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Written By अनिरुद्ध जोशी

Shri Krishna 2 August Episode 92 : जब अर्जुन कर लेता है सुभद्रा का हरण, भड़क जाते हैं बलराम

Shri Krishna 2 August Episode 92 : जब अर्जुन कर लेता है सुभद्रा का हरण, भड़क जाते हैं बलराम - Shri Krishna on DD National Episode 92
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 2 अगस्त के 92वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 92 ) में बलरामजी द्वारिकापुरी में लौटकर यह समाचार सुनाते हैं कि मैंने सुभद्रा का रिश्ता दुर्योधन से तय कर दिया है। मैंने दुर्योधन को इसके लिए वचन भी दे दिया है। यह सुनकर श्रीकृष्ण, अर्जुन, रुक्मिणी और सुभद्रा चारों ही अचंभित और दुखी हो जाते हैं। क्योंकि अर्जुन और सुभद्रा दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं एवं श्रीकृष्ण दोनों के विवाह का वचन दे चुके होते हैं...अब आगे।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
तब बलरामजी प्रसन्नता से कहते हैं- अब हमारी छु‍टकी हस्तिनापुर के विशाल साम्राज्य की महारानी बनेगी। यह सुनकर सुभद्रा को चक्कर आने लगते हैं तो रुक्मिणी हाथ पकड़कर उन्हें अपने कक्ष में ले जाती है। यह देखकर बलरामजी हंसते हुए कहते हैं- कन्हैया मैंने कहा नहीं था कि इसके होश उड़ जाएंगे, देखो वैसा ही हुआ है। फिर बलरामजी अर्जुन से कहते हैं- अर्जुन! भई तुम्हें भी बधाई हो कि द्वारिका की राजकुमारी का विवाह तय तुम्हारे बड़े भाई दुर्योधन के साथ हुआ है। महाराज युधिष्ठिर को तत्काल इस शुभ समाचार की सूचना भेजो।
 
अर्जुन दुखी भाव से अपने कक्ष में चला जाता है और वहां वह अपने धनुष, मुकुट, वस्त्र आदि को एक ओर एकत्रित करने लगता है तभी वहां पर सुभद्रा आ पहुंचती है और पूछती है- ये क्या कर रहे हो पार्थ? अर्जुन कहता है जाने की तैयारी। तब सुभद्रा कहती है- इतनी जल्दी? इस पर अर्जुन कहता है- दो माह से अधिक हो गया है आपको अतिथि सेवा का कष्ट देते हुए। फिर भी आप इसे इतनी जल्दी कहती है? तब सुभद्रा कहती है- अतिथि सेवा से कष्ट नहीं होता उसमें तो आनंद होता है। तब अर्जुन कहता है कि यह तो आपकी उदारता है इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यह सुनकर सुभद्रा कहती है- ये क्या कर रहे हो पार्थ, ऐसी व्यंगभरी बातें करोगे तो मेरा धीरज टूट जाएगा। मैं कोई अनुचित कार्य कर बैठूंगी, फिर मुझसे मत कहना।
 
तब अर्जुन कहता है- देखो सुभद्रे! इस समय हमारी परीक्षा की घड़ी है हमें कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे हमारे कुल को या हमारी मर्यादा को लाज लगे। यही समय उचित और अनुचित के विवेक का है। तब सुभद्रा कहती है- क्या उचित है और क्या अनुचित इस समय मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा। इसलिए मैं आपसे ये पूछने आई हूं कि इस परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए?
 
तब अर्जुन कहता है कि सबसे पहला अनुचित कार्य तो यह है कि इस प्रकार तुम मुझसे मिलने एकांत में चली आई हो। तुम्हें अब इस प्रकार मेरे कक्ष में नहीं आना चाहिए। इस पर सुभद्रा कहती है- क्यों नहीं आना चाहिए, क्या हम एक-दूसरे से प्रेम नहीं करते? तब अर्जुन कहता है कि करते थे, आज नहीं करना चाहिए क्योंकि यह ठीक नहीं। फिर सुभद्रा कहती है- ठीक नहीं का अर्थ बताइये, क्या अनुचित है और क्या ये पाप है?... अर्जुन कई तरह से सुभद्रा को समझाने का प्रयास करता है कि अब हमारा मिलना उचित नहीं लेकिन सुभद्रा यह मानती ही नहीं है। तब अर्जुन कहता है कि प्रेम का अर्थ होता है बलिदान। अर्जुन समझाता है कि मैं ऐसा कोई अनुचित कार्य नहीं करना चाहता जिससे हमारे और तुम्हारे कुल को कलंक लगे और मेरे और श्रीकृष्ण के संबंध पर कोई आंच आए। इस जीवन में हमारा साथ यहीं तक था। भगवान तुम्हारे नए जीवन में बहुत सुख दे। यही आशीर्वाद देकर मैं जा रहा हूं।
 
तब सुभद्रा कहती है- जाइये अब में आपको रोकूंगी नहीं। मैंने आपकी ये बात मान ली कि हमारा प्रेम कभी मरेगा नहीं। हम प्रेम को कलंकित भी ना होने देंगे। सब मर्यादाओं का पालन भी करेंगे। इस जीवन में हमारा मिलन नहीं हो सका ये बात भी मैं हंसकर सह लूंगी। परंतु आपने जो मुझे नए जीवन में सुख का आशीर्वाद दिया उस आशीर्वाद को मैं स्वीकार नहीं करूंगी। क्योंकि आपसे दूर रहकर अब मैं कोई नया जीवन नहीं जी सकती और न मैं इस शरीर को किसी और के लिए जीवित रख सकती हूं। इससे पहले की कोई और हाथ इसे छूए, मैं इस शरीर को समाप्त कर सकती हूं। मेरी कोई भूल-चुक रह गई हो तो मुझे माफ कर देगा। अब नहीं आऊंगी में, हां जब जाओगे तो एक बार पलटकर मुझे जरूर देख लेना। मैं आपके अंतिम दर्शन के लिए महल की छत पर खड़ी रहूंगी।...ऐसा कहकर सुभद्रा अर्जुन के पैर छूकर चली जाती है।
 
उधर, रुक्मिणी देखती है कि श्रीकृष्ण ध्यान में बैठे-बैठे मुस्कुराकर वाह...वाह कर रहे हैं। तब रुक्मिणी कहती है कि मुझे आपकी ये निर्मम मुस्कान अच्छी नहीं लगती। यह सुननकर श्रीकृष्ण अपनी आंखें खोलते हैं। फिर रुक्मिणी कहती है कि पत्‍थर का हृदय है आपका। दो प्रेमियों के जीवन में भूचाल आ रहा है और आप अपने ही ध्यान में मगन होकर आनंद ले रहे हैं। हे प्रेम के अवतार धरती पर प्रेम करने वालों पर क्या घटती है इस पर भी तो दृष्टि डालिये। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- उन्हीं को तो देख रहा हूं इसीलिए तो वाह वाह कर रहा हूं। इस पर रुक्मिणी कहती है- किसी की पीड़ा में आनंद ले रहे हैं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं मैं तो उनके प्रेम की ऊंचाइयां देखकर प्रसन्न हो रहा हूं। कितना आदर्श प्रेम है दोनों का, प्रणाम करने को जी चाहता है। मुझे प्रसन्नता हो रही है कि अर्जुन और सुभद्रा दोनों ही अपने अपने धर्म से नहीं डोले हैं। बस अभी तक उन्हें सही रास्ता नहीं दिख रहा है, वही हमें दिखाना है। तुम जानती हो कल अर्जुन जाना चाहता है परंतु तुम चिंता ना करो, कल तक कुछ नहीं होने वाला है। तुम विश्राम करो, प्रात:वेला में फिर बात करेंगे। 
 
प्रात: बलराम सभी के समक्ष कहता है और हां पुरोहितजी को बुलाकर शीघ्र मुहूर्त निकलाओ। लग्न पत्रिका हस्तिनापुर भेजनी होगी और बाकी भी तो सारी तैयारियां करनी है। 
 
उधर, सुभद्रा अपने कक्ष में आंसू बहा रही होती है तब रुक्मिणी आकर कहती है- धैर्य से काम लो राजकुमारी धैर्य से काम लो। राजकुमारियां ऐसे रोती नहीं हैं। तब सुभद्रा कहती है- भाभी मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि अब मैं क्या करूं और ये तुम निश्‍चित जान लो की यदि मेरा विवाह दुर्योधन से कराया जाएगा तो हस्तिनापुर सिर्फ मेरा शरीर जाएगा। प्राण तो मैं पहले ही त्याग दूंगी। यह सुनकर रुक्मिणी चौंक जाती है। तभी वहां श्रीकृष्ण आकर कहते हैं- सुभद्रा! आत्महत्या करना पाप है। अरे ये क्या दशा बना रखी है। तू तो दृढ़ संकल्प कन्या है। इस तरह अधीर होने से कैसे काम चलेगा? यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- ये बिचारी क्या करें। अरे आप ही दाऊ भैया को समझाइये कि सुभद्रा दुर्योधन से विवाह नहीं करना चाहती तो ये विवाह रोक दिया जाए। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- पर उन्होंने दुर्योधन को वचन दे दिया है। इस पर रुक्मिणी कहती है कि वचन तो सुभद्रा ने भी अर्जुन को दिया है। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि तो फिर वचन देने वाले को अपना वचन निभाना चाहिए। यह सुनकर सुभद्रा और रुक्मिणी दोनों चौंक जाती है। तब रुक्मिणी कहती है- इसका क्या अर्थ है?
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम इसका अर्थ पूछ रही हो, क्या तुम ये भूल गई हो कि तुम्हारे भाई रुक्मी ने भी शिशुपाल से तुम्हारा विवाह करने का वचन दिया था। तब तुमने क्या अपने भाई की बात सुनी थी या अपनी आत्मा की? यह सुनकर रुक्मिणी और सुभद्रा सोच में पड़ जाती है। 
 
फिर श्रीकृष्ण के पास आकर अर्जुन कहता है- कन्हैया आपने मुझे यहां बुलाया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां। अर्जुन कहता है- कहिये। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुमसे ये पूछने के लिए बुलाया कि अभी इस परिस्थिति में तुम्हारा क्या करने का इरादा है? तब अर्जुन ठंडी श्वांस छोड़कर कहता है- और क्या कर सकता हूं जाने से पहले केवल शुभकामना दे सकता हूं कि इस विवाह से सब सुखी रहें। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह! इन्हें देखो! एक परमवीर छत्रिय योद्धा जब लड़ने का समय आया तो कायरों की तरह रणभूमि को छोड़कर भाग जाने की बात कर रहे हैं। यह सुनकर अर्जुन कहता है- परंतु ये रणभूमि नहीं है मधुसुदन। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- और रणभूमि किसे कहते हैं? पार्थ ये सारा जीवन एक रणभूमि है। जिसमें पग-पग पर धर्म और वीरता का परिचय देना पड़ता है। तुम इस समय प्रेम की रणभूमि में खड़े हो जब किसी दूसरे का हाथ तुम्हारी प्रेमिका की ओर बढ़ रह है तो तुम्हें उसकी रक्षा करना चाहिए या कायरों की भांति रणभूमि को छोड़कर भाग जाना चाहिए?
 
तब अर्जुन कहता है कि परंतु इस परिस्थिति में मैं क्या कर सकता हूं? एक ओर सुभद्रा मेरा प्रेम है तो दूसरी ओर मेरे सखा और उसके बड़े भैया। जब दोनों ने सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने का निश्चय कर लिया है तो सुभद्रा और मैं दोनों विवश हो गए हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि पहली बात तो ये कि ये निश्चय बड़े भैया ने किया है, मैंने कोई वचन नहीं दिया है। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि तो फिर जब भैया ने सबके सामने ये कहा था तब आपने इसका विरोध क्यों नहीं किया? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- क्योंकि मैं छोटा भाई हूं और मेरा धर्म उनसे ये कहने की आज्ञा नहीं देता।
 
तब अर्जुन कहता है कि इसका अर्थ है कि वो जो भी आज्ञा देंगे वो आपको माननी पड़ेगी। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- अवश्य। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि तो फिर आप मुझे जाने से क्यों रोक रहे हैं? इस पर कृष्ण कहते हैं कि इस परिस्थिति में सुभद्रा को छोड़कर जाना तुम्हारा धर्म नहीं है। ये प्रेम की मर्यादा नहीं है पार्थ। जो मैं करूंगा वह छोटे भाई का धर्म होगा परंतु तुम जो करोगे वह प्रेमियों का धर्म होगा। तुमने अभी कहा था ना कि मैं सब को सुख की शुभकामना देता हूं तो क्या तुम्हारे जाने से तुम सुखी रहोगे और क्या सुभद्रा सुखी रह पाएगी? तब अर्जुन कहता है कि मैं समझ नहीं सकता कन्हैया कि आप कहना क्या चाहते हैं? 
 
केवल इतनी बात की वीरों की भांति अपने धर्म का पालन करो। तब अर्जुन कहता है परंतु आप? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- इस समय तीन धर्म आपस में टकरा रहे हैं। सुभद्रा का धर्मसंकट है कि प्रेम की मर्यादा निभाएं या अपने कुल का शिष्टाचार। प्रेम से बड़ा कोई धर्म नहीं है पार्थ, इसलिए उसने अपने प्रेमी को जो वचन दिए हैं उन्हें निभाना चाहिए। और तुम्हारा धर्म संकट ये है कि तुम अपने प्रेम के साथ जीवनभर रहने के वचन को निभाओ या अपने सखा के डर से सारे दिए हुए वचन भूल जाओ। पार्थ तुम्हारा एक ही धर्म है कि तुमने जिसे प्रेम का वचन दिया है उसी का साथ निभाओ फिर यदि तुम्हें मुझसे भी युद्ध करना पड़े तो उससे पीछे ना हटो। 
 
यह सुनकर अर्जुन आश्चर्य से कहता है आप मुझसे युद्ध करेंगे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि दाऊ भैया ने आज्ञा दी तो करना पड़ेगा। वो मेरा धर्म है।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि ये सब धर्म तो समझा दिए परंतु इस उलझन को सुलझाया कैसे जाएगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि तुम दोनों का प्रेम सच्चा है तो रुक्मिणी तुम्हें रास्ता बता देंगी कि ऐसी परिस्थिति में उसने क्या किया था। परंतु एक ही शर्त है कि निश्चय दृढ़ हो और प्रेम सच्चा हो फिर कोई भी शक्ति तुम्हें विचलित नहीं कर सकती और ना ही अलग कर सकती है।
 
फिर श्रीकृष्‍ण हंसते हुए कहते हैं- सुभद्रा गौरी मंदिर में पूजा करने किस दिन जाया करती है? तब रुक्मिणी कहती है प्रति शुक्रवार को? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- तो कल शुक्रवार है ना। तब रुक्मिणी कहती है- जी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तो ठीक है। ऐसा कहकर वे वहां से चले जाते हैं।

फिर श्रीकृष्‍ण बलरामजी के साथ विवाह की तैयारी का जायजा लेते हैं। बलरामजी कहते हैं कि अपनी लाड़ली सुभद्रा का विवाह इतनी धूमधाम से होना चाहिए कि सारे संसार में पता चल जाए कि द्वारिका का ऐश्वर्य सर्वश्रेष्ठ है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- मेरी भी यही इच्छा है दाऊ भैया। यह सुनकर दाऊ भैया प्रसन्न होकर कहते हैं कि अरे! वो तो होनी ही चाहिये कन्हैया क्योंकि कुलीनवंश की ये परंपरा है कि एक भाई जैसा सोचता है तो दूसरा भाई वैसा ही करता है। फिर दोनों हंसने लगते हैं।
 
तभी वहां सुभद्रा पहुंचकर दाऊ भैया को प्रणाम करती है तो दाऊ भैया कहते हैं- आओ मेरी प्यारी बहना सदा सुखी रहे। इस पर सुभद्रा कहती है- आपने मुझे बुलाया दाऊ भैया। तब दाऊ भैया कहते हैं- हां मैंने सोचा के तुम्हारे विवाह की तैयारियां हो रही हैं तो क्यों ना तुम्हें ही बुला लिया जाए। सुभद्रे! ये दोखो..ये हीरे, पन्ने, माणिक और मोतियों से बने अलंकरण। ये सब तुम्हें रुचिकर है ना? यह सुनकर सुभद्रा कहती है- भैया इन सबसे बढ़कर मुझे आपका प्रेम रुचिकर है। यह सुनकर बलरामजी भावुक होकर कहते हैं- तभी तो मैं सोचता हूं कि जब तुम द्वारिका से चली जाओगी तो यह सुनापन बहुत खलेगा। तुम्हारी सुरमयी आवाज सुनने को मैं तरस जाऊंगा। सुभद्रे! कभी कभी मैं क्रोध में आकर तुम्हें डांटता रहा हूं इसके लिए मुझे क्षमा कर देना परंतु इसके पीछे भी तुम्हारे हित की भावना ही रही है मेरे मन में।
 
यह सुनकर सुभद्रा रोने लगती है तो बलरामजी कहते हैं- अरे! ये क्या, तू रो रही है। यह सुनकर सुभद्रा कहती है- भैया मैं गौरी पूजन के लिए माता के मंदिर जा रही हूं मुझे आशीर्वाद दीजिये की माता मेरी पुकार सुन लें। यह सुनकर बलराम कहते हैं- अवश्‍य सुनेगी। मेरी प्यारी बहना माता से जो भी वरदान मांगेंगी माता उसे अवश्य पूरी करेंगी, ये मेरा आशीर्वाद है। ऐसा कहते हुए बलरामजी की आंखों में भी आंसू आ जाते हैं। 
 
फिर सुभद्रा श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहती है- भैया आज्ञा दो। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- आयुष्यमान भव:, सदा सुखी रहो। तुम्हारी सब मनोकामनाएं पूर्ण हो, जाओ। फिर सुभद्रा रुक्मिणी से गले मिलकर रोती है और फिर पूछती हैं- मैं जाऊं? रुक्मिणी कहती हैं- हां। जाओ जल्दी जाओ। फिर रुक्मिणी दासियों की ओर देखकर कहती है- सुनो! राजकुमारी का ध्यान रखना। दासियां कहती हैं- जो आज्ञा। फिर सुभद्रा जाने लगती है तो श्रीकृष्ण रुक्मिणी से धीरे से कान में कहते हैं- इससे कहो कि अर्जुन रथ में पीछे बैठे और सुभद्रा सारथी बनें। रुक्मिणी यही बात जाकर सुभद्रा के कान में कहती है। सुभद्रा समझ जाती है और चली जाती है और कुछ दूर जाकर बार-बार पलटकर सभी को देखती है। 
 
फिर बलरामजी आगे आकर श्रीकृष्ण से कहते हैं- कन्हैया! श्रीकृष्ण कहते हैं- हां...। तब बलरामजी कहते हैं कि सुभद्रा यूं बार-बार पीछे मुड़कर क्यूं देख रही थी? ऐसा लग रहा था मानो वो इसी क्षण हमसे ससुराल जाने के लिए विदा मांग रही हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- आप भी तो कितने भावुक हो गए थे दाऊ भैया। सच पूछो तो मुझे भी ऐसा लग रहा था कि सचमुच वो अपने पति के घर जा रही हो। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- अरे कन्हैया बहन को विदा करने के सोचने मात्र से ही मेरे मन में न जाने क्या होने लगता है। सचमुच कन्हैया बड़ी प्यारी बहन है हमारी। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- एक ही तो बहन है हमारी। भैया आज आप उसे मंदिर जाते देखकर इतने विचलित हो गए तो कल जब वास्तव में उसे विदा करेंगे तो आपकी क्या दशा होगी दाऊ भैया? यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- कन्हैया तुम तो जानते ही हो मैं बड़ा सीधा-सादा व्यक्ति हूं। मन को स्पर्श करने वाली किसी भी घटना से भावुक हो जाता हूं। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- इसी बात का तो लाभ उठा लेते हैं आपसे चालाक लोग। यह सुनकर बलरामजी सकपका जाते हैं फिर वे कहते हैं- कन्हैया वो सब तो ठीक है अब हमें हस्तिनापुर में लग्न पत्रिका भेजने की तैयारी भी तो करनी है। वो लोग भी तो पूरी तैयारी के साथ आएंगे ना यहां। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ठीक है दाऊ भैया चलो। 
 
उधर, अर्जुन मंदिर के समक्ष रथ रोककर सुभद्रा का हाथ पकड़कर उसे रथ पर चढ़ाकर सभी सैनिकों की ओर देखकर कहता है- सावधान सावधान! मैं कुंतीपुत्र अर्जुन सबके सामने इस देवी को साक्षी मानकर सुभद्रा को अपनी पत्नी स्वीकार करता हूं और इसे अपने साथ इंद्रप्रस्थ ले जा रहा हूं। अगर किसी में बल अथवा साहस है तो मेरा सामना करें। ऐसा कहकर अर्जुन कहता है- जय मां भवानी। 
 
फिर अर्जुन रथ चलाने लगता है तो सुभद्रा कहती है कि भैया की आज्ञा है कि आप रथ में पीछे बैठे हैं और मैं आपकी सारथी बनूं। तब अर्जुन पूछता है- क्यों? इस पर सुभद्रा कहती है कि ये मैं नहीं जानती, ये बातों का समय नहीं है। ऐसा कहकर सुभद्रा खुद रथ की सारथी बनकर रथ चलाने लगती है। यह देखकर दासियां कहती हैं- अरे राजकुमारी! ये क्या, तब तक रथ आगे बढ़ चुका होता है।
 
उधर, बलरामजी विवाह की तैयारियां कर रहे होते हैं तभी एक दासी सैनिकों के साथ चीखती हुई आती है- महाराज महाराज। अनर्थ हो गया महाराज, हमारे साथ धोखा हुआ है। यह सुनकर बलराम पूछते हैं- क्या हुआ? तब वह दासी कहती है- अर्जुन ने राजकुमारी का हरण कर लिया है। यह सुनकर बलरामजी चौंककर कहते हैं- क्या? अर्जुन का ये दुस्साहस, उसकी ये हिम्मत की वह सुभद्रा का हरण कर ले। असंभव। तब दासी कहती है- असंभव नहीं महाराज ऐसा हो चुका है। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं कि अगर ऐसा हो चुका है तो अर्जुन को उसका दंड भी भुगतना होगा। 
 
ऐसा कहकर बलरामजी अपनी गदा उठाकर निकल पड़ते हैं। उनके पीछे कुछ सैनिक रहते हैं। महल के रास्ते में वे एक सैनिक से कहते हैं कि सात्यकि और अक्रूर से कहना की सेना तैयार करें। वह सैनिक कहता है जो आज्ञा। फिर वे सीधे श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के कक्ष में पहुंचकर कहते हैं- कन्हैया।... रुक्मिणी के साथ बैठे श्रीकृष्ण उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं- क्या बात है दाऊ भैया? तब बलरामजी कहते हैं- क्या तुमने सुना नहीं कन्हैया कि तुम्हारे ही मित्र ने हमारी बहन का हरण कर लिया है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हूं। यह सुनकर बलराम कहते हैं- और तुम चुप हो। हमें युद्ध का न्योता दिया गया है और तुम चुप हो। हमारी मर्यादा का हनन हुआ है और तुम चुप हो कन्हैया।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं चुप नहीं हूं दाऊ भैया। परिस्थिति पर विचार कर रहा हूं। यह सुनकर बलराम कहते हैं- विचार? कन्हैया तुम विचार ही करते रहो। मैं अकेला ही यादव सेना के साथ जाता हूं और उस अर्जुन को बंदी बनाकर लाता हूं। फिर बलराम पलटकर सैनिकों से कहते हैं सुनो! जाकर सात्यकि से कहो कि यादव सेना को तत्काल ही कूच करने की आज्ञा दें। उस पाडंव कुमार को बहुत गर्व हो गया है। आज में अपनी गदा के एक ही प्रहार से उसके गर्व को चकनाचूर कर दूंगा। कन्हैया तुम मेरे साथ चलोगे या नहीं?
 
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप आज्ञा देंगे तो अवश्य चलूंगा दाऊ भैया। इस पर बलराम कहते हैं- आज्ञा? एक अपराधी को दंड देना है और उसके लिए तुम्हें किसी की आज्ञा की आवश्यकता है, कैसे राजा हो तुम कन्हैया? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु जिसे दंड देने जा रहे हैं वह अपराधी है भी की नहीं राजा को यह भी तो सोचना चाहिए ना?
 
तब बलराम कहते हैं कि कन्हैया अर्जुन के अपराधी होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि उसने एक भोलीभाली राजकुमारी का अपहरण किया है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- उसने अपरहण किया है? इस पर बलराम कहते हैं और किसने? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि दाऊ भैया मुझे तो कुछ और ही सूचना मिली है। इस पर बलराम कहते हैं- क्या? 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण उस सैनिक के पास जाते हैं जिसने हरण का दृश्य देखा था और उससे पूछते हैं- तुम्हारे सामने अर्जुन सुभद्रा को ले गया? इस पर वह सैनिक कहता है- जी। फिर श्रीकृष्ण पूछते हैं- उस समय रथ कौन चला रहा था? तब वह सैनिक कहता है- जी राजकुमारी सुभद्रा। 
 
यह सुनकर बलरामजी चौंककर कहते हैं- सुभद्रा? इसके बाद श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या कह रहे हो राजकुमारी सुभद्रा रथ चला रही थीं और अर्जुन कहां था? तब वह सैनिक कहता है- राजकुमारी सुभद्रा ने उन्हें कहा था कि आप रथ में पीछे बैठिये। यह सुनकर बलरामजी चौंककर कहते हैं- पीछे बैठिये! तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसका मतलब है कि अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण नहीं किया बल्कि राजकुमारी सुभद्रा ने अर्जुन का अपहरण किया है। एक बैचारे परदेशी को भगाकर ले गईं। सो असली अपराधी सुभद्रा है। चलो भैया सेना लेकर चलें उस अपराधी को पकड़ने के लिए और उसके हाथ पैर बांधने के लिए मोटी-मोटी जंजीरें साथ ले लेना।
 
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- क्या कह रहे हो तुम कन्हैया। हम अब अपनी बहन सुभद्रा को बंदी बनाएंगे? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां भैया जो अपराध करेगा उसे दंड तो देना ही चाहिए। यह सुनकर बलराम कहते हैं- अर्थात? अर्थात ये कि सुभद्रा अर्जुन से प्रेम करती हैं और जब उसके भाइयों ने उसके सच्चे प्रेम को ठुकरा दिया और किसी सम्राट पुत्र से उसका विवाह निश्चत कर दिया तो वे बिचारी मजबूर हो गई और अपने सच्चे प्रेमी के साथ गंधर्व विवाह करके अपने ससुराल चली गईं। अब यदि ये उसका अपराध है और यदि इस द्वारिका में अपने जीवन साथी को चुनने का अधिकार नहीं दिया जा सकता तो ठीक है। चलिये उसे बंदी बनाकर उसे दंड दें। 
 
यह सुनकर बलराम का थोड़ा क्रोध शांत होता है और वे कहते हैं- कन्हैया आखिर इस सब का क्या मतलब है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यही कि अर्जुन ने सुभद्रा का हरण नहीं किया है भैया बल्कि सुभद्रा स्वयं अर्जुन का हरण करके ले गई हैं। वास्तव में वो एक-दूसरे से असीम प्रेम करते हैं। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- वो तो ठीक है कन्हैया परंतु मेरे वचन का क्या होगा जो मैं हस्तिनापुर में दुर्योधन को दे चुका हूं? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- इसीलिए मैंने कहा था कि सुभद्रा से पूछे बिना हमें वचन नहीं देना चाहिए था। आखिर सुभद्रा की सहमति तो लेनी थी। और, फिर आपने तो उसे सदा सुखी रहने का आशीर्वाद भी दिया था। यदि आप सुभद्रा का हाथ दुर्योधन के हाथों सौंप देंगे तो क्या वह सुखी रह पाएगी?...नहीं कदापी नहीं..आपका आशीर्वाद असफल हो जाता। परंतु आप दोषी नहीं है भैया। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- तो दोष किसका है, अपराधी कौन है कन्हैया? 
 
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- कोई भी नहीं। हां भैया, आखिर अर्जुन भी तो कुंती बुआ का पुत्र है। राजसूय यज्ञ करने वाले महाराज युधिष्ठिर का भाई है। ‍फिर श्रीकृष्ण रुक्मिणी की ओर देखकर कहते हैं- हे ना रुक्मिणी? यह सुनकर रुक्मिणी भी कहती हैं- हां..हां..और फिर रुक्मिणी पास आने लगती है तब इस दौरान श्रीकृष्ण कहते हैं- इंद्रप्रस्थ राज्य हस्तिनापुर राज्य से श्रेष्ठ है। इस पर रुक्मिणी कहती हैं इसीलिए आपको मन मैला करने की कोई आवश्यकता नहीं है दाऊ भैया। यह सुनकर दाऊ भैया प्रसन्न हो जाते हैं तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां रुक्मिणी ठीक कह रही है दाऊ भैया।
 
यह सुनकर बलराम मुस्कुराते हुए कहते हैं तो इस नाटक के सूत्रधार तुम्हीं हो कन्हैया। मैं जानता हूं कि बिना तुम्हारी सहमति के अर्जुन ये साहस कर ही नहीं सकता। यह सुनकर श्रीकृष्ण मुक्कुराते हुए कहते हैं- मैं तो केवल इतना ही जानता हूं दाऊ भैया कि मेरी लाड़ली बहन सुखी रहे बस। इस पर बलराम कहते हैं- सच कह रहे हो कन्हैया? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया मैं कभी आपसे असत्य नहीं बोला। जब आप हस्तिनापुर में थे तब उस समय अर्जुन और सुभद्रा के बीच प्रेम का अंकुर फूटा था। आज उसकी परिणीति इस प्रकार हुई है। अब आप भी अर्जुन को क्षमा कर दीजिये ना दाऊ भैया।
 
यह सुनकर बलराम कहते हैं- मैं तुम्हारी लीला समझ गया हूं कन्हैया, अब बोलो आगे क्या करना है? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसकी आज्ञा तो आप ही देंगे दाऊ भैया। इस पर बलराम कहते हैं- ये अच्छा है सारी करनी तुम्हारी और कहलवाते हो मुझसे। अब बताओ क्या करें? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरी तो यही इच्छा है कि यथा शीघ्र अर्जुन और सुभद्रा को द्वारिका लाएं और उनका विवाह धूमधाम से करें। इस पर बलरामजी कहते हैं- कन्हैया पांडवों को ये सूचित करो की अर्जुन और सुभद्रा का पाणिग्रहण यहां द्वारिका में ही सम्पन्न होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- जो आज्ञा दाऊ भैया। 
 
फिर अर्जुन और सुभद्रा का विवाह समारोह बताया जाता है जिसमें सभी पांडव और यादवगण उपस्थित रहते हैं। फिर रामानंद सागरजी श्रीकृष्ण के विराट रूप के दर्शन के बारे में बताते हैं कि उन्होंने कब-कब इस रूप का प्रदर्शन किया था। वे बताते हैं कि श्रीमद्भागत पुराण और हरिवंश पुराण में इसका वर्णन मिलता है। जय श्रीकृष्ण।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा