देना चाहिए। सदियां बीत जाने पर भी हमारी संस्कृति और विरासत के प्रति कितना लगाव है। दर्शक साधारणत: मंच से श्रद्धा वैसी सदियां बीत जाने पर भी हमारी आस्था वही है, जैसे बंगलों में‍ विद्युत रोशनी से ज्यादा पर्व-त्योहारों पर हमारा मिट्टी के दीपक का प्रकाश हमारे मन और हमारे हृदय को नतमस्तक कर देता है। 
 
समय बलवान है। 
तस्मैकालाय नम:
 
जब उज्जैन में कोई होटल, धर्मशाला नहीं थी, टेम्पो की जगह तांगे चलते थे तथा स्कूलों की छुट्टी करवाकर अतिथियों को वहां पर ठहराया जाता था, उज्जैन में अतिथियों को ठहराने की व्यवस्था नहीं थी। इस‍के विपरीत आज उज्जैन में अतिथियों को ठहराने के लिए सारे प्रकार की व्यवस्था है। आज देश-विदेश से विद्वान अतिथियों का आगमन होता है तो पूरा उज्जैन कालिदासमय हो जाता है। हमारे भारतीय राजदूत कमलारत्नम जी ने विदेश में 'शाकंतलम्' नाटक भी पहली बार किया। 
 
उस समय टेलीविजन का माध्यम नहीं था। सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्री, अभिनेता स्व. व्यासजी को सम्मान देते थे। सभी फिल्मकार जिसने व्यासजी के निर्देशन में ‍'विक्रमादित्य' फिल्म बनाई तथा दूसरी फिल्म 'कालिदास नायक' बनाई, स्व. व्यासजी के निवास स्थान सिंहपुरी से शुरुआत की थी। व्यासजी ने अपनी मित्र-मंडली के सहयोग से इस समारोह को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आगे पहुंचाया। 
 
ऐसे ही विक्रमोत्सव का भी सहयोग और उनके व्यक्तिगत प्रयास से सफल संचालन हो रहा है। व्यासजी के मराठा, होलकर और सिंधिया राजघरानों से पारिवारिक संबंध रहे हैं। राष्ट्रपति से उनकी मित्रता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में रही। उनका विशाल प्रचार-प्रसार, विशाल व्यक्तित्व और त्याग-तपस्या का परिणाम था।
 
विक्रम संवत की शुरुआत करना, कालिदास के बाद सांदीपनि आश्रम का विस्तारीकरण करना उनका कार्य था। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू से मिलकर उनके स्वर्गवास के बाद उनके बच्चों को भी शिक्षा-‍दीक्षा दिलवाई। 
कई जन्मों के दान-पुण्य से ईश्वर के आशीर्वाद से ऐसे महापुरुष जन्म लेते हैं और ऐसे कार्य कर जाते हैं, जो पहचान बन जाते हैं और चलते हैं तो पैर के निशान बन जाते हैं। धन्य है अवंतिका नगरी और संस्कृत हमारी वाङ्मय भाषा है। जहां संस्कृत में रामायण का पाठ होता है, वहां पर स्वयं हनुमानजी किसी भी रूप में उपस्थित रहते हैं।
 
जगन्नाथपुरी धाम में आज भी गीत गोविंद जयदेव द्वारा रचित संस्कृत में मधुर गान रोज गाया जाता है। गीता, भागवत और अनेक ग्रंथ महर्षि-मुनियों द्वारा संस्कृत में रचे गए हैं। देवभाषा संस्कृत हमारी विरासत है और हमारा मजबूत आधार है।
 
21वीं सदी में पहुंचने पर मोबाइल का चलन है, लेकिन हमारी परंपरा, हमारी पूजा-पद्धति मोबाइल नहीं बदल सकते। अगरबत्ती, माटी के दीपक का स्थान रंगीन बल्ब नहीं ले सकते। यही आस्था हमारी संस्कृति और संस्कृत के प्रति अटूट है, जो कभी टूट नहीं सकती। 
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