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Written By ND

एक जिद्दी लड़की : यथार्थ का चित्रण

आदर्श से नहीं चलता जीवन

Book review | एक जिद्दी लड़की : यथार्थ का चित्रण
मृत्युंजय प्रभाकर
ND
विजय तेंदुलकर लिखित नाटक 'एक जिद्दी लड़की' जीवन की उस सबसे बड़ी सच्चाई को हमारे सामने लाता है कि जीवन आदर्श से नहीं चलता। आदर्श, नैतिकता, सत्य और ईमान बस खोखले शब्द हैं जो दो वक्त की रोटी नहीं दे सकते। हाल ही में इंटरनेट के अंतरजाल पर भटकते हुए मैंने कहीं पढ़ा था कि जीवन पैसे से नहीं जिया जा सकता लेकिन यह कहने के पहले आप जीवन जीने भर पैसे जरूर जमा कर लें।

विजय तेंदुलकर लिखित नाटक 'एक जिद्दी लड़की' से गुजरते हुए सबसे ज्यादा एहसास इसी बात का हुआ कि आदर्श, नैतिकता, सत्य और ईमान जैसे शब्दों का मतलब तभी है जब आपके पास जीवन जीने के सारे साधन मौजूद हों। शायद इन्हीं स्थितियों के लिए कहा गया होगा कि भूखे भजन न होई गोपाला।

नाटक की मुख्य पात्र मंगला ब्याह कर एक ऐसे घर में आती है जिसका पालनकर्ता बाबूजी (उसका ससुर) झूठ-सच बोलकर और लोगों को ठगकर ही परिवार का पेट पालता आया है। उसे अपने इस काम पर कोई शर्म या हिचक नहीं है। वह अपने व्यवहार को उचित मानता है और परिवार के लोगों को भी अपने प्रपंच में शामिल करता आया है। उसके बच्चे और पत्नी तक उसकी कारगुजारियों से तंग आ चुके हैं। मंगला के आने के बाद घर का व्यवहार बदलने लगता है।

मंगला अपने ससुर के धंधों का विरोध करती है। उसका पति दिनकर और परिवार के दूसरे सदस्य भी उसका साथ देते हैं। ससुर दुनियादार है। वह घर वालों को नाराज नहीं करना चाहता। उसने घाट-घाट का पानी पिया है और लोगों को वह उनके नंगे रूप में देखने का आदी रहा है। उसे पता है कि कोई यूँ ही नहीं ठगा जाता। वह जानता है कि ठगे वही लोग जाते हैं जो लोभ में आते हैं।

घरवालों का विरोध देखकर वह चुपचाप घर पर अपना अख्तियार छोड़ देता है और इस तरह घर की सत्ता पलट जाती है। बुराई की जगह अच्छाई की जीत होती है और घर की लगाम ससुर के हाथ से छीनकर बहू के हाथ में आ जाती है। आदर्श नाटकों में तो नाटक यहीं समाप्त हो जाता और सच्चाई की जीत दर्शाकर दर्शकों को भी खुश कर दिया जाता लेकिन यह विजय तेंदुलकर का नाटक है जो जीवन की विसंगतियों को सामने लाने के लिए जाने जाते हैं।

नाटक आगे बढ़ता है और इस परिवार का जीवन भी। बहू घर की कमान अपने हाथों में लेती है और ईमानदारी से जीवन जीने के उपक्रम में घर में अचार, पापड़ जैसे छोटे उपक्रमों का कारोबार खड़ा करती है। अफसोस की पूरे घरवालों की जी तोड़ मेहनत के बाद भी उनका यह उपक्रम आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा। कोई उसमें पूंजी लगाने को तैयार नहीं है।

बहू मंगला इसके लिए दिनों भर हाथ-पैर मारती रहती है। एक साल बीतने को आए हैं। अब घरवाले भी अपना मंतव्य बदल चुके हैं। जीवन में इतनी मेहनत कर भी कुछ न पाने का गम उनपर भारी है और वह अब मंगला के प्रयोग को बंद करवाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जीवन जैसे मंगला के आने के पहले चल रहा था वैसे ही चले तो बेहतर। उसमें पेट काटने की मजबूरी नहीं थी।

यहाँ तो रोज की जरूरतों का भी संकट है। इस तरह अंत में मंगला की हार होती है। बाबूजी फिर विजेता होकर उभरते हैं। हम अपने आस-पास देखें तो शायद यही जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। तीन अंकों में गढ़ा गया यह नाटक सत्तर के दशक के नाटकों की याद ताजा करता है। यथार्थवादी शैली में इसे बड़ी सहजता से खेला जा सकता है पर आधुनिक नाटकों में हो रहे प्रयोगों के लिए यह नाटक कोई खास जगह नहीं छोड़ता। अतः इसकी स्वीकारता अंचलों तक ही सीमित रहेगी।

पुस्तक : एक जिद्दी लड़की
लेखक : विजय तेंडुलकर
अनुवाद : पद्मा घोरपड़े
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
मूल्य :195 रुपए