शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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  4. Is India really the most dangerous country for women?

सामूहिक बलात्कार बना स्वीडन में नया 'शगल', और पश्चिमी देश भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश कहते हैं...

सामूहिक बलात्कार बना स्वीडन में नया 'शगल', और पश्चिमी देश भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश कहते हैं... - Is India really the most dangerous country for women?
जहां सबकी जान ख़तरे में, वहां महिलाएं सुरक्षित?
कौन नहीं जानता कि अफ़ग़ानिस्तान में लगभग चार दशकों से भयंकर मार-काट चल रही है। मार-काट यदि सुरक्षा का पर्याय होती, तो लाखों अफ़ग़ान जान बचाने के लिए भाग कर अन्य देशों में शरण नहीं लेते। सीरिया 2011 से एक ऐसे गृहयुद्ध में झुलस रहा है, जो 2017 तक 4,70,000 लोगों के प्राण ले चुका था। वहां से भाग रहे लाखों शरणार्थियों को 2015 से शरण दे रही जर्मनी की सरकार अपने सहयोगी दलों के बीच भारी मतभेद के कारण अभी-जुलाई के पहले सप्ताह में गिरने से बाल-बाल बची है। 
 
सोमालिया में तो 1990 वाले दशक से ही कोई ढंग की सरकार नहीं बन पा रही है, वहां लुटेरों-डकैतों और आतंकवादियों का राज है। यमन भी, जिसे भारत की अपेक्षा कहीं अधिक सुरक्षित माना गया है, 2011 से गृहयुद्ध और पड़ोसी देशों के सैन्य हस्तक्षेपों से न केवल खंडहर बन गया है, भुखमरी और महामारियों से भी लड़ रहा है। ऐसे में कोई 'आंख का अंधा, नाम नयनसुख' ही इन देशों को, महिलाओं तो क्या किसी के लिए भी, भारत से अथिक सुरक्षित देश बताने की बेशर्मी करेगा।  
 
दुहाई भारत को 'शर्म' आने की
हद तो यह है कि 'थॉम्सन रॉयटर्स फ़ाउन्डेशन' ने उल्टे भारत को ही 'शर्म' आने की दुहाई दी है। अपनी मीडिया-रिपोर्ट में उसने लिखा कि विश्व के 'सबसे बड़े लोकतंत्र' भारत को, जो अपने आप को 'विश्व की सबसे तेज़ विकास दर वाली अर्थव्यवस्था और अंतरिक्ष की खोज तथा तकनीक का अगुआ मानता है, महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के लिए शर्म आनी चाहिए।  
 
भारत को ही क्यों शर्म आनी चाहिये?
भारत को ही क्यों शर्म आनी चाहिये? अमेरिका को, ब्रिटेन को, फ्रांस को, बल्कि सभी पश्चिमी देशों को भी क्यों नहीं शर्म आनी चाहिये? यूरोप-अमेरिका के लगभग सभी देशों में प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर भारत से अधिक यौनदुराचार और बलात्कार होते हैं. वे क्या भारत की अपेक्षा अधिक अविकसित, अशिक्षित या ग़रीब हैं कि अपनी महिलाओं को इतनी भी सुरक्षा नहीं दे पाते कि उनकी असुरक्षा का स्तर कम से कम भारत से तो बेहतर ही रहता? 
 
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
अपनी जनसंख्या के कारण भारत यदि सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, तो अमेरिका भी अपने धनबल, साधन-संपन्नता, सैन्य-शक्ति, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी वर्चस्व के कारण क्या विश्व का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र नहीं है? ब्रिटेन को भी क्या संसदीय लोकतंत्र का जन्मदाता होने का गर्व नहीं होता? छोटा-सा स्वीडन भी पूरी दुनिया में नारी-समानता का अगुआ और संसार की पहली नारीवादी सरकार वाला देश होने का ढिंढोरा क्या नहीं पीटता? तो फिर इन सब देशों में भी नारी के साथ दुराचार और बलात्कार का आयाम निरंतर बढ़ता ही क्यों जा रहा है? भारत की ही तरह उनकी भी कठोर निंदा-आलोचना क्यों नहीं होती?   
 
यह कहना कि भारत में महिलाओं के साथ दुराचारों और बलात्कारों की असली संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है, निरा कुतर्क है. सभी पश्चिमी देशों में भी यही माना जाता है कि 70 से 90 प्रतिशत महिलाएं अनेक कारणों से पुलिस के पास शिकायत करने नहीं जातीं। ब्रिटेन के बारे में हम देख चुके हैं वहां 83 प्रतिशत पीड़ित पुलिस के पास शिकायत दर्ज नहीं कराते। अधिकतर पश्चिमी देशों में अपराधियों के विरुद्ध मुकदमों और सज़ाओं का अनुपात भारत से भी कम है। सज़ाएं भी उतनी कठोर नहीं हैं, जितनी भारत में हैं। समाज में बेइज़्ज़त होने या मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाने का डर तो नहीं के बराबर ही होता है। 
 
संसार की पहली नारीवादी सरकार
'थॉम्सन रॉयटर्स फ़ाउन्डेशन' के सर्वे में स्कैन्डीनेविया कहलाने वाले उत्तरी यूरोप के नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क और फ़िनलैंड को महिलाओं के मान-सम्मान के लिए सबसे सुरक्षित देश माना गया है। जनसंख्या की दृष्टि से स्वीडन इन देशों में सबसे बड़ा है। इस समय उसकी जनसंख्या है 99 लाख। वहां की सरकार अपने आप को संसार की पहली नारीवादी सरकार बताती है। मार्च 2018 में गठित वर्तमान मंत्रिमंडल में कैबिनेट स्तर की 12 महिला मंत्री और प्रधानमत्री स्तेफ़ान ल्यौएफ़न सहित 11 पुरुष मंत्री हैं। तब भी स्वीडन महिलाओं के लिए जितना असुरक्षित इस समय है, उतना पहले कभी नहीं था। 
 
लंबे समय तक संसार का सबसे समाज-कल्याणकारी राज्य (वेलफ़ेयर स्टेट) कहलाने वाले स्वीडन की संसद ने, 1975 में, एकमत से यह निर्णय किया कि स्वीडन को अब एक ऐसे बहुसांस्कृतिक, यानी एक ऐसे बहुजातीय मिश्रित समाज में बदल देना चाहिये, जिसमें अन्य देशों, धर्मों, संस्कृतियों से आये लोगों के लिए भी बराबरी का स्थान हो। उस समय स्वीडन की जनसंख्या 82 लाख थी। आदर्शवादिता से भरपूर यह प्रशंसनीय निर्णय जितना मानवतावादी था, समय के साथ उसके सामाजिक प्रभाव उतने ही अमानवीय रूप लेते गये हैं। 
 
स्वीडिश समाज हिंसक बना
इस निर्णय के बाद के 40 वर्षों में, यानी 2014 तक जनसंख्या 19 प्रतिशत, हिंसात्मक अपराध 300 प्रतिशत और महिलांओं-बच्चों के साथ बलात्कार 1472 प्रतिशत बढ़ गए... प्रति एक लाख जनसंख्या पर बलात्कारों के अनुपात वाले पैमाने के अनुसार, दक्षिणवर्ती अफ्रीका में स्थित लेसोथो के बाद, स्वीडन ही लंबे समय तक बलात्कारों की सूची में संसार में दूसरे नंबर रहता था। अब यह स्थान ब्रिटेन को मिल गया है।  
  
हुआ यह कि विदेशियों के प्रति उदारतापूर्ण स्वीडन के नये नियमों-क़ानूनों का लाभ उठाते हुए मुख्यतः तुर्की, सीरिया, इराक़, सोमालिया, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान जैसे अभावग्रस्त या संकटग्रस्त इस्लामी देशों के आप्रवासी और शरणार्थी भारी संख्या में वहां आ कर बसने लगे। 
 
स्वीडन के नियम-क़ानून किसी के उद्भव या धर्म को दर्ज करने की अनुमति नहीं देते, इसलिए कोई नहीं जानता कि कहां से किस धर्म या किस राष्ट्रीयता के कितने लोग वहां आ कर बस गये हैं। 
 
नागरिकता स्वीडिश, संस्कार इस्लामी 
प्रवासियों की पहली पीढ़ी की स्वीडन में जन्मी संतानों और बाद की पीढ़ियों को पूरी तरह स्वीडिश नागरिक माना जाता है, हालांकि इससे उनकी संस्कारगत सोच-समझ स्वीडिश नहीं बन जाती। अपनी महिलाओं को बुर्कानशीन देखने के आदी ये विदेशी, स्वीडिश महिलाओं के कथनानुसार 'नीली आंखों वाली स्वर्णकेशी गौरवर्ण मूल स्वडिश महिलाओं को देखते ही लार टपकाने लगते हैं।

विदेशियों के रहने-बसने के लिए दरवाज़े खोल देने के बाद स्वीडन में छोटे-मोटे अपराधों के साथ-साथ यौनदुराचार और बलात्कार जैसे गंभीर अपराध भी तेज़ी से बढ़ने लगे। सरकार इसे दोटूक स्वीकार नहीं करती, पर जानती वह भी हैं। पर्दे की आड़ में इसे मानते सभी हैं। स्वीडन के सांख्यिकी कार्यालय 'बीआरए' के 28 जनवरी 2018 को प्रकाशित नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, 2017 में वहां बलात्कार के 7,320 मामले दर्ज किए गए, एक साल पहले की अपेक्षा 10 प्रतिशत अधिक। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वीडन में भी हर पीड़िता पुलिस के पास शिकायत करने नहीं जाती। केवल 11 प्रतिशत पीड़िताएं पुलिस के पास जाती हैं। 
 
पुलिस का हाल यह है कि स्वघोषित ''शरिया पुलिस'' वालों के डर से देश के 61 स्थान उसके लिए 'नो गो एरिया' (वर्जित क्षेत्र) बन गये हैं। पुलिस वहां जाने की हिम्मत नहीं करती। 
 
स्वीडन के राष्ट्रीय पुलिस कमिश्नर दान एलियाससोन ने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर यह कह कर खलबली मचा दी कि पुलिस कानून का पालन करवाने की हालत में नहीं है, उसे देश का भला चाहने वाली शक्तियों की सहायता चाहिए। स्वीडन के जानेमाने अराजकता विशेषज्ञ पत्रीक एन्गेलाउ ने चेतावनी दी, 'मुझे डर है कि वह सुव्यवस्थित समतावादी स्वीडन, जिसे हम अब तक जानते थे, अब अपने अंतकाल में पहुंच गया है। निजी तौर पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि (स्वीडन में) किसी प्रकार का गृहयुद्ध छिड जाता है। कुछ जगहों पर गृहयुद्ध संभतः छिड़ भी चुका है। 
 
नारीवादियों की सरकार, हर दिन 20 बलात्कार
2017 में बलात्कार के 7,320 मामलों का अर्थ है कि महिला मंत्रियों की प्रधानता वाली स्वीडन की नारीवादी सरकार की नाक के नीचे हर दिन कम से कम 20 बलात्कार हो रहे हैं। स्वीडन की महिलाओं के बीच एक नये मतसर्वेक्षण से सामने आया कि हर दो में से एक महिला सार्वजनिक जगहों पर अपने साथ हिंसा या बलात्कार के डर से अपनी स्वतंत्रता बहुत सीमित हो गयी देखती है। हर पांचवीं महिला को लगता है कि उसके साथ कभी भी बलात्कार हो सकता है। 
 
दिसंबर 2017 में स्वीडन के दूसरे सबसे बड़े शहर मालम्यौ में 17 वर्ष की एक युवती के साथ यही हुआ। शहर के ग़ैर-यूरोपीय विदेशियों की बहुलता वाले सोफ़ीलुन्द मुहल्ले के एक खेल के मैदान के पास, तीसरे पहर तीन बजे, कई लोगों ने उसके साथ बर्बरतापूर्ण सामूहिक बलात्कार किया। बलात्कार के बाद उसके गुप्तांग पर कोई ज्वलनशील तरल पदार्थ छिड़ कर आग लगा दी और भाग गये। युवती की जान बचा ली गयी है, पर जनवरी आने तक कोई पकड़ा नहीं जा सका था। बताया जाता है कि कई बलात्कारी आज तक पकड़े नहीं जा सके हैं। 
 
सामूहिक बलात्कार का नया शौक
सामूहिक बलात्कार स्वीडन में एक नया शौक बन गया है। अगस्त 2016 में राजधानी स्टाकहोम के एक उपनगर फ़ित्तया में इसका एक अवर्णनीय वीभत्स रूप देखने में आया। 30 वर्ष की एक महिला के साथ संभवतः 20 लोगों ने एक मकान की सीढ़ियों के पास न केवल जम कर बलात्कार किया, उसे लातों-मुक्कों से खूब मारा-पीटा. छुरा भोंक कर मार डालनें की धमकी दी। उसके सिर को फ़र्श पर तब तक पटका, जब तक वह बेहोश नहीं हो गई। उसके चेहरे, कपड़ों और बालों को वीर्य से सान दिया। घटनास्थल के पास का एक निवासी इसे देख रहा था, पर उसने पुलिस को ख़बर तक नहीं दी। 
 
होश आने के बाद वह महिला जैसे-तैसे उठी। सहायता पाने और पुलिस को बुलाने के लिए एक फ्लैट की घंटी बजाई। पर जिस आदमी ने दरवाज़ा खोला, उसने उसे फटकार दिया। वह महिला तब फ़ित्तया के व्यापारिक केंद्र की तरफ पैदल चल पड़ी। वहां भी लोगों ने यह कहते हुए उसे दुत्कार दिया कि वह बहुत ही मैली-कुचैली और 'घिनौनी' दिख रही है। उसके 'बालों में वीर्य' भरा है। निराश हो कर उस महिला ने फ़ित्तया मेट्रो स्टेशन के सुरक्षा गार्ड से कुछ करने का अनुरोध किया, उसने भी मुंह फेर लिया। 
 
घूरती आंखों के बीच मेट्रो से यात्रा
कोई मदद पाने के लिए अंततः उस बेचारी को अपनी शर्मनाक दशा में मेट्रो ट्रेन से स्टाकहोम के मुख्य स्टेशन जना पड़ा। ज़रा सोचिये. सामूहिक बलात्कार की मर्मांतक पीड़ा, पीटे और पटके जाने की शारीरिक वेदना, बार-बार ठुकराये जाने की हताशा और ट्रेन में घृणाभाव से घूर-घूर कर देखे जाने के अपमान से घायल उस बेचारी महिला पर क्या-क्या बीती होगी। पुलिस ने इस बीच कई गिरफ्तारियां की हैं। वे विदेशी मूल के स्वीडिश नागरिक बताए जाते हैं। उन्होंने बलात्कार का विडियो भी बनाया है, जिस में वे भद्दी गालियां देते और ठहाके लगाते दिखते बताये जाते हैं। स्वीडन के टेलीविज़न और मुख्य धारा के मीडिया ने भी, जो अन्यथा ऐसे समाचार नहीं देते, इस वीभत्स बलात्कार के समाचार दिए। इस घटना से क्रुद्ध सैकड़ों लोगों ने प्रदर्शन भी किए। 
    
नारी-राज में नारी नाराज़
स्वीडन के दैनिक 'स्वेन्स्का दागेब्लात' ने, नवंबर 2017 में, अपने कार्यस्थलों पर यौनदुराचार की भुक्तभोगी फ़िल्म और रंगमंच की 456 अभिनेत्रियों की आपबीती प्रकाशित की। कुछ ही दिन बाद 653 महिला गायिकाओं और और अन्य महिला कलाकारों ने भी अपने कटु अनुभव बताए। इन सभी महिलाओं ने फ़िल्म और रंगमंच जगत के निर्माताओं, निर्देशकों और साथ ही राजनेताओं पर भी आरोप लगाए कि वे ऐसे कार्यस्थान बनाने के अपने उत्तरदायित्व नहीं निभा रहे हैं, जहां महिलाएं अपने साथ दुराचार होने के भय से मुक्त रह सकें।  प्रधानमंत्री स्तेफ़ान ल्यौएफ़न को भी स्वीकार करना पड़ा कि 'समस्या उससे कहीं बड़ी हैं, जितनी समझी जा रही थी....' 
 
पहली जुलाई 2018 से स्वीडन की नारीवादी सरकार ने देश में एक नया नारीवीदी क़ानून लागू किया है, जिसे 'सहमति क़ानून' नाम दिया गया है। इस क़ानून का कहना है कि बलात्कार का दोषी मान कर ऐसे हर पुरुष के विरुद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है, जिसने शारीरिक संबंध के लिए पहले से ही अपने साथ की महिला की स्पष्ट सहमति नहीं प्राप्त कर ली थी या जिसे महिला ने अपनी स्वीकृति का साफ़-साफ़ इशारा नहीं किया था। इस क़ानून का पालन केवल विवाहेतर संबंधों के प्रसंग में ही नहीं, अविवाहित जोड़ों और विवाहित दंपतियों को भी हर शारीरिक संबंध से पहले करना होगा। 
 
नारीवादी सरकार भी बेबस
आलोचक कहते हैं कि यह क़ानून स्त्री-पुरुष संबंधों की सारी स्वाभाविक मधुरता को कटुता में बदल देगा। वकीलों की राय है कि क्योंकि बाद में खड़े हो गए किसी विवाद की स्थिति में 'पूर्वसहमति' की पुष्टि करने वाला कोई गवाह नहीं होगा, इसलिए पुरुषों को चाहिए कि वे अपनी साथी महिला से, चाहे वह उनकी पत्नी ही क्यो न हो, हर बार लिखवा कर ले लें कि वह सहवास से सहमत है। कहने की आवश्यकता नहीं कि महिला मंत्रियों की प्रधानता वाली स्वीडन की नारीवादी सरकार भी किंकर्तव्यविमूढ़ है कि सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते हुए बलात्कारों से देश की नारियों की रक्षा कैसे की जाए। 
 
जब स्वीडन जैसे मात्र 99 लाख जनसंख्या वाले छोटे, सुरम्य, सुशिक्षित, सुशासित और उच्च जीवनस्तर वाले भ्रष्टाचार-मुक्त देश के पास भी महिलाओं को यौनदुराचारों से बचाने का कोई कारगर उपाय नहीं है, तो भारत जैसे देश कौन-सा तीर मार लेंगे। जब साहित्य का नोबेल पुरस्कार देने वाले स्वीडन के कला और साहित्य जगत के धुरंधर विद्वान और बुद्धिजीवी भी अपने आस-पास की सुशिक्षित महिलाओं के साथ सभ्य-शालीन व्यवहार नहीं कर पाते,तो भारत की सरकारों को कोसने-धिक्कारने वाले स्वदेशी-विदेशी कौन-सी ऐसी राजनैतिक-सामाजिक क्रांति लाना चाहते हैं, जिससे इस विश्वव्यापी असाध्य बीमारी की कम से कम रोकथाम ही हो जाये, उन्मूलन तो असंभ ही है। 
 
महिलाओं के साथ हिंसा और उनकी बढ़ती हुई असुरक्षा केवल भारत की ही समस्या नहीं, एक विश्वव्यापी बीमारी है, जिसे रोकने का उपाय किसी के पास नहीं है, न तो किसी धर्म के पास और न ही किसी विचारधारा के पास...।