।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1 भावार्थ : जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।
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वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति। वैदिक समाज इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़ा रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। इसके अलावा वे यज्ञ के द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे।
शिवलिंग की पूजा का प्रचनल पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिंदू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्तियों को अपार जन-समर्थन मिलने के कारण राम और कृष्ण की मूर्तियाँ बनाई जाने लगी।
न तस्य प्रतिमा : अग्नि वही है, आदित्य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रतिमा नहीं है। उसका नाम ही अत्यन्त महान है। वह सब दिशाओं को व्याप्त कर स्थित है।- यजुर्वेद
केनोपनिषद में कहा गया है कि हम जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं वह ईश्वर नहीं हैं, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है। जो भी हम देख रहे हैं-जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि। फिर जो भी हम श्रवण कर रहे हैं- जैसे कोई संगीत, गर्जना आदि। फिर जो हम अन्य इंद्रियों से अनुभव कर रहे हैं, समझ रहे हैं उपरोक्त सब कुछ 'ईश्वर' नहीं है, लेकिन ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और साँस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। इस तरह से ही जानने वाले ही 'निराकार सत्य' को मानते हैं। यही सनातन सत्य है।
स्पष्ट है कि वेद के अनुसार ईश्वर की न तो कोई प्रतिमा या मूर्ति है और न ही उसे प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है। किसी मूर्ति में ईश्वर के बसने या ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करने का कथन वेदसम्मत नहीं है। जो वेदसम्मत नहीं वह धर्मविरुद्ध है।
मंदिर का अर्थ : मंदिर का अर्थ होता हैं मन से दूर कोई स्थान। मंदिर को हम द्वार भी कहते हैं। जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं जैसे की शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है वह मंदिर तो, उसके मायने बदल जाते हैं।
द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
परिभाषा : मन से दूर रहकर निराकार ईश्वर की आराधना या ध्यान करने के स्थान को मंदिर कहते हैं। जिस तरह हम जूते उतारकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उसी तरह मन और अहंकार को भी बाहर छोड़ दिया जाता है। जहाँ देवताओं की पूजा होती है उसे 'देवरा' या 'देव-स्थल' कहा जाता है। जहाँ पूजा होती है उसे पूजास्थल, जहाँ प्रार्थना होती है उसे प्रार्थनालय कहते हैं। वेदज्ञ मानते हैं कि भगवान प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं पूजा से नहीं।
वास्तु रचना : प्राचीन काल से ही किसी भी धर्म के लोग सामूहिक रूप से एक ऐसे स्थान पर प्रार्थना करते रहे हैं, जहाँ पूर्ण रूप से ध्यान लगा सकें, मन एकाग्र हो पाए या ईश्वर के प्रति समर्पण भाव व्यक्त किया जाए। इसीलिए मंदिर निर्माण में वास्तु का बहुत ध्यान रखा जाता है। यदि हम भारत के प्राचीन मंदिरों पर नजर डाले तो पता चलता है कि सभी का वास्तुशील्प बहुत सुदृड़ था। जहाँ जाकर आज भी शांति मिलती है।
यदि आप प्राचीनकाल के मंदिरों की रचना देखेंगे तो जानेंगे कि सभी कुछ-कुछ पिरामिडनुमा आकार के होते थे। शुरुआत से ही हमारे धर्मवेत्ताओं ने मंदिर की रचना पिरामिड आकार की ही सोची है।
ऋषि-मुनियों की कुटिया भी उसी आकार की होती थी। हमारे प्राचीन मकानों की छतें भी कुछ इसी तरह की होती थी। बाद में रोमन, चीन, अरब और युनानी वास्तुकला के प्रभाव के चलते मंदिरों के वास्तु में परिवर्तन होता रहा।
मंदिर पिरामिडनुमा और पूर्व, उत्तर या ईशानमुखी होता है। कई मंदिर पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय या नैरत्यमुखी भी होते हैं, लेकिन क्या हम उन्हें मंदिर कह सकते हैं? वे या तो शिवालय होंगे या फिर समाधि-स्थल, शक्तिपीठ या अन्य कोई पूजा-स्थल।
मंदिर के मुख्यत: उत्तर या ईशानमुखी होने के पीछे कारण यह कि ईशान से आने वाली उर्जा का प्रभाव ध्यान-प्रार्थना के लिए अति उत्तम माहौल निर्मित करता है। मंदिर पूर्वमुखी भी हो सकता हैं किंतु फिर उसके द्वार और गुंबद की रचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिर के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियाँ आवेष्टित की जाती थी। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएँगे कि मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खतम हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बड़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।
मंदिर को बनाओ प्रार्थना का स्थान : जानकार कहते हैं कि उसी मंदिर का महत्व है जिसमें सामूहिक रूप से दो संधिकाल (प्रात: और संध्या) में ठीक और एक ही वक्त पर ध्यान या प्रार्थना की जाती है। मंदिरों में यदि मूर्तियों की पूजा होती है तो कोई बात नहीं, लेकिन एक हाल भी होना चाहिए जहाँ पाँच सौ से हजार लोग खड़े रहकर प्रार्थना कर सके। परमेश्वर की प्रार्थना के लिए वेदों में कुछ ऋचाएँ दी गई है, प्रार्थना के लिए उन्हें याद किया जाना चाहिए।। ॐ।।