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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

10 बातें जिनके कारण भारत है महान...

10 बातें जिनके कारण भारत है महान... - India is great
भारत एक प्राचीन भूमि है। इसकी महानता के बारे में जितना कहा जाए कम है। यहां का उचित वातावरण मनुष्य को जीने का बेहतर मौका ही नहीं देता, बल्कि वह उसे एक सही सोच से संपन्न भी करता है।


भारत के नदी, पहाड़, जंगल और यहां की मूल विचारधारा को आज भारतीय लोग धर्म, जाति, समाज, प्रांत और राष्ट्र में बंटकर नष्ट करने में लगे हैं। इसका परिणाम भी उन्हें जल्द ही भुगतना होगा। खैर... आओ हम जानते हैं ऐसी 10 बातें जो भारत को अन्य राष्ट्रों से अलग और महान बनाती है।
 
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विश्व का पहला धर्मग्रंथ ऋग्वेद : भारत के लोग प्राचीनकाल से ही कभी कबीलों नहीं रहे। उनमें एक सामुदायिक भावना का विकास बहुत पहले ही हो गया था और उन्होंने सभ्य होने के तरीके अन्य दुनिया की अपेक्षा पहले ही ढूंढ लिए थे। 
सिंधु, सरस्वती और ब्रह्मपुत्र जैसी विशालकाय नदियों के होने के कारण भारत प्रा‍चीन सभ्यताओं और मानवों के रहने का मूल स्थान माना गया है। विश्व का प्रथम धार्मिक ग्रंथ ऋग्वेद यहीं पर रचा गया। ऋग्वेद से ही दुनिया के सभी धर्म ने सूत्र लिए और एक नए धर्म का सूत्रपात किया।
 
ऋग्वेद में धर्म, न्याय, समाज, कानून, मानव जीवन, खगोल, भूगोल और विज्ञान संबंधी सैंकड़ों सूत्र हैं। चार ऋषियों अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य ने मिलकर ऋग्वेद के ज्ञान को वाचिक परंपरा में ढाला और यह हजारों साल से पीढ़ी दर पीढ़ी कंठस्थ किया जाता रहा, जिसके कारण यह अभी तक सुरक्षित बना रहा। ऋग्वेद की लिखित पांडुलिपि 1800 ईसा पूर्व की है, जो यूनेस्कों की 158 पांडुलिपियों की सूची में सम्मलित है।
 
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विश्व की प्रथम भाषा संस्कृत : एक ओर जहां भारत में दुनिया की प्रथम भाषा संस्कृत का जन्म हुआ तो दूसरी ओर दुनिया की प्रथम लिपि ब्राह्मी लिपि का जन्म हुआ। संस्कृत सोच समझकर अविष्कृत की गई भाषा है। इसीलिए इसे देव भाषा कहा जाता है। संस्कृत' का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पूर्णतया वैज्ञानिक तथा सक्षम भाषा है।
पाणिणी ने इसका व्यवस्थित व्याकरण लिखा जिसे अष्टाध्यायी कहा जाता है। इस भाषा में ही ऋग्वेद और फिर रामायण को भी लिखा गया था। संस्कृत भाषा के व्याकरण में विश्वभर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है। उसके व्याकरण को देखकर ही अन्य भाषाओं के व्याकरण विकसित हुए हैं।
 
 
1100 ईसवीं तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के रूप सें जोड़ने की प्रमुख कड़ी थी। अरबों, तुर्कों और अंग्रेजों ने भारतीयों को खुद के धर्म से अलग करने के लिए सबसे पहले ही इसी भाषा को खत्म किया और भारत पर अरबी, फारसी और रोमन लिपि और भाषा को लादा गया।
 
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विश्व का प्रथम विश्व विद्यालय : तक्षशिला को विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय माना जाता है। यहां पर आचार्य चाणक्य ने शिक्षा प्राप्त की थी। तक्षशिला शहर प्राचीन भारत में गांधार जनपद की राजधानी और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था।
गांधार की चर्चा ऋग्वेद से ही मिलती है, किंतु तक्षशिला की जानकारी सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण में भी मिलती है। तेलपत्त और सुसीमजातक में तक्षशिला के महाविद्यालय की भी अनेक बार चर्चा हुई है। यहां अध्ययन करने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे। भारत के ज्ञात इतिहास का यह सर्वप्राचीन विश्वविद्यालय था। 
 
यहां, बुद्ध काल में कोसल- 'नरेश प्रसेनजित्', कुशीनगर का 'बंधुलमल्ल', वैशाली का 'महाली', मगध नरेश बिंबिसार का प्रसिद्ध राजवैद्य 'जीवक', एक अन्य चिकित्सक 'कौमारभृत्य' तथा परवर्ती काल में 'चाणक्य' तथा 'वसुबंधु' इसी जगत प्रसिद्ध महाविद्यालय के छात्र रहे थे। पाणिनि ने अपनी पुस्तकों में तक्षशिला का उल्लेख किया है। 400 ई . पूर्व में यहाँ के एक विद्वान कात्यायन ने वार्तिक की रचना कर डाली थी जो एक प्रकार से ‘डिक्शनरी’ या शब्दकोश था, जो संस्कृत में प्रयुक्त होने वाले शब्दों की व्याख्या करता था। 
 
तक्षशिला पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। ईसा पूर्व चार सौ साल पहले ह्वेनसांग ने इसे ता-चा-शि-ले कहकर पुकारा था, ऐसा पाकिस्तान म्यूजियम के ब्रोशर में लिखा है। तक्षशिला का इतिहास ईसा से छह सौ वर्ष पहले शुरू होता है। हालांकि वाल्मीकि रामायण अनुसार इस नगर को भरत के पुत्र तक्ष ने बसाया था।
 
1863 ई. में जनरल कनिंघम ने तक्षशिला को यहां के खंडहरों की जांच करके खोज निकाला। इसके बाद 1912 से 1929 तक, सर जोन मार्शल ने इस स्थान पर खुदाई की और प्रचुर तथा मूल्यवान सामग्री को खोजकर इस नगरी की वैभवता को प्रकट किया। माना जाता है कि 6टी सदी के अंत में आंक्रताओं ने इस विश्व विद्यालय और नगर का विध्वंस किया गया होगा।
 
तक्षशिला के बाद नालंदा विश्व विद्यालय की चर्चा होती है। बिहार की राजधानी पटना से करीब 120 किलोमीटर दक्षिण-उत्तर प्राचीन नालंदा विश्व विद्यालय के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इस विश्व विद्यालय की स्थापना गुप्त काल के दौरान 5वीं सदी में हुई थी, लेकिन 1193 में एक इस्लामिक आक्रांता ने इसे नेस्तनाबूत कर दिया। 
 
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शून्य का अविष्कार : जो देश शून्य का अविष्कार कर सकता है वहीं अंकों का भी अविष्कार कर सकता है। भारत के अंक ही जब यूनान और रोम में प्रचलित हुए तो उन्होंने एक नया रूप धारण किया। आज दो को टू, तीन को थ्री, चार को फोर, पांच को फाइव, छह को सिक्स, सात को सेवन, अष्ट को एट और नौ को नाइन कहा जाता है। इसी तरह अंकों में भी कोई खास बदलाव नहीं हुआ है।
 
पिंगलाचार्य (ईसा पूर्व 200) को शून्य का आविष्कारक मानते हैं। पिंगलाचार्य के छंदों के नियमों को यदि गणितीय दृष्टि से देखें तो एक तरह से वे द्विअंकीय (बाइनरी) गणित का कार्य करते हैं और दूसरी दृष्टि से उनमें दो अंकों के घन समीकरण तथा चतुर्घाती समीकरण के हल दिखते हैं। गणित की इतनी ऊंची समझ के पहले अवश्य ही किसी ने उसकी प्राथमिक अवधारणा को भी समझा होगा। अत: भारत में शून्य की खोज ईसा से 200 वर्ष से भी पुरानी हो सकती है। 
 
गणित के एक बहुमूल्य ग्रंथ बख्शाली पाण्डुलिपि के कुछ (70) पन्ने सन् 1881 में खैबर क्षेत्र में बख्शाली गांव के निकट बहुत ही जीर्ण अवस्था में मिले थे। ये भोजपत्र पर लिखे गए हैं। इनकी भाषा के आधार पर अधिकांश विद्वान इन्हें 200 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी का मानते हैं। यह ग्रंथ इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह शुल्व सूत्री (वैदिक) गणित के ईसा पूर्व 800 से लेकर ईसा पूर्व 500 के काल के बाद के गणितीय रूप को दर्शाता है। इस पाण्डुलिपि में शून्य का जिक्र है।
 
भारत में उपलब्ध गणितीय ग्रंथों में 300 ईस्वी पूर्व का भगवती सूत्र है जिसमें संयोजन पर कार्य है तथा 200 ईस्वी पूर्व का स्थनंग सूत्र है जिसमें अंक सिद्धांत, रेखागणित, भिन्न, सरल समीकरण, घन समीकरण, चतुर्घाती समीकरण तथा मचय (पर्मुटेशंस) आदि पर कार्य हैं। सन् 200 ईस्वी तक समुच्चय सिद्धांत के उपयोग का उल्लेख मिलता है और अनंत संख्या पर भी बहुत कार्य मिलता है।
 
गुप्तकाल की मुख्‍य खोज शून्य नहीं, मुख्य खोज है 'शून्ययुक्त दशमिक स्थानमान संख्या प्रणाली।' गुप्तकाल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। इस युग में ज्योतिष, वास्तु, स्थापत्य और गणित के कई नए प्रतिमान स्थापित किए गए। इस काल की भव्य इमारतों पर गणित के अन्य अंकों सहित शून्य को भी अंकित किया गया है।
 
नई संख्या पद्धति के प्राचीन लेखों से प्राप्त सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रमाण मिलते हैं 'लोक विभाग' (458 ई.) नामक जैन हस्तलिपि में। दूसरा प्रमाण मिलता है गुजरात में एक गुर्जर राजा के दानपात्र में। इसमें संवत 346 अंकित है जिसका अर्थ हुआ 594 ईसवी।
 
आर्यभट्ट (जन्म 476 ई.) को शून्य का आविष्कारक नहीं माना जा सकता। आर्यभट्ट ने एक नई अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया था। उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय में भी उसी पद्धति में कार्य किया है। गुप्तकाल में ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट, श्रीधराचार्य, महावीराचार्य आदि श्रेष्ठ गणितज्ञ हुए जिनके कारण भारतीय गणित का विश्‍वभर में नए सिरे से प्रचार-प्रसार हुआ। भारतीय गणितज्ञ श्री ब्रह्मगुप्त ने अपने ग्रंथ 'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' में शून्य की व्याख्या अ-अ=0 (शून्य) के रूप में की है। श्रीधराचार्य अपनी पुस्तक 'त्रिशविका' में लिखते हैं कि 'यदि किसी में शून्य से जोड़ दे तो उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता है और यदि किसी संख्या में शून्य से गुणा करते हैं तो गुणनफल भी शून्य ही मिलता है।’ 
 
7वीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल थी, शून्य से संबंधित विचार कम्बोडिया तक पहुंच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अरब जगत में फैल गए। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अंततः 12वीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुंचा।
 
शून्य में किसी भी संख्या से भाग देने पर शून्य ही फल मिलता है। 500 वर्षों से अधिक के बाद भास्कराचार्य (1114-1185) ने इस शून्य द्वारा भाग देने का सही उत्तर दिया कि- 'उसका फल अनंत है' और उन्होंने उसे समझाया भी था- 'अनंत संख्या में से कुछ घटाने पर या कुछ जोड़ने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।'
 
भारत का 'शून्य' अरब जगत में 'सिफर' (अर्थ- खाली) नाम से प्रचलित हुआ फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में 'जीरो' (zero) कहते हैं।
 
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योग और योगासन : योग का प्रचलन तो ऋग्वेद के काल से ही रहा था, लेकिन आचार्य पतंजलि (200 ईसा पूर्व) ने योग का व्यवस्थीकरण करके इसे एक नया आयाम दिया। योग सूत्र नाम से प्रचलित उनके ग्रंथ में जो 'अष्टांग योग' नाम से योग प्रचलित है उसमें दुनिया के सभी धर्म और आध्यात्म के नियम समाए हुए हैं। 
योग सूत्र से बाहर धर्म, जीवन, सेहत, अध्यात्म आदि की कल्पना नहीं की जा सकती। यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि में धर्म और कर्म का संपूर्ण मर्म छुपा हुआ है।
 
योग में भौतिकवाद और अध्यात्म दोनों का संतुलन है। दरअसल योग जीवन से जुड़ने की कला है जो मोक्ष तक ले जाती है। वर्तमान युग में योग का महत्व बढ़ गया है। पश्‍चिमी जगत ने योग का एक नया रूप प्रदान किया है।
 
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विश्व का प्रथम लोकतंत्र : लोकतंत्र की अवधारणा भारत की देन है। महाभारत में इसके सूत्र मिलते हैं। बौद्ध काल में वज्जी, लिच्छवी, वैशाली जैसे गंणतंत्र संघ लोकतांत्रिक व्यवस्था के उदाहरण हैं। वैशाली के पहले राजा विशाल को चुनाव द्वारा चुना गया था।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में लिखते हैं कि गणराज्य दो तरह के होते है, पहला अयुध्य गणराज्य यानि की ऐसा गणराज्य जिसमें केवल राजा ही फैसले लेते हैं, दूसरा है श्रेणी गणराज्य जिसमें हर कोई भाग ले सकता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। पाणिनी की अष्ठाध्यायी में जनपद शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है, जिनकी शासनव्यवस्था जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में रहती थी।
 
भारत में बौद्धकाल में 450 ई.पू. से 350 ई. तक चर्चित गणराज्य थे पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता रहा है। इसके बाद अटल, अराट, मालव और मिसोई नामक गणराज्यों का भी जिक्र किया जाता रहा है।
 
भारत में गणतंत्र का विचार वैदिक काल से चला आ रहा है। गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में 9 बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी।  ऋग्वेद में सभा और समिति का जिक्र मिलता है जिसमें राजा मंत्री और विद्वानों से सलाह मशवरा किया करके के बाद ही कोई फैसला लेता था।
 
यूनान के गणतंत्रों से पहले ही भारत में गणराज्यों का जाल बिछा हुआ था। यूनान ने भारत को देखकर ही गणराज्यों की स्थापना की थी। यूनान के राजदूत मेगास्थनीज ने भी अपनी पुस्तक में क्षुद्रक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया है।
 
सिकंदर के भारत अभियान को इतिहास में रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस तथा कॉरसीयस रुफस ने भारत के सोमबस्ती नामक स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वहां पर शासन की ‘गणतांत्रिक प्रणाली थी, न कि राजशाही।’ डायडोरस सिक्युलस ने अपने ग्रंथ में भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में अनेक गणतंत्रों की उपस्थिति का उल्लेख किया है।
 
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ये महत्वपूर्ण आविष्कार भारत की देन : विमान का आविष्कार भारत में हुआ था। विमान बनाने की तकनीक का उल्लेख ऋषि भारद्वाज के विमान शास्त्र में मिलती है। ऋषि भारद्वाज का यह शास्त्र चौथी शताब्दी ईसा पूर्व का मान जाता है। आधुनिक युग में इतिहास में दर्ज है कि रॉइट ब्रदर्स से पहले 17 दिसंबर सन 1903 को अमेरिका के कैरोलिना के समुद्र तट पर पहला हवाई जाहाज बना कर उड़ाया जो 120 फिट उड़ा और गिर गया। 
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लेकिन पर हाल ही में मिले दस्तावेज़ अनुसार 1903 से कई साल पहले सन 1895 में मुंबई के चौपाटी के समुद्रतट पर विश्वा का पहला विमान उड़ाया गया था जो लगभग 1500 फिट ऊपर उड़ा और उसके बाद नीचे आया। जिस भारतीय भारतीय वैज्ञानिक ने यह कमाल कर दिखाया था उनका नाम था 'शिवकर बापूजी तलपडे'। मुंबई के चिर बाज़ार इलाके में उनका जन्म हुआ था और वहीं उन्होंने पढ़ाई-लिखाई की थी। लेकिन उस काल में अंग्रेजों का राज था इसलिए उनके इस कारनामें पर अंग्रेजों ने कोई तवज्जों नहीं दी। तलपडेजी को विमान बनाने की ये प्रेरणा प्राचीन विमानशास्त्र से ही मिलती थी।
 
 
इसके अलावा भारत में बिजली का अविष्कार, परमाणु का सिद्धांत, बौद्धायन द्वारा पाई के मूल्य की गणना, गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत, शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी, पहिये का आविष्कार, बटन का आविष्कार, रिलेटिविटी का सिद्धांत, शतरंज की खोज, सांप सीढ़ी का खेल, फुटबॉल, कुश्ती, जहाज का आविष्कार, रेडियो का आविष्कार आदि हजारों ऐसे आविष्कार है जो विश्व को भारत की देन है।
 
अगले पन्ने पर आठवीं महान बात...
 

रहस्यमय किताबें : दुनिया की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है ऋग्वेद को। भारत में अध्यात्म और रहस्यमयी ज्ञान की खोज ऋग्वेद काल से ही हो रही है जिसके चलते यहां ऐसे संत, दार्शनिक और लेखक हुए हैं जिनके लिखे हुए का तोड़ दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगा। उन्होंने जो लिख दिया वह अमर हो गया। उनकी ही लिखी हुई बातों को ईसा पूर्व से 12वीं शताब्दी के बीच अरब, यूनान, रोम और चीन ले जाया गया, रूपांतरण किया गया और फिर उसे दुनिया के सामने नए सिरे से प्रस्तुत कर दिया गया।
वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, मनु स्मृति और पुराणों के अलावा उपनिषद की कथाएं, पंचतंत्र, बेताल या वेताल पच्चीसी, जातक कथाएं, सिंहासन बत्तीसी, हितोपदेश, कथासरित्सागर, तेनालीराम की कहानियां, शुकसप्तति, कामसूत्र, कामशास्त्र, रावण संहिता, भृगु संहिता, लाल किताब, संस्कृत सुभाषित, सामुद्रिक विज्ञान, पंच पक्षी विज्ञान, अंगूठा विज्ञान, हस्तरेखा ज्योतिष, प्रश्न कुंडली विज्ञान, नंदी नड़ी ज्योतिष विज्ञान, सम्मोहन विज्ञान, विमान शास्त्र, योग सूत्र, परमाणु शास्त्र, शुल्ब सूत्र, श्रौतसूत्र, अगस्त्य संहिता, सिद्धांतशिरोमणि, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, च्यवन संहिता, शरीर शास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र, औषधि शास्त्र, रस रत्नाकर, रसेन्द्र मंगल, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक, अष्टाध्यायी, त्रिपिटक, जिन सूत्र, समयसार, लीलावती, करण कुतूहल आदि लाखों ऐसी किताबें हैं जिनके दम पर आज विज्ञान, तकनीक आदि सभी क्षेत्रों में प्रगति हो रही है।
 
अगले पन्ने पर नौवीं महान बात...
 

भारत के सिद्ध पुरुष : दुनिया के अन्य किसी देश में नहीं सिर्फ भारत में ही पैदा क्यों होते हैं सिद्ध पुरुष। भारत में आकर ही लोगों को ज्ञान और मोक्ष का मार्ग नजर आता है। जब हम भारत की बात करते हैं तो इसका मतलब है अखंड भारत। लोगों को यहीं पर आकर शांति और ज्ञान का अनुभव होता है।
 
भारत में ध्यान, योग और अध्यात्म विद्या सीखने के लिए अन्य देशों की अपेक्षा उचित वातावरण है। यहां एक ओर जहां हिमालय है, तो वहीं दूसरे छोर पर समुद्र। एक ओर जहां रेगिस्तान है, तो दूसरे छोर पर घने जंगल और ऊंचे-ऊंचे पहाड़। 
 
इसके अलावा कई प्राचीन आश्रम, गुफाएं और पहाड़ हैं, जहां जाकर तपस्या की जा सकती है या ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अध्यात्म की इसी तलाश के लिए हजारों विदेशी यहां आकर भारत के वातावरण से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। 
 
भारत में बहुत सारी प्राचीन गुफाएं हैं, जैसे बाघ की गुफाएं, अजंता-एलोरा की गुफाएं, एलीफेंटा की गुफाएं और भीमबेटका की गुफाएं। अखंड भारत की बात करें तो अफगानिस्तान के बामियान की गुफाओं को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। भीमबेटका में 750 गुफाएं हैं जिनमें 500 गुफाओं में शैलचित्र बने हैं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को कुछ इतिहासकार 35,000 वर्ष पुरानी मानते हैं, तो कुछ 12,000 साल पुरानी।
 
मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित पुरा-पाषाणिक भीमबेटका की गुफाएं भोपाल से 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। ये विंध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुई हैं। भीमबेटका मध्यभारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियों के निचले हिस्से पर स्थित है। पूर्व पाषाणकाल से मध्य पाषाणकाल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा।
 
भारत में एक से बढ़कर एक दार्शनिक हुए हैं। जैसे कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनि, व्यास, पतंजलि, बृहस्पति, अष्टावक्र, शंकराचार्य आदि जैसे महान दार्शनिक और संत हुए हैं वहीं गोरखनाथ, मत्स्येंद्र नाथ, जालंधर, गोगादेव, झुलेलाल, तेजाजी महाराज, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, रामानंद, कबीर, पीपा, रामसापीर बाबा रामदेव, पाबूजी, मेहाजी मांगलिया, हड़बू, रैदास, मीराबाई, गुरुनानक, धन्ना, तुलसीदास, दादू दयाल, मलूकदास, पलटू, चरणदास, सहजोबाई, दयाबाई, एकनाथ, तुकाराम, समर्थ रामदास, भीखा, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, विट्ठलनाथ, संत सिंगाजी, हितहरिवंश, गुरु गोविंदसिंह, हरिदास, दूलनदास, महामति प्राणनाथ, शिरडी के साई बाबा, शैगांव के गजानन महाराज, रामकृष्‍ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, मेहर बाबा, दादा धूनी वाले, लाहड़ी महाशय, शीलनाथ बाबा, महर्षि अरविन्द, जे कृष्णमूर्ति, ओशो रजनीश, स्वामी प्रभुपाद, दयानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी, एनी बिसेंट, आनंद मूर्ति, दादा लेखराज, श्रीशिव दयाल सिंह, श्रीराम शर्मा आचार्य, देवहरा बाबा, नीम करौली बाबा आदि ऐसे हजारों साधु और संत हैं जिनके कारण दुनियाभार में भारत के प्रति लोगों में प्रेम है।
 
अगले पन्ने पर दसवीं महान बात....
 

विविधताओं वाला देश : भारत में एक और हिमालय की बर्फ है तो दूसरी ओर रेगिस्तान, एक और जहां समुद्र है तो दूसरी ओर भयानक जंगलों का श्रृंखलाएं। यहां दुनिया के सबसे ऊंचे-ऊंचे पहाड़ है तो कई मैदानी इलाके और छोटी बड़ी मिलाकर हजारों नदियां है। भारत का भुगोल इस तरह गढ़ा गया है कि यहां एक ही स्थान पर सबकुछ है।
भारत को मानो प्रकृति ने बहुत ही अच्‍छे तरीके से गढ़ा हो। एक तरफ हिमालय और तीन तरफ समुद्र, एक तरफ रेगिस्तान तो दूसरी ओर बिहड़ वन। हकीकत यह है कि मौसम और इतिहास का बहुत बड़ा आधार भूगोल होता है। भारतीय मौसम दुनिया के सभी देशों के मौसम से बेहतर है। यहां नियमित तरीके प्रमख रूप से चार ऋतुएं होती है।