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Written By WD

समाज को बदल डालो!

समाज को बदल डालो! -
-निर्मला भुराड़िय

उपरोक्त बैनर बीसवीं सदी के न्यूयॉर्क में मताधिकार के संबंध में स्त्रियों की गैर बराबरी की स्थिति पर व्यंग्य है, 'न्यूयॉर्क राज्य अपराधियों, विक्षिप्तों, मूर्खों और महिलाओं को मताधिकार देने से इंकार करता है।'हाथ कंगन को आरसी क्या? जाहिर है दुनिया के गणतंत्रों में पहले-पहल महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। और जब महिलाओं ने इसकी माँग की तो कट्टरपंथियों ने इसका विरोध ऐसे किया जैसे वे उनके बराबर की इंसान न हों। मगर जबर्दस्त विरोधों, प्रदर्शनों, गिरफ्तारियों के बाद क्रांति हुई और महिलाओं को वोटिंग राइट्स मिले।

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तात्पर्य यही है कि कट्टरपंथी हर बदलाव का विरोध करते हैं, चाहे बात कितनी ही सही हो, वे उसे नहीं मानते। पहले-पहल जब कहा गया दुनिया गोल है तो उसका भी विरोध हुआ। पहले-पहल जब कहा गया पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है, सूरज पृथ्वी की नहीं तो इसका भी विरोध हुआ, बात की वैज्ञानिकता बगैर जाँचे-परखे।

हर युग में कट्टरपंथी सच को सूली पर चढ़ाते रहे, सच बोलने वालों की गर्दन काटते रहे हैं। कट्टरपंथी से कुछ कम कट्टर यानी भेड़वृत्ति के लोग पिटी-हुई लकीर पर, पहले गुजर चुके लोगों के पीछे बगैर सोचे-समझे चलते हैं। और यथास्थितिवादी, सुविधा-भोगी भी हर परिवर्तन का विरोध करते हैं, अतः प्रगतिशील वही है जो समय, काल, परिस्थिति के नए तर्कों के अनुसार उचित परिवर्तन करे। पुरानी बात में गैर बराबरी और अन्याय की कालिख हो तो उसे धो-पोंछकर शुद्ध करें। यही बात आती है जब बेटियों द्वारा अपनों के अग्नि संस्कार की बात आती है।

अब जब औरत ने देहरी लाँघ ली है। वह पाताल से अंतरिक्ष तक का फासला नाप चुकी है तो फिर एक सामान्य बात का विरोध क्यों? क्या नासा ने कल्पना चावला को अंतरिक्ष में ले जाते वक्त सोचा कि यह 'औरतों का काम नहीं', औरतें नाजुक दिल होती हैं? समय के साथ बहुत-सी मान्यताएँ बदली हैं वैसे ही यह भी बदल सकती है। और फिर बात छोटी-सी है, लड़कर कोई बहुत महान अधिकार लेने वाली बात नहीं है।

बात इतनी-सी है कि जहाँ पुत्र न हों वहाँ पुरुष रिश्तेदारों का मुँह न देखते हुए लड़की ही अग्नि संस्कार कर ले (यदि उसकी व्यक्तिगत संवेदना अनुमति देती है तो)। इसे भी प्रथा नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि प्रथा बनते ही किसी भी बात का स्थिति अनुसार निर्णय करने का लचीलापन समाप्त हो जाता है। न ही इसे स्त्री-स्वातंत्र्य का झंडा लहराने वाला फैशन बनाया जा सकता है। बस यही कि कोई संतान अपने माता-पिता के प्रति यह अंतिम कर्तव्य निभाना चाहे तो सिर्फ इसलिए अड़चन नहीं आना चाहिए कि वह लड़की है।

जो लोग इसी आशा में परिवार नियोजित नहीं करते कि पुत्र ही उनकी आत्मा का उद्धारक है, मोक्षदायक है, तो उनसे यह अपील है कि जब वे आत्मा को ही मानते हैं तो यह भी लगे हाथों मान लें कि लड़के और लड़की का अंतर दैहिक है। आत्मा का कोई आकृति विज्ञान नहीं है। सबकी आत्मा बराबर है। जहाँ तक शास्त्रोक्त होने की बात है, वहाँ तो पिछली सदियों में तो यह भी कहा गया था कि दलित और स्त्री वेद सुनें तो उनके कानों में पिघला सीसा डाल दिया जाए! तो यह तो बदलना ही था, क्योंकि यह अतार्किक, अनुचित और अन्यायपूर्ण था। वैसे ही वह चीजें भी बदलना चाहिए जो आज अतार्किक हैं।

प्रथम प्रतिश्रुति में आशापूर्णा देवी की नायिका सत्यवती 'मगज के अंधे' पुरातनपंथियों की अच्छी चुटकी लेती है। कविता रचने वाली सत्यवती से जब यह कहा जाता है कि हमारे समाज में लड़कियाँ पद्य नहीं रचतीं तो वह फट से पूछ लेती है, 'तो फिर आपकी विद्या की देवी सरस्वती क्यों हैं? क्या वे लड़की नहीं।' वैसे ही आज भी यह पूछा जा सकता है-हाथ में नरमुंड लिए देवी माँ क्रोधित हो मानव शव पर नृत्य कर रही हैं तो क्या वे स्त्री नहीं, जब रौद्र रूप में न हों तब क्या वे कोमलांगी नहीं? और यह क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों उनके सामने हाथ जोड़ स्तुति में खड़े हैं। उन्होंने तो 'स्त्री-शक्ति' का विरोध नहीं किया?

सच तो यह है कि आज के समाज में भी कई पुरुष उदार भी हैं, अतः वे सब 'पुरुष जाति' कहला कर उन पुरुषों का प्रतिनिधित्व नहीं करते जो कट्टरपंथी हैं? और परिवर्तनों के प्रति विरोध के स्वर ऐसी स्त्रियों के भी होते हैं, जिनका दिमाग प्राचीन अँधेरी कंदराओं में अटक कर रह गया है। उन्हें एक्सपोजर नहीं मिला, अतः रोशनी उनके लिए वर्जना है, चेतना नहीं। इसके लिए जरूरी है कि स्त्री चेतना के कुछ सच्चे उदाहरण समाज के सामने आएँ।