जलवायु परिवर्तन से साल दर साल गर्मी बढ़ रही है। 2015 को अब तक का सर्वाधिक गर्म वर्ष घोषित किया गया है। जहां इस बार उत्तर भारत कुछ ज्यादा तप रहा है, तो पहाड़ पर भी गर्मी ने दस्तक दे दी है। पारा रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। कुछ वर्षों से मसूरी और नैनीताल जैसे ठंडे पहाड़ी इलाकों में भी कूलर और एसी का उपयोग होने लगा है। वैश्विक स्तर पर देखें तो 2015 में यूरोप में गर्मी और लू से कई जानें जा चुकी हैं।
गरीब का गम : गरमी से मुकाबले के लिए संपन्न वर्ग के पास कूलर और एसी है। वह वातानुकूलित गाड़ियों में सफर कर रहा है। सन स्क्रीन लोशन और क्रीम लगाता है। वह हिल स्टेशन पर छुटि्टयां मनाने चला जाता है। मगर गरीब क्या करें? वह कैसे अपनी हिफाजत करें? दैनिक मजदूरों का कामकाज के लिए बाहर निकलना बेहद तकलीफ भरा हो गया है। पानी की तलाश में बुंदेलखंड के लोग मीलों भटक रहे हैं। नदियां और अन्य जलाशय सूख रहे हैं, लेकिन डिब्बाबंद ठंडा पानी अमीरों के लिए उपलब्ध है। गरीबों के लिए न शीतल पेय है, न प्राकृतिक वातानुकूलन के साधन। पेड़ों की सुलभ छांव को हमने विकास के नाम पर निगल लिया है। शहरों में रिक्शेवाले या मजदूरों के सुस्ताने के ठांव अब दिखाई नहीं देते।
विकास के नाम पर आकाश को बेपरदा किया जा रहा है और धरती को जलाया जा रहा है। दरअसल विकास का वर्तमान मॉडल गरीब विरोधी है, जो बहुतों को उपेक्षित कर केवल कुछ समर्थों का भला कर रहा है। बढ़ती गर्मी को कम करने के उपाय रहनुमाओं की चिंता के विषय नहीं होते। एक तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग के नाम पर गाल बजाए जाते हैं, तो दूसरी तरफ उसे बढ़ाने के सारे उपक्रम किए जा रहे हैं। दिखावे के लिए कुछ विज्ञापन छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। पेड़-पौधों, नदी-नालों को मिटाकर सीमेंट के बाग खड़े किए जा रहे हैं। हर प्रकार से प्रदूषण फैलाकर तापमान बढ़ाया जा रहा है।
बढ़ता तापमान, परेशान लोग: सवाल यह है कि गरीब बढ़ती हुई गर्मी से अपना बचाव कैसे करें? गरीब आखिर घड़े का पानी लेकर खेती-बाड़ी करने नहीं जा सकते। उनके पास गर्म लू के थपेड़े झेलने के अलावा और कोई चारा भी नहीं है। शहरी मजदूरों और किसानों को काम-धंधे के लिए बाहर निकलना ही होता है। न तो छतरी लगाकर मजदूरी हो सकती है और न बिना काम किए भोजन मिल सकता है। दुधमुंहों से लेकर बड़ों तक घर का पूरा कुनबा गरमी में झुलसता है। एक तो खाने की समस्या, ऊपर से गर्मी। कुपोषण के शिकार तन को आसानी से लू चपेट में ले लेती है।
बिजली की बढ़ती मांग : शहर में बिजली है, तो गर्मी से जूझने के तमाम उपकरण हैं। फ्रीज हैं, ठंडा और आइसक्रीम हैं। वातानुकूलित शॉपिंग मॉल हैं। लेकिन देश की सत्तर प्रतिशत आबादी के हिस्से में क्या है? गांवों में रहने वाली ज्यादातर आबादी के पास तो बिजली तक नहीं है। जहां कहीं बिजली के खंभे हैं, वहां बिजली आती ही नहीं। गांव के सार्वजनिक तालाब मछली पालकों को पट्टे पर दे दिए जाने के कारण अब लोग तपती गरमी में उनमें नहाकर राहत भी नहीं पा सकते।
बड़े किसानों या सामंतों ने अपने ताल-तलैयों को पाटकर खेत बना लिए हैं। मिट्टी के घर एवं बरतनों का प्रचलन खत्म होने से तालाबों से मिट्टी नहीं निकाली जाती, सो उनकी गहराई कम होती गई है। पानी का संचयन न होने के कारण हवा से ठंडक गायब हो गई है। कॉलोनियों या सड़कों के निर्माण के नाम पर बाग-बगीचे और जंगल उजाड़ दिए गए हैं।
पहले सघन बगीचों से गुजरती गरम हवा पत्तों को छूकर ठंडी हो जाती थी, क्योंकि पेड़ों की सघनता के कारण वातावरण में नमी बनी रहती थी। अब तो नंगी धरती की हवा रूखी-सूखी हो गई है। पहले फूस सस्ते और सबके लिए उपलब्ध थे। फूस की झोपडियां गरीबों को गर्मी से बचाती थीं। लेकिन अब विकास की मार ऐसी पड़ी है कि फूस, बांस, मूंज सब दुर्लभ या महंगे हो चले हैं।
ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए गरीब जिम्मेदार नहीं हैं:
प्रकृति को उजाड़ने के लिए भी गरीब जिम्मेदार नहीं हैं। प्रकृति का भोग व्यवसायी करता है। गरीब हमेशा प्रकृति के साथ जीता है। प्रकृति उसे पालती है और वह प्रकृति का संवर्द्धन करता है। आदिवासी जंगलों की हिफाजत करते हैं, तो किसान, जमीन और सिंचाई के परंपरागत स्त्रोतों को महफूज रखते हैं। अब जंगल, जमीन, नदी, तालाब सब खतरे में हैं। सब पर व्यवसायियों की नजर है। वे वर्तमान को भोगने के लालच में हमेशा के लिए प्राकृतिक संतुलन को नष्ट कर रहे हैं। प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने का परिणाम ही है कि तापमान में वृद्धि हो रही है। अब जब प्रकृति ही खतरे में है, तब गरीब को कौन बचाएगा?