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Last Updated : शुक्रवार, 4 मई 2018 (11:14 IST)

क्या इंसान हमेशा इतना थका-थका रहता था?

क्या इंसान हमेशा इतना थका-थका रहता था? - sleeping
- जेम्स फ़्लेचर
आज का दौर योलो (YOLO) का है, यानी आप सिर्फ़ एक बार जीने का मौक़ा पाते हैं। ज़िंदगी में इतना काम है कि मरने की फ़ुर्सत ही नहीं। सोने का वक़्त ही नहीं। काम करना है। सफ़र करना है। अपने लोगों का ख़याल रखना है। परिवार और दोस्तों के साथ वक़्त बिताना है। ई-मेल करने हैं। फ़ेसबुक और ट्विटर पर लॉग इन करना है। इंस्टाग्राम पर तस्वीरें अपलोड करनी हैं। नेटफ्लिक्स पर नई फ़िल्में और टीवी सिरीज़ देखनी हैं।
 
ज़िंदगी आज यूं हो गई जैसे तेजी से दौड़ती गाड़ी, जिसकी रफ़्तार दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। और इस दौर में एक चीज़ बेहद कम, कम और कम होती जा रही है और वो है नींद। बस नींद के लिए इस दुनिया में जगह नहीं। आज दुनिया इतनी मसरूफ़ है कि सोने के लिए वक़्त ही नहीं। हम किसी भी दोस्त से पूछते हैं कि कैसे हो? तो जवाब मिलता है, थके हुए हैं। 
 
पिछले साल कनाडा में वैज्ञानिकों ने कम नींद लेने से हमारे ज़हन पर पड़ने वाले बुरे असर को समझने के लिए सबसे बड़ी रिसर्च शुरू की। इसके नतीजे बताते हैं कि आज दुनिया कम नींद के संकट से गुज़र रही है। एक हालिया रिसर्च बताती है कि नींद की कमी से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को हर साल 400 अरब डॉलर का नुक़सान हो रहा है। 
 
आख़िर अब से पहले के दौर में ऐसा क्या था कि नींद का ये ग्लोबल संकट नहीं था? क्या हमें पहले पूरी नींद मिल पाती थी? बीबीसी की रेडियो सिरीज़ 'द इनक्वायरी' में जेम्स फ्लेचर ने इस बात का जवाब तलाशने की कोशिश की क्या हम हमेशा ही इतना थका हुआ महसूस करते थे? कोई 11 दिन 25 मिनट बिना सोए कैसे रह सकता है?
 
आख़िर कैसी होती है गहरी नींद?
 
कनाडा की टोरंटो यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डेविड सैमसन इंसान के विकास का जीव विज्ञान पढ़ते-पढ़ाते हैं। वो इन दिनों प्राइमेट्स यानी बंदरों और इंसानों के कुनबे के विकास पर रिसर्च कर रहे हैं। इनमें बंदर हैं, लीमर हैं, लंगूर हैं, चिंपैंजी हैं और अब इंसान भी सैमसन की रिसर्च में शामिल हो गए हैं।
 
अपने रिसर्च के दौरान डेविड सैमसन दूर दराज़ के इलाक़ों में सफ़र किया करते हैं। वो पेड़ों पर चढ़ाई करते हैं और ओरांगउटान के सोने के तौर-तरीक़े और वक़्त की निगरानी किया करते हैं। उन्होंने सोते हुए ओरांगउटानों की निगरानी में क़रीब दो हज़ार घंटे ख़र्च किए हैं। वो इन प्राइमेट्स यानी इंसानों के जंगली रिश्तेदारों के वीडियो बनाते हैं। ताकि इंसान के विकास में नींद के रोल को समझ सकें।
 
इंसान के लिए 10 घंटे की नींद की जरूरी
डेविड सैमसन बताते हैं कि प्राइमेट्स यानी बंदर के परिवार के सदस्य, चिंपैंजी और ओरांगउटान जैसे जानवर 9 से 16 घंटे का वक़्त सोने में बिताते हैं। प्राइमेट्स के सोने के आंकड़े के आधार पर डेविड ने एक मॉडल तैयार किया है।
 
इसके हिसाब से इंसान को 10.3 घंटे की नींद लेनी चाहिए। लेकिन हम ऐसा नहीं करते हैं। दुनिया भर में इंसान की औसत नींद का वक़्त 6-7 घंटे रह गया है। इंसान की नींद के बारे में सिर्फ़ यही ख़ास बात नहीं है कि वो कम सोता है। बल्कि बाक़ी जानवरों के मुक़ाबले कुल नींद में से गहरी नींद का एक बड़ा हिस्सा होता है।
 
डेविड इसे रैम कहते हैं, जिसका ताल्लुक़ हमारे ख़्वाब देखने से होता है। नींद के इस दौर के कई फ़ायदे हैं। इससे हमारी याददाश्त मज़बूत होती है। हमारे जज़्बात क़ाबू में रहते हैं। यानी हम अपने जंगली रिश्तेदारों के मुक़ाबले कम सोते हैं। मगर इसमें गहरी नींद वाला हिस्सा ज़्यादा होता है। इंसानों के मुक़ाबले चिंपैंजी या लंगूर गहरी नींद में कम ही सोते हैं।
 
18 लाख साल पहले बदली थी इंसानी नींद
डेविड सैमसन के मुताबिक़ हमारे और दूसरे प्राइमेट्स की नींद में ये फ़र्क़ आज से क़रीब 18 लाख साल पहले आया। जब आदि मानवों के पुरखे पेड़ से उतर कर ज़मीन पर रहने लगे। पेड़ पर सोने के दौरान हवा के झोंके से गिरने का डर रहता था। मगर जब इंसान ज़मीन पर सोने लगे, तो ये डर ख़त्म हो गया। 
 
इसके बाद आग की खोज और झोपड़ियां बनाना सीखने के बाद से इंसान अपनी अच्छी नींद के लिए बेहतर माहौल बनाने के क़ाबिल भी हो गया। नतीजा ये कि इंसान कम वक़्त में ज़्यादा अच्छी नींद लेने लगा। इसका एक फ़ायदा ये भी हुआ कि आदि मानव दिन में ज़्यादा सक्रिय रहने लगे।
 
इंसानी प्रगति में नींद की भूमिका
दिन में ज़्यादा सक्रिय रहने का नतीजा हुआ कि इंसान दूसरे जानवरों के मुक़ाबले विकास की रफ़्तार में तेज़ी से दौड़ने लगा। एक नस्ल के तौर पर इंसान के नंबर वन बनने में इस गहरी नींद का बड़ा रोल रहा है। इसकी वजह से हमारे पुरखे रात में आराम से सोकर दिन में ज़्यादा काम कर लिया करते थे।
 
इसे और बेहतर समझने के लिए डेविड ने तंजानिया के शिकारी आदिवासियों के बीच वक़्त बिताया। ये आदिवासी रात में 6-7 घंटे सोते हैं और दिन में शिकार करते हैं। दिन में कभी-कभार झपकी लेकर वो रात की नींद की क़सर पूरी कर लेते हैं।
 
जब डेविड ने तंजानिया के इन आदिवासियों से पूछा कि क्या उन्हें अपनी नींद से शिकायत है? तो उनका एक सुर से जवाब ना में था। यानी उन सभी को अपनी नींद से पूरी तसल्ली थी। इनके मुक़ाबले अफ्रीका के मैडागास्कर में रहने वाले किसानों से जब डेविड ने यही सवाल पूछा तो, कमोबेश सभी किसान अपनी नींद को लेकर परेशान थे। जबकि वो भी औसतन 7 घंटे सोते थे।
 
डेविड इसकी वजह बताते हैं कि बहुत से लोगों को रात में जल्दी सोकर सुबह उठना पसंद है। वहीं कुछ लोगों की रात में देर तक जाग कर सुबह देर से उठने की आदत होती है। तंजानिया के आदिवासी जहां कभी भी मौक़ा मिलने पर सो लेते थे। वहीं मैडागास्कर के किसानों का सोने और उठने का वक़्त एकदम तय था। यही वजह है कि वो अपनी नींद से बहुत नाख़ुश थे। यानी इंसान अपनी नींद से लंबे वक़्त से खिलवाड़ करता आ रहा है।
 
कभी सोने न देना भी थी एक सज़ा
अमेरिका की वर्जिनिया टेक यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफ़ेसर रोजर ई। किर्च को इतिहास की क़िताबों के पन्ने पलटते-पलटते इंसान की नींद के इतिहास में दिलचस्पी हो गई। प्रोफ़ेसर किर्च सत्रहवीं सदी में ब्रिटेन के क़ैदियों के हालात पर रिसर्च कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें पता चला कि क़ैदियों को तो जागने की सज़ा भी दी जाती थी।
 
इसके बाद उन्होंने यूरोप में औद्योगिक क्रांति से पहले के इतिहास को खंगाला। प्रोफ़ेसर किर्च ने पाया कि चार्ल्स डिकेंस से लेकर लेव टॉल्सटॉय तक ने अपने उपन्यासों और कहानियों में नींद का ज़िक्र किया है।
 
औद्योगिक क्रांति ने बदली नींद की कहानी
प्रोफ़ेसर किर्च कहते हैं कि इन विद्वानों की नज़र में नींद की बड़ी अहमियत थी। इस दौरान वो ध्यान लगाते थे। ख़ुद को वक़्त देते थे। आराम करते थे। और ये नींद का यानी रात का वक़्त नई नस्ल को पैदा करने की कोशिश यानी सेक्स में भी काफ़ी काम आता था।
 
उस दौर के लोग दो हिस्सों में नींद लिया करते थे। लेकिन, यूरोप में औद्योगिक क्रांति ने सब बदल दिया। कारखानों में ज़्यादा देर तक काम करने की ज़रूरत थी। ज़्यादा काम करके ज़्यादा माल तैयार करने और ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की होड़ लगने लगी। इसका नतीजा ये हुआ कि नींद के बजाय काम करने को तरज़ीह दी जाने लगी।
 
प्रोफ़ेसर किर्च बताते हैं कि 1851 में लंदन में एक प्रदर्शनी लगी थी। इसमें एक बेड ऐसा दिखाया गया था, जिसमें देर तक सोने पर ठंडे पानी से जगा दिया जाता था। औद्योगिक क्रांति से एक और चीज़ पैदा हुई। ये थी बिजली की रौशनी। इसने तो इंसानियत को ही बदलकर रख दिया।
 
संकट में आई नींद
कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मैथ्यू वॉकर स्लीप लैब के डायरेक्टर हैं। नींद के बारे में वो जितना जानते हैं, उतना दुनिया में कम ही लोग जानते हैं। प्रोफ़ेसर वॉकर कहते हैं कि 1940 के दशक में लोग औसतन 8 घंटे सोया करते थे। मगर आज के दौर में लोग छह सवा छह घंटे की नींद ही ले रहे हैं।
 
यानी 70 साल में इंसान की नींद के घंटों में क़रीब बीस फ़ीसदी की कमी आई है। आज चाय और कॉफ़ी में पाया जाने वाला केमिकल कैफ़ीन हमारी नींद को भगाता है। शराब हमारी नींद में ख़लल डालती है। लेकिन, आज बेहतर नींद के लिए गद्दों से लेकर सेंट्रल एसी सिस्टम और धुआं मुक्त माहौल बनाने वाली मशीनें भी आ गई हैं।
 
कहां गुम हो रही है हमारी नींद?
प्रोफ़ेसर वॉकर कहते हैं कि आज हर चीज़ को मशीनी बनाकर हमने ख़ुद को क़ुदरत से दूर कर लिया है। पहले दिन ढलने के साथ गर्मी कम होती थी। और सूरज उगने के साथ माहौल की गर्माहट बढ़ती थी।
 
ये क़ुदरती इशारे हमारे शरीर को बताते थे कि हमें कब बिस्तर पर जाना है, और कब उठना है। लेकिन आज बनावटी ठंडक और बंद माहौल की वजह से ये क़ुदरती सिग्नल हमारे शरीर को नहीं मिलते। इसी तरह एलईडी बल्बों से निकलने वाली नीली रोशनी हमारे शरीर में मेलाटोनिन नाम के केमिकल के रिसाव को रोकती है। मेलाटोनिन ही हमें बताता है कि कब सोना है।
 
इसके अलावा बिजली और तकनीक की वजह से हम आधी रात को भी ई-मेल करने या सोने से पहले फ़ेसबुक स्टेटस अपडेट करने की सोचते हैं। ये भी हमारी नींद में ख़लल डालते हैं। फिर आज के दौर में मुक़ाबला कड़ा है। लोग दिन-रात मेहनत करके अमीर और बड़े बनना चाहते हैं।
 
नौ घंटे सोते थे अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश
वो उन लोगों को अपने लिए मिसाल मानते हैं, जो बेहद कम नींद लेते हैं। लगातार काम करके कामयाबी की नई ऊंचाइयां छूते हैं। बराक ओबामा से लेकर डोनल्ड ट्रंप और पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर तक बहुत कम नींद लेते थे। लेकिन प्रोफ़ेसर वॉकर कहते हैं कि हमें पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को मिसाल बनाना चाहिए, जो नौ घंटे सोया करते थे।
 
वो एक रिसर्च का हवाला देते हैं जिसमें पता चला था कि छह घंटे से कम सोने वाला एक भी शख़्स ऐसा नहीं था, जो किसी न किसी बीमारी का शिकार न हो। औसतन सात घंटे से कम नींद लेने वाले लोग डायबिटीज़, डिप्रेशन, बेवजह की चिंता, कैंसर, मोटापा और ख़ुदकुशी की इच्छा जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। जहां अस्सी के दशक में केवल तीस फ़ीसद लोग ये कहते थे कि वो मौक़ा लगने पर और सोना चाहेंगे, वहीं आज ये तादाद 60 फ़ीसद हो गई है। यानी हर दशक के साथ लोगों की नींद की मात्रा घटती जा रही है।
 
वो दौर जब शायद नींद की जरूरत ख़त्म हो जाए
ब्रिटिश साइंस राइटर जेसी गैम्बल कहती हैं कि इंसान ने हर दौर में अपनी उम्र को लंबा करने की ख़्वाहिश पाली है। वो कहती हैं कि जब हम कम सोते हैं, तो हम अपनी ज़िंदगी को ज़्यादा वक़्त देते हैं। ये एक तरह से हमारी लंबी उम्र ही तो हुई। गैम्बल कहती हैं कि शायद एक दौर ऐसा भी आए, जब इंसान को नींद की ज़रूरत ही न हो।
 
वो बचपन में पढ़ी एक साइंस फ़िक्शन का हवाला देती हैं। जिसमें कभी न सोने वाले इंसान वो थे, जो सोने वाले इंसानों पर हुकूमत करते थे। ये हमेशा जागने वाले लोग वो थे जिनके जीन में बदलाव करके उनकी सोने की ज़रूरत ख़त्म कर दी गई थी।
 
ख़ैर ये तो हुई साइंस फ़िक्शन की बात। अमरीकी सेना तो असल में भी ऐसे तजुर्बे कर रही है। जिसमें कैफ़ीन से लेकर विटामिन और दूसरे केमिकल की मदद से सैनिकों को लगातार सात दिन तक जगाए रखा जाता है। हालांकि जेसी गैम्बल इस तजुर्बे को सही नहीं मानतीं। वो कहती हैं कि नींद को ग़ैरज़रूरी समझना एक भूल होगी। वैज्ञानिक रिसर्च बताती हैं कि अगर हमारे हाथ-पैर और चेहरा गर्म होते हैं तो हमारे जल्दी सोने की संभावना बढ़ जाती है।
 
रेडियो की खरखराहट से नींद का कनेक्शन
इसी तरह अगर हम दो रेडियो स्टेशनों के बदलने के दौरान आने वाली खरखराहट को सुनें, तो हमें नींद आने में कम वक़्त लगेगा। चुंबकीय किरणें हमारे दिमाग़ को सोने का संकेत देती हैं। लेकिन ये अभी पूरी तरह से साबित नहीं हुआ है कि ये नुस्खे नींद लाने में कारगर होते हैं। फिर भी ऐसी कुछ मशीनें बाज़ार में आ गई हैं, जो आप को सुलाने में मददगार हैं।
 
जेसी कहती हैं कि शायद आगे चलकर इंसान कुछ ऐसा विकसित कर ले, जिससे उसे सोने की ज़रूरत ही न पड़े। उसकी जगह ये काम कोई और कर ले। जैसे किसी विमान में हवा में ही ईंधन भरा जाए और उसे ज़मीन पर आने की ज़रूरत ही न पड़े।
 
ये बड़ी दूर की कौड़ी है।
कुल मिलाकर तकनीक की तरक़्क़ी की वजह से हमारी नींद के घंटे कम हो गए हैं। हम काम में ज़्यादा वक़्त लगा रहे हैं। क़ुदरत से दूरी बनाने की वजह से भी हमारी नींद में ख़लल पड़ा है। नतीजा ये कि हम थका हुआ महसूस करते रहते हैं। हो सकता है कि आगे चलकर विज्ञान नींद की इस कमी को पूरा करने का कोई तरीक़ा ईजाद कर ले। तब तक तो आप बस तकिए पर सिर टिकाएं और नींद के आगोश में जाकर...ख़्वाबों में खो जाएं।
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