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बदल गई हैं औरतें!....महिला दिवस पर पढ़ें विशेष कविता

Women Day Poem
कर दिया घूंघट के भीतर से ही मना
औरतों ने हाथ के इशारों से
नहीं जाएंगी बुलावे पर रोने के लिए
और करने लगीं ठिठोली
बतियाने लगीं आपस में
गांव के बाहर बनाए गए
जात के कुएं की मुंडेर के पास!
 
कुछ बुनने लगीं अपनी कथाएं
कि बढ़ गए हैं अपने ही रोने बहुत
कहां-कहां जाएं रोने नक़ली रोना
पीटने छातियां ज़ोर-ज़ोर से
फेफड़े भी हो गए हैं कमज़ोर 
कूट-कूटकर धान ज़मींदार का!
 
जान गईं थीं औरतें अच्छे से
हो गया है वक़्त यात्रा के आने का
बुलाया गया था जहां रोने के लिए
गूंजने लगा था शोर कानों में
शहर से लाए गए बैंड-बाजों का
पर चलती रहीं औरतें बतियाती हुईं
बीच रास्ते में, घेरकर पूरी सड़क!
 
बदल गई हैं औरतें गांव की
रोना नहीं चाहती हैं अब कोई
कहती हैं बड़ी संजीदगी के साथ
खुश होने का हो काम तो बताइए!