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दिल्ली हिंसा और महिला दिवस के बहाने : नादिरा, तुम जन्नत से देख-सुन रही होंगी

दिल्ली हिंसा और महिला दिवस के बहाने : नादिरा, तुम जन्नत से देख-सुन रही होंगी - Happy Women's Day 2020
Happy women's Day


प्रिय प्यारी नादिरा,
 
रह-रहकर तुम और शहजाद याद आ रहे हों। उर्दू भाषा के राष्ट्रीय सेमिनार के बुलावे में शिरकत कर रही हूं। मंच पर बैठकर सामने उर्दू के विद्वानजन, शोधार्थी, प्रोफेसर्स बैठे हैं और मैं उन्हें देख रही हूं। पर मेरी नजरें तुम्हें खोज रही हैं। लगभग 2 साल से तुम्हारी मेरे पास कोई खबर नहीं। तुम्हारे दिए मोबाइल नंबरों पर फोन नहीं लगा, मुझे लगा कि निकाह हो गया होगा और अपनी दुनिया में मस्त हो गई होगी।
 
शहजाद नहीं आ पाएगा, यह संदेश मुझे मिल चुका था। कार्यक्रम समाप्ति पर मंच पर मुझसे तुम्हारी टीचर मिलने आईं। तुम्हारी कोई खबर मिलेगी, सोचकर मैं खुश हो गई। पर पूछने पर मालूम हुआ कि तुम्हारी रुखसती तो हुई है, पर डोली में नहीं, जनाज़े के रूप में। इस खबर ने मेरे दिमाग को चकरा दिया, क्योंकि इस बात को गुजरे 2 साल हो चुके थे।
 
तुम्हारे इस दुनिया से चले जाने पर दु:खभरे इस टूटे दिल को संभालूं या चले जाने की ख़ुशी मनाऊं? तुम्हें आश्चर्य होगा न कि तुम्हारे दुनिया को इतनी कम उम्र में अलविदा कहने से मुझे ख़ुशी किस बात की? मुझे तो गमजदा होना चाहिए, अफ़सोस मनाना चाहिए। पर कैसे मनाऊं अफ़सोस? तुम तो 'नादिरा' हो गई थीं। जानती हो न 'नादिरा' के अर्थ ढूंढने में तुम्हारे लिए 3 शब्द मिले थे- अद्भुत, विलक्षण, दुर्लभ। तीनों आज मुझे तुम पर सही लगते नजर आ रहे हैं।
 
तुम जानना चाहोगी कैसे? तो सुनो, उर्दू से मेरा खास लगाव तुम्हारे कारण भी रहा। याद है न जनवरी 2009। अपनी पहली मुलाकात। इंदौर रेलवे स्टेशन। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की वाद-विवाद टीम जिसमें टीम मैनेजर के रूप में मैं और साथी प्रमोद के साथ-साथ मेरी बेटी अनन्या भी थी। हम चारों के अलावा शहजाद तुम्हारे साथ उर्दू, बाकी हिन्दी और अंग्रेजी भाषा की टीम के बच्चे थे। कुल 8 लोगों का दल। बाकी की कहानी और जिक्र बाद में फिर किसी दिन, क्योंकि हरेक का अपना अलग किस्सा रहा है।
 
देवविवि, इंदौर की तीनों भाषाओं की टीम उसके इतिहास में पहली बार अलीगढ़ विश्वविद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिता में शामिल हो रही थी। उसी में उर्दू भाषा से तुम और शहजाद हमें मिले थे। बड़ी-बड़ी, मोटी-मोटी आंखों वाली छोटी-सी कराची की गुडिया-सी तुम दिखती थीं। माथे से दोनों गालों को छूती हुईं गोल-गोल बालों की लटें झूलती रहती थीं। तुम्हारी सादगी और सौम्यता के साथ तुम्हारी मीठी आवाज ने हम सभी को मोह लिया था। ट्रेन चलने को हुई। तुम्हारी अम्मीजी ने मुझे तुम्हें सौंपकर बहुत ज्यादा ख्याल करने को कहा। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि वे निश्चिंत रहें।
 
अब हमने एक-दूसरे को समझना शुरू किया। एक-दूसरे की कमजोरी और ताकत क्या हैं और कैसे जीतना है? यह जीत मेरे परिवार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न थी और चैंपियनशिप जीतना मेरी बेटी का सपना। इसे पूरा करने के लिए मुझे कड़ी मेहनत लगने वाली थी, क्योंकि कोई भी कमजोरी हमें चैंपियनशिप से दूर कर सकती थी इसलिए तुम सभी का श्रेष्ठ प्रदर्शन अनिवार्य था।
 
मैंने शाम की चाय के बाद रात के खाने के लिए सबको कहा। शहजाद ऊपर की बर्थ पर चुपचाप जाकर अपना खाना लेकर बैठ गया। तुमने अपनी गोद में रखा, हम सभी ने साथ में रखा। ऐसा देखकर मैंने शहजाद को एक जोर की झिड़की लगाई कि वहां खाने क्यों बैठे हो? कुछ स्पेशल है क्या? उसने सहमकर कहा- नहीं। रोट हैं और सूखी प्याज की सब्जी अम्मी ने बांधकर दी हैं। तुमने भी अपनी गोद में रखे खाने को सिकोड़कर दबा रखा था।
 
मैंने कहा कि अम्मी के हाथ का खाना तुम अकेले कैसे हजम कर सकते हों? वो तो शगुन है। प्रसाद है सभी के लिए। चलो नीचे आओ, उसके बराबर हिस्से करो और सभी में बांटो। सभी एकसाथ खाना खाएंगे मिल-बांटकर। अब से एक नियम याद रखो कि जब तक मेरे साथ हो, हम सब एक के लिए और एक सबके लिए। प्यार से मानो या मेरा आदेश समझो। मेरे सहित सभी को यह नियम पालन करना है।
 
तुम दोनों ने अलग खाने का कारण हमारा हिन्दू होना बताया कि शायद हम तुम्हारे साथ खाना पसंद न करें? ऐसा तुम्हें क्यों लगा? पूछने पर तुमने बताया कि मेरे गेरुए रंग के कपड़े पहनना, हाथों में मौली और लच्छे बंधे हुए होना, माथे पर बिंदी के अलावा भी एक कंकू की टीकी, गले में बड़ा मंगलसूत्र, साथ में शेर के नख के पेंडल का काला डोरा किसी कट्टर हिन्दू होने की निशानी लग रहा था।
 
मैं जोर से हंस पड़ी कि इतनी-सी बात? हम हैं तो इंसान ही न? तुम तुम्हारे धर्म को ईमानदारी से निभाओ, हम हमारे धर्म को। पर इन सबसे बड़ा है इंसानियत का धर्म। उसको कभी मत भूलो। और तुम नादिरा आंखें फाड़-फाड़कर मुझे ही देखे जा रही थी बस। उसके बाद 'हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं, फूल हैं अनेक किंतु माला तो एक है' की धुन पर चल पड़े अलीगढ़। अपनी आंखों में जीत का, नहीं-नहीं चैंपियनशिप जीतने का सपना संजोए।
 
अब अपनी अपनी तैयारी का समय आया। हिन्दी में जीतेंगे ही, ये मेरा विश्वास था। इंग्लिश के बच्चे भी बढ़िया तैयार थे। उर्दू में हमें ज्यादा कुछ समझ नहीं आ रहा था। फिर उसे हिन्दी में हम बोलते, उसे वो उर्दू में बदल लेते। हंसते-गाते जा पहुंचे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जो विशाल और भव्यता लिए हुए था। नाम बहुत सुना हुआ था। आयोजित होने वाली ये प्रतियोगिता उच्च स्तर की और अपने आप में अतिमहत्वपूर्ण होती है।
 
साथी प्रमोद और बेटी अनन्या को छोड़ हम सभी का ये नया और पहला अनुभव था। प्रमोद के कुशल, जानकार व अनुभवी होने से हमें जीत की रणनीति बनाना आसान हो गया। तुम अब तक केवल हमें देखती रहतीं, सुनती रहतीं, बीच-बीच में चहकने भी लगतीं। रजिस्ट्रेशन के बाद हमने प्रतियोगिता स्थल का एक दौरा करने का विचार किया जिससे कि बच्चे जगह से परिचित हो जाएं तो अगले दिन उन्हें परिचित माहौल लगे।
 
कहते हैं कि अलीगढ़ के कैनेडी हॉल में जिस किसी ने भी बिना रुके भाषण दे दिया, वो दुनिया की किसी भी जगह पर निडर होकर भाषण देने की कला में माहिर हो जाता है। अपन सभी बेहद खुश थे। हॉल का दौरा किया और फिर जब रात रुकने की बारी आई तो मैंने और प्रमोद और मैंने मैनेजर्स के लिए की गई व्यवस्थाओं में रुकने के बजाय बच्चों के साथ रहना ही तय किया ताकि उनकी तैयारी में कोई कमी न रहे और आत्मविश्वास बना रहे। हम 5 गर्ल्स होस्टल में और वो 3 बॉयज होस्टल में रुके।
 
अब यहां से शुरू हुई हम सभी की परीक्षा की घड़ी। याद है न अपन ने एकसाथ एक-सा रहने का विचार किया था। यूनिवर्सिटी मोनो का कोट, हाथों में तिरंगे का रिस्ट बैंड पहन रखा था। तिरंगे रिस्ट बैंड ने वहां हमारी अलग ही पहचान बनाई थी।
 
जम्मू-कश्मीर सहित पूरे देश से विश्वविद्यालयों की धाकड़ टीमें आई हुई थीं। खूब भीड़-भाड़ का माहौल था। पहले दिन अंग्रेजी फिर उर्दू की डिबेट होनी थी। हम अपनी चिटें ले चुके थे। हॉल खचाखच भरा हुआ था। कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। हम आठों एकसाथ खड़े थे। उनकी पूजा पद्धति शुरू हुई। इधर हमारी प्रार्थना, तुम्हारी इबादत।
 
हमने हाथ जोड़ रखे थे, तुमने हाथ उठा रखे थे। हम विघ्नहर्ता गणपति और मां सरस्वती का ध्यान कर रहे थे। तुम दोनों अपने खुदा को याद कर रहे थे। हमारी मनोकामना और तुम्हारी दुआओं में सिर्फ हमारी जीत की सदा थी। साथ में 'ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम...' वहां सार्थक हो रहा था। और यही था असल भारत। सच्चे भारत की तस्वीर। और हम केवल भारतीय। अपनी भारत मां के बच्चे। सभी वहां यह दृश्य देख चकित रह गए थे।
 
सभी के लिए हम, हमारा तिरंगा, हमारी एकता, हमारा आपसी लगाव आकर्षण का केंद्र बन चुका था। हम अपने इस स्पेशलाइजेशन का आनंद ले पाते कि इतने में तुमने हॉल में पीछे पलटकर देखा। खचाखच भरे हॉल को देखकर तुम घबरा गईं, डर गईं। ब्रेक होने तक तो तुम बुक्का फाड़कर रोने लगीं। मोटे-मोटे आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और फिर तुमने बताया कि तुम शुगर की पैशेंट हो तो यकीन मानो कि उस समय तो मेरे और प्रमोद के साथ-साथ पूरी टीम के ही होश फाख्ता हो गए।
 
खूब मनाया, खूब समझाया, तुम्हारा डर था कि जाने का नाम ही न ले। टेंशन में तुम्हारा शुगर लेवल बढ़ने का खतरा था। तुम्हें शांत करना जरूरी था। जीतने का सपना चूर-चूर होता नजर आ रहा था। सबके मुंह लटक गए, मानो किसी की बुरी नजर लग गई हो।
 
कुछ सूझ नहीं पड़ रही थी। प्रमोद मेडिकल व्यवस्था की जानकारी लेने दौड़ा। फिर एक और खुलासा किया तुमने कि क्विज़ और उर्दू लिटरेचर की होने के कारण तुम्हारा नोमिनेशन हुआ। इतनी बड़े सदन में कभी भाषण नहीं बोला। मैं तो अब मर जाऊंगी।
 
और फिर से बुक्का फाड़ रोना शुरू। सभी उदास। प्रतियोगिता में भाग लिए बिना ही हार दिखने लगी। सारी मेहनत पर पानी फिरता लग रहा था। सारा लाड़-दुलार गुड़-गोबर होने लगा। मुझे जोर से गुस्सा आ गया। मरने से ब्लैकमेल करने वालों से मुझे सख्त नफरत है।
 
बस फिर क्या था। मेरे मुंह से निकला तो मर जाओ, पर मरने से पहले कुछ ऐसा कर जाओ कि सबका भला हो जाए और सब तुम्हें अपनी यादों में और दुआओं में याद तो करें। ऐसा नक्कारा जीवन जिए तो क्या जिए? 
 
याद आया नादिरा। तुम्हें जाने क्या असर हुआ? तुम चुप हो गईं, पर हम बुरी तरह डर गए थे। तुम्हारे रोने-गाने और शुगर की बीमारी का सुनकर हमारे झांकी मंडप, ताजिये सब ठंडे पड़ चुके थे। कितनी अद्भुत थीं तुम नादिरा। इतना सब होने के बाद भी हिम्मत से चली आई थीं।
 
जैसे-तैसे इंग्लिश डिबेट में पहुंचे। मनहूसियत पीछा नहीं छोड़ रही थी। अपना नंबर आते-आते सदन मुर्दा हो चुका था। मन भी भारी था। अपनी बारी जब आई, तब तक हम सभी संभल चुके थे। करना या मरना सोच लिया था। तुम चुप थीं। हिरनी के बच्चे के समान सबको देख रही थीं। पर अंग्रेजी के पक्ष में हमने धुआंधार बोला। सदन को जिंदा कर डाला। ये तुम सभी की सुबह जल्दी उठकर मेहनत का ही परिणाम था।
 
विपक्ष की प्रस्तुति भी बढ़िया ही रही। हमारी हिम्मत वापस लौटी। तुम्हारा भी चेहरा उन तालियों की गड़गड़ाहट से खिल उठा। बस यही मौका था, जब मैंने तुम्हें कहा- नादिरा, इन दिनों में हम सबने यदि तुम्हें सच्चे दिल से प्यार किया है, ऐसा तुम्हें लगता है तो तुम्हें कैसे भी करके पूरा समय लेकर के अपना भाषण बोलना होगा। वरना तुम्हारी वजह से ये सब हार जाएंगे। ये अपनी मां अहिल्या के नाम और उनकी इज्जत व प्रतिष्ठा का प्रश्न है।
 
हमारा लंच टाइम हो चला था। तुम दोनों ने हमेशा अपना भोजन हमारे साथ और हमारे लिए की व्यवस्था पर ही खाया। हालांकि मैंने तुम्हें आग्रह किया था कि अपनी मर्जी से खाना खा सकते हो अपनी पसंद का। पर तुम दोनों ने इंकार किया और हमेशा हमारे साथ ही रहे।
 
अब अग्निपरीक्षा का समय आया। उर्दू डिबेट शुरू हुई। पक्ष में शहजाद की प्रस्तुति बढ़िया रही। हमारी उम्मीदों के दीये में आशा का तेल पड़ चुका था। विश्वास की रोशनी फिर से जगमगाने लगी थी। एक-दूसरे के हाथों को कसकर पकड़कर बैठा किया करते थे याद है ना। अब बारी तुम्हारी थी। बहुत अच्छे से याद है मुझे वो मंजर, जब तुम सफ़ेद सलवार कमीज़ में कंगूरेदार दुपट्टा ओढ़े हुए मंच पर छोटे-छोटे कदमों से जा रही थीं। और हां, शहजाद और तुम बाकियों की तरह ही हमारा आशीष-आशीर्वाद लेना नहीं भूले।
 
तुमने मंच की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते बड़ी अदा से दुपट्टा सर पर ओढ़ लिया था। घुंघराले काले बालों की लटें गालों को चूम रही थीं। सहमी-सी बड़ी-बड़ी सफेद आंखें तुम्हारे सूट से मैच होकर तुम्हें और खूबसूरत बना रही थीं। तुम पलटीं। तुमने अभिवादन शुरू किया। आदाब। अस्सलामवालेकुम। तुम्हारी उस मीठी-सी आवाज में अजीब-सी कशिश और मुग्धता थी। पर बस बच्चे तो बच्चे ठहरे। हूटिंग करने में वे उस्ताद थे।
 
बड़ा कठिन था उन्हें सुनने के लिए बाध्य कर डालना। आपकी बुलंद हिम्मत से प्रभावित कर देने वाली वाक् कला ही उन्हें सुनने के लिए मजबूर कर सकती थी। फिर उस पर तुम्हारे इस मादक अभिवादन का जवाब तो आना बनता ही था न। एक के बदले कई-कई अभिवादन जवाब गूंज उठे। 'वालेकुमसलाम', 'आदाब' से सदन गूंज उठा।
 
तुम घबरा गईं। चिड़िया के बच्चे-सा हमें ढूंढने लगीं। हमारे लिए ये जीने-मरने का पल बन गया। मेरी और प्रमोद की नजरें मिलीं। फिर पता नहीं क्या हुआ? बिजली की-सी फुर्ती से हम फर्लांगते हुए विपक्ष के डायस के सामने, नादिरा के आसपास मंच के नीचे प्रहरियों की तरह जा खड़े हुए और उससे कहा- बोलो, रुकना नहीं है। हम तेरे साथ हैं।
 
ये सब कुछ पलों में ही घट गया था। तुमने भी बिना समय गंवाए मौका लपक लिया था। विषय बोलना शुरू किया- 'वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें मानवीय मूल्यों से दूर कर रही है' के विपक्ष में अपनी बात कहना चाहती हूं। याद आया कि हमने कैसे थोड़ी चैन की सांस ली और श्रोताओं की ओर अपना चेहरा घुमा लिया। कठोर मुखमुद्रा के साथ हाथ की घड़ी और कड़ी नजरें उन पर घुमाईं और वहीं जम गए। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई थी। हमें तुम्हारा मैटर याद था। पर अब जो तुम बोल रहीं थीं वो तो ये बिलकुल नहीं था।
 
तुमने बोलना शुरू किया था रेलवे स्टेशन की मुलाकात से लेकर पूरे बीते दिनों की कहानी, जो हमने जी। हम सबने मिलकर रची। मेरा कट्टर हिन्दू होना, पर तुम सभी को प्यार करना, बाकी साथी दोस्तों के साथ का तालमेल। तबीयत खराब होने पर अग्रिम व्यवस्था, खाने-पीने का ध्यान रखना। प्यार के साथ-साथ मेरी वो अधिकार से पड़ीं डांटें, तुम्हारे साथ ही उठना, बैठना, सोना। और भी न जाने क्या-क्या?
 
धाराप्रवाह तुम मेरे, प्रमोद और अपने दोस्तों के लिए बोले जा रही थीं। ललकारती जा रही थीं अपने विषय के पक्ष में विचार रखने वाले साथियों को। तुम दिमाग से नहीं, दिल से बोल रही थीं। हम सभी भौंचक्के से खड़े थे। सदन में सन्नाटा छा चुका था, पर बीच-बीच में तालियों की आवाजें गूंजती रहीं।
 
समय पूरा होने का लाल बल्ब जलने वाला था और ऑरेंज लाइट हो चली थी। हमारी आंखें भी कब भर गईं, पता ही नहीं चला, आंसू गालों पर कब आ गए। समय खत्म हो गया था। तुमने 3 दिनों को समेटकर 6 मिनट में कैद कर दिया था। मुझे अपनी अम्मी से ऊंचा दर्जा देकर, प्रमोद को बड़े भाई और साथियों को अपने बहन-भाइयों के पावन रिश्तों के बंधन को स्वीकार कर हमारा सर फ़ख्र से ऊंचा कर दिया था। हमारे पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे थे।
 
मंच की ओर मेरे दोनों हाथ फैल गए। तुम दौड़कर नन्ही बच्ची-सी जैसी मेरे कलेजे से आकर चिपक गईं। प्रमोद और अनन्या के साथ सभी बच्चे गले लग गए। हम आठों वहां मिसाल बन चुके थे। सभी की आंखों में आंसू थे। पूरा फ़िल्मी-सा माहौल हो चुका था।
 
बैकग्राउंड में तालियों का शोर था और उस शाम के यूनिवर्सिटी न्यूज लेटर में इस घटना का जिक्र हाईलाइट था। अब हम वहां के हीरो थे। जीत सुनिश्चित हो चुकी थी। और ये तुमने कर दिखाया था नादिरा। तुम्हारे नाम का एक अर्थ तो 'विलक्षण' भी होता है, जो तुमने अपनी इस छुपी हुई प्रतिभा से सिद्ध कर दिया था। 
 
हम और तुम दोनों बच्चे उस तथाकथित गंगा-जमुनी तहजीब का ढोल पीटने वालों के मुंह पर करारा तमाचा हैं, जो अपने पाप गंगा-जमुना में धोकर उसे गंदली करते हैं और अपने आपको पाक़-पवित्र मानते हैं। तुम सभी बच्चों की मेरी लाजवाब जिंदगी के स्वर्णिम दिनों में भागीदारी है। हम हमेशा एक-दूसरे के दिलों में बिना किसी इजाजत के बसे हुए हैं, जहां से कोई भी कानून, कोई भी मजहब हमें कभी नहीं खदेड़ पाएगा।
 
इस दिल के देश में सिर्फ उन्हीं को नागरिकता मिलेगी, जो इंसानियत और नेक नियति के साथ भारतमाता की इज्जत करते हों और उसकी शान में मरने-मारने का दम-खम रखते हों। धर्म-मजहब से ऊपर देशप्रेम हो। और हम सभी केवल इंसानियत व प्रेम से बंध चुके थे। जीती-जागती मिसाल थे।
 
अगले दिन हिन्दी डिबेट थी। तुम जानती हो। हमें जीतना ही था। हम जीते। चैंपियनशिप भी। हमारा प्यार। हमारी मेहनत रंग लाई। मंच पर धूम मचा दी थी सबने। वंदे मातरम् के उद्घोष से हॉल गूंज उठा था। हमारे तिरंगे रिस्ट बैंड पहने हाथ हवा में लहरा रहे थे। मां अहिल्या के जयकारे लगाए जा रहे थे। हम सब बार-बार उस पाक़ सर सैयद की सरजमीं को चूमे जा रहे थे।
 
हम जीत चुके थे नादिरा। इतिहास रच चुके थे। हमने जो कर दिखाया था, वो न 'भूतो न भविष्यति' है आज तक। मैं अपने डिबेटर परिवार, अपने विश्वविद्यालय और उससे ज्यादा अपनी बेटी के चैंपियनशिप के सपने को साकार कर सकी, जो अकेले कभी भी संभव हो ही नहीं सकता था। तुम सब यदि न होते तो नामुमकिन था।
 
बाकियों के भी किस्से तो हैं ही, पर आज के भारत में तुम्हारी यह सच्ची कहानी कहना जरूरी है। स्टूडेंट्स बहक रहे हैं, शिक्षा के मंदिरों में हिंसा का हवन हो रहा है, अग्नि दानव तांडव मचा रहे हैं, धर्म के नाम पर इंसानियत के मुंह पर कालिख मली जा रही है, किताबों में बारूद, शास्त्रों में शास्त्र, हाथों में पत्थर उठ गए हैं। ज्ञानार्जन की गलियों में गुजरने की बजाय गुनाहों की सड़कें पकड़ ली हैं।
 
देश जल रहा है। अब वैसा नहीं रहा, जैसा हमने बनाया था। जिया था साथ में। हाथों में हाथ डाले। पर अब तुम तो चली गई हो। हमें सिखाकर नादिरा। अद्भुत, विलक्षण और दुर्लभता का अर्थ समझाकर। कभी न भूल पाएंगे तुम्हें।
 
और हमारी जीत! अपनी जीत की यह अनूठी, सच्ची भारतीयता और इंसानियत की मिसाल। मजहबी दीवारों को ध्वस्त करती यह दास्तां हमेशा हमेशा दिलों में अमर रहेगी।
 
तुम इस जहां में भी हूर की तरह रहीं। यकीनन वहां भी जन्नत में सुकून ही नसीब हुआ होगा। अल्लाह से कहना कि जिस जन्नत से तुम उस जन्नत में गई हो, वो अब यदि मेहरबानी कर अपने बंदों को नहीं संभालेगा तो जल्द ही ये दुनिया दोजख की आग में जल जाएगी। यहां हम भी अपने ईश्वर से दिन-रात यही प्रार्थना करते हैं।
 
आमीन!
 
मालिक सबको सन्मति दे। 
 
तुम्हें ढेर सारा प्यार, अगले जन्म में फिर मिलेंगे।
 
-तुम्हारी हिन्दू मां
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