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Written By Author अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

बुद्धिमान नहीं थे स्वामी विवेकानंद

बुद्धिमान नहीं थे स्वामी विवेकानंद - Swami Vivekananda
12 जनवरी 1863-4 जुलाई 1902 (39 वर्ष)


 
आप शीर्षक देखकर चौंक गए होंगे। विवेकानंद के प्रति प्रेम रखते हो तो जरूर गुस्सा हो गए होंगे, लेकिन यह सही बात है। जिन्हें दर्शन की जरा भी समझ है वे स्वामी विवेकानंद को कतई बुद्धिमान व्यक्ति नहीं मान सकते। अब सवाल यह उठता है कि जब वे बुद्धिमान नहीं थे तो फिर क्या थे? आप क्या मानते हैं उन्हें?
 
हमारे इस शरीर को जड़ जगत का हिस्सा कहा जाता है इसी में प्राण है। हमारे भीतर सांसों के द्वारा वायु का जो आवागमन है उसे ही प्राण कहा जाता है। प्राण में छिपा हुआ है मन और मन में ही बुद्धि का जन्म होता है। अब मन क्या है यह हम जानते हैं। तभी जान पाएंगे कि बुद्धि क्या है।
 
मान लो पांच कलर या पांच तरह के टॉर्च है- आंख, कान, नाक, जीभ और स्पर्श। उक्त पांचों के प्रकाश को किसी एक ही जगह या बिंदु पर डालों तो वहां एक नई चीज की उत्पत्ति होती है- बस यही मन है जहां भाव और विचार प्राणों द्वारा संचालित होते रहते हैं। भाव और विचार के सम्मलित रूप को ही हम बुद्धि कहते हैं।
 
बुद्धि का स्वभाव है अहंकार। अहंकार से संदेह, तर्क और चालाकी का जन्म होता है। बुद्धि ही तर्क, वितर्क, कुतर्क या सुतर्क करती है। बुद्धि में ही बहस करने की क्षमता होती है। बुद्धि ही अलगाव का कारण है। पूरी ‍दुनिया में जो हिंसा और अराजकता है उसका कारण बुद्धि ही है। बुद्धि प्रत्येक चीज या विचार को तोड़कर ही देखती है। बुद्धि वर्तुलाकार होती है। विचार जहां से शुरू हुआ वहीं पर जाकर खत्म भी हो जाता है। बुद्धि की अपनी सीमा होती है। वह उस सीमा से कभी पार नहीं जा सकती। बुद्धि को मुख्यत: दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला जड़ बुद्धि और दूसरा तर्क बुद्धि। दोनों ही से संसार में क्रिया और प्रतिक्रियाएं चलती रहती है।
 
भारत और अन्य देश में कई तरह के बौद्धिक वर्ग होते हैं। तथाकथित वामपंथी, दक्षिणपंथी व पूंजीवादी साहित्यकार, सलाहकार, प्रबंधक, फिल्म मेकर और कला के क्षेत्र के तमाम लोगों को बौद्धिक वर्ग का माना जाता है, जो किसी चैनल, अखबार या अन्य किसी जगह पर बहस करते हुए प्राय: पाए जाते हैं। वे पक्ष या विपक्ष में होते हैं वे निष्पक्ष होने का ढोंग भी करते हैं। वे स्वयं को बुद्धिमान कहलाना पसंद भी करते हैं। ऐसे ही लोग राजनीति और अध्यात्म के क्षेत्र में भी प्राय: पाए जाते हैं। दरअसल ये सभी अनुसरणकर्ता होते हैं। यही सही को गलत और गलत को सही करने में कुशल होते हैं। जड़ बुद्धि व्यक्ति इन्हीं के हाथों की कठपुतली बना हुआ है।
 
जड़ में प्राण, प्राण में मन और मन में बुद्धि होती है। जब व्यक्ति बुद्धि से उपजने वाले दुख और द्वंद्व से तंग आ जाता है तो वह धीरे-धीरे मौन होने लगता है। मौन से मन की मृत्यु होने लगती है। मन की मृत्यु से विवेक का जागरण होता है। विवेक ही सच्चे ज्ञान का आधार है। विवेक ही हमें बुद्धि के पार ले जाकर हमें अंतरदृष्टि सम्पन्न बनाता है।
 
स्वामी विवेकानंद जब तक नरेंद्र थे बहुत ही तार्किक थे, नास्तिक थे, मूर्तिभंजक थे। रामकृष्ण परमहंस ने उनसे कहा भी था कि कब तक बुद्धिमान बनकर रहोगे। इस बुद्धि को गिरा दो। समर्पण भाव में आओ तभी सत्य का साक्षात्कार हो सकेगा अन्यथा नहीं। तर्क से सत्य को नहीं जाना जा सकता। विवेक को जागृत करो। विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस की बातें जम गईं। बस तभी से वे विवेकानंद हो गए। फिर उन्होंने कभी अपनी नहीं चलाई। रामकृष्ण परमहंस की ही चली।
 
भारत के तथा‍कथित युवा लोग स्वामी विवेकानंद को अपना प्रेरणास्रोत्र मानते हैं, लेकिन वे खुद कितने युवा है यह कौन तय करेगा? उन्होंने क्या पढ़ा है, क्या लिखा है और उनमें कितनी समझ है ये कौन तय करेगा?
 
स्वामीजी ने तो 25 वर्ष की उम्र में ही वेद, पुराण, बाइबल, कुरआन, धम्मपद, तनख, गुरुग्रंथ साहिब, दास केपीटल, पूंजीवाद, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, साहित्य, संगीत और दर्शन की तमाम तरह की विचारधाराओं को घोट दिया था, लेकिन हमारे आज के युवा तो 25 वर्ष की उम्र तक भी स्वयं के धर्म, देश और समाज के दर्शन और इतिहास को किसी भी तरह से समझ नहीं पाते....। वे तो सिर्फ धर्म के तथाकथित ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों द्वारा हांके जाते हैं। फिर क्यों वे विवेकानंद को मानते हैं?