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सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर संभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भांति चलेउ हनुमाना॥4॥-सुंदरकांड
समुद्र को लांघना : सबसे पहले बाली पुत्र अंगद को समुद्र लांघकर लंका जाने के लिए कहा गया लेकिन अंगद ने कहा कि मैं चला तो जाऊंगा लेकिन पुन: लौटने की मुझमें क्षमता नहीं है। मैं लौटने का वचन नहीं दे सकता। तब जामवंत के याद दिलाने पर हनुमानजी को अपनी शक्ति का भान हुआ तो वे दो छलांग में समुद्र को पार कर गए।
सुरसा से सामना : समुद्र पार करते समय रास्ते में उनका सामना सुरसा नाम की नागमाता से हुआ जिसने राक्षसी का रूप धारण कर रखा था। सुरसा ने हनुमानजी को रोका और उन्हें खा जाने को कहा। समझाने पर जब वह नहीं मानी, तब हनुमान ने कहा कि अच्छा ठीक है मुझे खा लो। जैसे ही सुरसा उन्हें निगलने के लिए मुंह फैलाने लगी हनुमानजी भी अपने शरीर को बढ़ाने लगे। जैसे-जैसे सुरसा अपना मुंह बढ़ाती जाती, वैसे-वैसे हनुमानजी भी शरीर बढ़ाते जाते। बाद में हनुमान ने अचानक ही अपना शरीर बहुत छोटा कर लिया और सुरसा के मुंह में प्रवेश करके तुरंत ही बाहर निकल आए। हनुमानजी की बुद्धिमानी से सुरसा ने प्रसन्न होकर उनको आशीर्वाद दिया तथा उनकी सफलता की कामना की।
राक्षसी माया का वध : समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर अपनी माया से उनको निगल जाती थी। हनुमानजी ने उसका छल जानकर उसका वध कर दिया।
सीता माता का शोक निवारण : लंका में घुसते ही उनका सामना लंकिनी और अन्य राक्षसों से हुआ जिनका वध करके वे आगे बढ़े। वे सीता माता की खोज करते हुए रावण के महल में भी घुस गए, जहां रावण सो रहा था। आगे वे खोज करते हुए अशोक वाटिका पहुंच गए। हनुमानजी के अशोक वाटिका में सीता माता से मुलाकात की और उन्हें राम की अंगूठी देकर उनके शोक का निवारण किया।
माता सीता का शोक निवारण होते ही उन्होंने कहा- 'हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्रीरघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें।' 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमानजी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए। तब सीताजी ने कहा- 'हे पुत्र, जाओ और राम को मेरी खबर दो। इससे पहले जाओ और मीठा फल खाओ।'
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अशोक वाटिका को उजाड़ना : सीता माता से आज्ञा पाकर हनुमानजी बाग में घुस गए और फल खाने लगे। उन्होंने अशोक वाटिका के बहुत से फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहां बहुत से राक्षस रखवाले थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने अपनी जान बचाकर रावण के समक्ष उपस्थित होकर उत्पाती वानर की खबर दी।
अक्षय कुमार का वध : फिर रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा। वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर हनुमानजी को मारने चला। उसे आते देखकर हनुमानजी ने एक वृक्ष हाथ में लेकर ललकारा और उन्होंने अक्षय कुमार सहित सभी को मारकर बड़े जोर से गर्जना की।
मेघनाद से युद्ध : पुत्र अक्षय का वध हो गया, यह सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने अपने बलवान पुत्र मेघनाद को भेजा। उससे कहा कि उस दुष्ट को मारना नहीं, उसे बांध लाना। उस बंदर को देखा जाए कि कहां का है। हनुमानजी ने देखा कि अबकी बार भयानक योद्धा आया है। मेघनाद तुरंत ही समझ गया कि यह कोई मामूली वानर नहीं है तो उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। तब ब्रह्मबाण से मूर्छित होकर हनुमानजी वृक्ष से नीचे गिर पड़े। जब मेघनाद देखा ने देखा कि हनुमानजी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बांधकर ले गया।
बंधक हनुमानजी ने जाकर रावण की सभा देखी और फिर उन्होंने खुद ही अपनी पूंछ से अपने लिए एक आसन बना लिया और उस पर बैठ गए। रावण क्रोधित होकर कहता है- ' तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? क्या तुझे मेरी शक्ति और महिमा के बारे में पता नहीं है?' तब हनुमानजी राम की महिमा का वर्णन करते हैं और उसे अपनी गलती मानकर राम की शरण में जाने की शिक्षा देते हैं।
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लंकादहन : राम की महिमा सुनकर रावण क्रोधित होकर कहता है कि जिस पूंछ के बल पर यह बैठा है, उसकी इस पूंछ में आग लगा दी जाए। जब बिना पूंछ का यह बंदर अपने प्रभु के पास जाएगा तो प्रभु भी यहां आने की हिम्मत नहीं करेगा। पूंछ को जलते हुए देखकर हनुमानजी तुरंत ही बहुत छोटे रूप में हो गए। बंधन से निकलकर वे सोने की अटारियों पर जा चढ़े। फिर उन्होंने अपना विशालकाय रूप धारण किया और अट्टहास करते हुए रावण के महल को जलाने लगे। उनको देखकर लंकावासी भयभीत हो गए। देखते ही देखते लंका जलने लगी और लंकावासी भयाक्रांत हो गए।
हनुमानजी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया। सारी लंका जलाने के बाद वे समुद्र में कूद पड़े।
राम को सीता की खबर देना : पूंछ बुझाकर फिर छोटा-सा रूप धारण कर हनुमानजी श्रीजानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए और उन्होंने उनकी चूड़ामणि निशानी ली और समुद्र लांघकर वे इस पार आए और उन्होंने वानरों को किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनाया।
हनुमानजी ने राम के समक्ष उपस्थित होकर कहा- 'हे नाथ! चलते समय उन्होंने (माता सीता ने) मुझे चूड़ामणि उतारकर दी।' श्रीरघुनाथजी ने उसे लेकर हनुमानजी को हृदय से लगा लिया। हनुमानजी ने फिर कहा- 'हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे।' और हनुमानजी ने श्रीजानकी की विरह गाथा कह सुनाई जिसे सुनकर राम की आंखों में आंसू आ गए।
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अहिरावण का वध : अहिरावण रावण का मित्र था। अहिरावण पाताल में रहता था। रावण ने कहने पर उसने भगवान राम के युद्ध शिविर में उतरकर राम और लक्ष्मण दोनों का अपहरण कर लिया था। दोनों को वह पाताल लोक लेकर गया और वहां उसने दोनों को बंधक बनाकर रख लिया। उनके अपहरण से वानर सेना भयभीत व शोकाकुल हो गई, लेकिन विभीषण ने यह भेद हनुमान के समक्ष प्रकट कर दिया कि कौन अपहरण करके ले जा सकता है।
तब हनुमानजी राम-लक्षमण को अपहरण से छुड़वाने के लिए पाताल पुरी पहुंच गए। वहां उन्होंने देखा कि उनके ही रूप जैसा कोई बालक पहरा दे रहा है। उसका नाम मकरध्वज था। मकरध्वज हनुमानजी का ही पुत्र था। मकरध्वज के संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए आगे क्लिक करें... मकरध्वज
हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का राजा नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। वे राम-लक्षमण दोनों को अपने कंधे पर बिठाकर पुन: युद्ध शिविर में लौट गए।
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सत्यभामा, गरूड़ और सुदर्शन का घमंड चूर करना :
भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु ने ही राम के रूप में अवतार लिया और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में भी। श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं- रुक्मणि, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इसमें से सत्यभामा को अपनी सुंदरता और महारानी होने का घमंड हो चला था तो दूसरी ओर सुदर्शन चक्र खुद को सबसे शक्तिशाली समझता था और विष्णु वाहन गरूड़ को भी अपने सबसे तेज उड़ान भरने का घमंड था।
उपरोक्त कथा से जुड़े हनुमानजी के पराक्रम को जानने के लिए आगे क्लिक करें... हनुमानजी की मदद से कृष्ण ने तोड़ा इनका अभिमान...
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श्रीकृष्ण यह जानते थे कि भीम को भी अपनी शक्ति पर बड़ा घमंड था अत: उन्होंने उचित समय का इंतजार किया और अपनी लीला से एक घटना की रचना की। एक बार वनवास काल में द्रौपदी को एक सहस्रदल कमल दिखाई दिया। उसने उसे ले लिया और भीम से उसी प्रकार का एक और कमल लाने को कहा। भीम कमल लेने चल पड़े। आगे जाने पर भीम को गंधमादन पर्वत की चोटी पर एक विशाल केले का वन मिला जिसमें वे घुस गए।
इसी वन में हनुमानजी रहते थे। उन्हें भीम के आने का पता लगा तो उन्होंने सोचा कि अब आगे स्वर्ग के मार्ग में जाना भीम के लिए हानिकारक होगा। वे भीम के रास्ते में लेट गए। भीमसेन ने वहां पहुंचकर हनुमान से मार्ग देने के लिए कहा तो वे बोले- ‘यहां से आगे यह पर्वत मनुष्यों के लिए अगम्य है अत: यहीं से लौट जाओ।’
भीम ने कहा- ‘मैं मरूं या बचूं, तुम्हें क्या? तुम जरा उठकर मुझे रास्ता दे दो।’ हनुमान बोले- 'रोग से पीड़ित होने के कारण उठ नहीं सकता, तुम मुझे लांघकर चले जाओ।' भीम बोले- 'परमात्मा सभी प्राणियों की देह में है, किसी को लांघकर उसका अपमान नहीं करना चाहिए।' तब हनुमान बोले- 'तो तुम मेरी पूंछ पकड़कर हटा दो और निकल जाओ।'
भीम ने हनुमान की पूंछ पकड़कर जोरों से खींची, किंतु वह नहीं हिली। भीम का मुंह लज्जा से झुक गया। उन्होंने क्षमा मांगी और परिचय पूछा। तब हनुमान ने अपना परिचय दिया और वरदान दिया कि महाभारत युद्ध के समय मैं तुम लोगों की सहायता करूंगा। वस्तुत: विनम्रता ही शक्ति को पूजनीय बनाती है इसलिए अपनी शक्ति पर अहंकार न कर उसका सत्कार्यों में उपयोग कर समाज में आदरणीय बनें।
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दूसरा प्रसंग अर्जुन से जुड़ा है। आनंद रामायण में वर्णन है कि अर्जुन के रथ पर हनुमान के विराजित होने के पीछे भी कारण है। एक बार किसी रामेश्वरम तीर्थ में अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है। इस पहली मुलाकात में हनुमानजी से अर्जुन ने कहा- 'अरे राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे?'
हनुमानजी- 'हां', तभी अर्जुन ने कहा- 'आपके स्वामी श्रीराम तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे तो फिर उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतु बनवाने की क्या आवश्यकता थी? यदि मैं वहां उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का सेतु बना देता जिस पर चढ़कर आपका पूरा वानर दल समुद्र पार कर लेता।'
इस पर हनुमानजी ने कहा- 'असंभव, बाणों का सेतु वहां पर कोई काम नहीं कर पाता। हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो बाणों का सेतु छिन्न-भिन्न हो जाता।'
अर्जुन ने कहा- 'नहीं, देखो ये सामने सरोवर है। मैं उस पर बाणों का एक सेतु बनाता हूं। आप इस पर चढ़कर सरोवर को आसानी से पार कर लेंगे।'
हनुमानजी ने कहा- 'असंभव।'
तब अर्जुन ने कहा- 'यदि आपके चलने से सेतु टूट जाएगा तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा और यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा।'
हनुमानजी ने कहा- 'मुझे स्वीकार है। मेरे दो चरण ही इसने झेल लिए तो मैं हार स्वीकार कर लूंगा।'
तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से सेतु तैयार कर दिया। जब तक सेतु बनकर तैयार नहीं हुआ, तब तक तो हनुमान अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन जैसे ही सेतु तैयार हुआ हनुमान ने विराट रूप धारण कर लिया।
हनुमान राम का स्मरण करते हुए उस बाणों के सेतु पर चढ़ गए। पहला पग रखते ही सेतु सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया और तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया।
तभी श्रीहनुमानजी सेतु से नीचे उतर आए और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो। अग्नि प्रज्वलित हुई और जैसे ही हनुमान अग्नि में कूदने चले, वैसे भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए और बोले 'ठहरो!' तभी अर्जुन और हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया।
भगवान ने सारा प्रसंग जानने के बाद कहा- 'हे हनुमान, आपका तीसरा पग सेतु पर पड़ा, उस समय मैं कछुआ बनकर सेतु के नीचे लेटा हुआ था। आपकी शक्ति से आपके पैर रखते ही मेरे कछुआ रूप से रक्त निकल गया। यह सेतु टूट तो पहले ही पग में जाता यदि में कछुआ रूप में नहीं होता तो।'
यह सुनकर हनुमान को काफी कष्ट हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी। 'मैं तो बड़ा अपराधी निकला, जो आपकी पीठ पर मैंने पैर रख दिया। मेरा ये अपराध कैसे दूर होगा भगवन्?' तब कृष्ण ने कहा, ये सब मेरी इच्छा से हुआ है। आप मन खिन्न मत करो और मेरी इच्छा है कि तुम अर्जुन के रथ की ध्वजा पर स्थान ग्रहण करो।
इसलिए द्वापर में श्रीहनुमान महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के ऊपर ध्वजा लिए बैठे रहते हैं।
अंत में एक रोचक प्रसंग, जो आपने कभी नहीं सुना होगा...
कितने राम : एक दिन राम सिंहासन पर विराजमान थे तभी उनकी अंगूठी गिर गई। गिरते ही वह भूमि के एक छेद में चली गई। हनुमान ने यह देखा तो उन्होंने लघु रूप धरा और उस छेद में से अंगूठी निकालने के लिए घुस गए। हनुमान तो ऐसे हैं कि वे किसी भी छिद्र में घुस सकते हैं, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो।
छेद में चलते गए, लेकिन उसका कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा था तभी अचानक वे पाताल लोक में गिर पड़े। पाताल लोक की कई स्त्रियां कोलाहल करने लगीं- 'अरे, देखो-देखो, ऊपर से एक छोटा-सा बंदर गिरा है।' उन्होंने हनुमान को पकड़ा और एक थाली में सजा दिया।
पाताल लोक में रहने वाले भूतों के राजा को जीव-जंतु खाना पसंद था इसलिए छोटे-से हनुमानजी को बंदर समझकर उनके भोजन की थाली में सजा दिया। थाली पर बैठे हनुमान पसोपेश में थे कि अब क्या करें।
उधर, रामजी हनुमानजी के छिद्र से बाहर निकलने का इंतजार कर रहे थे। तभी महर्षि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा उनसे मिलने आए। उन्होंने राम से कहा- 'हम आपसे एकांत में वार्ता करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारी बात सुने या उसमें बाधा डाले। क्या आपको यह स्वीकार है?'
प्रभु श्रीराम ने कहा- 'स्वीकार है।'
इस पर ब्रह्माजी बोले, 'तो फिर एक नियम बनाएं। अगर हमारी वार्ता के समय कोई यहां आएगा तो उसका शिरोच्छेद कर दिया जाएगा।'
प्रभु श्रीराम ने कहा- 'जैसी आपकी इच्छा।'
अब सवाल यह था कि सबसे विश्वसनीय द्वारपाल कौन होगा, जो किसी को भीतर न आने दे? हनुमानजी तो अंगूठी लेने गए थे। ऐसे में राम ने लक्ष्मण को बुलाया और कहा कि तुम जाओ और किसी को भी भीतर मत आने देना। लक्ष्मणजी को भली-भांति समझाकर राम ने द्वारपाल बना दिया।
लक्ष्मण द्वार पर खड़े थे, तभी महर्षि विश्वामित्र वहां आए और कहने लगे- 'मुझे राम से शीघ्र मिलना अत्यावश्यक है। बताओ, वे कहां हैं?'
लक्ष्मण ने कहा- 'आदरणीय ऋषिवर अभी अंदर न जाएं। वे कुछ और लोगों के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण वार्ता कर रहे हैं।'
विश्वामित्र ने कहा- 'ऐसी कौन-सी बात है, जो राम मुझसे छुपाएं?'
विश्वामित्र ने पुन: कहा- 'मुझे अभी, बिलकुल अभी अंदर जाना है।'
लक्ष्मण ने कहा- 'आपको अंदर जाने देने से पहले मुझे उनकी अनुमति लेनी होगी।'
विश्वामित्र ने कहा- 'तो जाओ और पूछो।'
तब लक्ष्मण ने कहा- 'मैं तब तक अंदर नहीं जा सकता, जब तक कि राम बाहर नहीं आते। आपको प्रतीक्षा करनी होगी।'
विश्वामित्र क्रोधित हो गए और कहने लगे- 'अगर तुम अंदर जाकर मेरी उपस्थिति की सूचना नहीं देते हो, तो मैं अपने अभिशाप से अभी पूरी अयोध्या को भस्मीभूत कर दूंगा।'
लक्ष्मण के समक्ष धर्मसंकट उपस्थित हो गया। वे सोचने लगे कि अगर अभी अंदर जाता हूं तो मैं मरूंगा और अगर नहीं जाता हूं तो यह ऋषि अपने कोप में पूरे राज्य को भस्म कर डालेंगे। फिर लक्ष्मण ने सोचा कि ऐसे में बेहतर है कि मैं ही अकेला मरूं इसलिए वे अंदर चले गए।
राम ने पूछा- 'क्या बात है?'
लक्ष्मण ने कहा- 'महर्षि विश्वामित्र आए हैं।'
राम ने कहा- 'अंदर भेज दो।'
विश्वामित्र अंदर गए। एकांत वार्ता तब तक समाप्त हो चुकी थी। ब्रह्मा और वशिष्ठ राम से मिलकर यह कहने आए थे कि 'मृत्युलोक में आपका कार्य संपन्न हो चुका है। अब आप अपने राम अवतार रूप को त्यागकर यह शरीर छोड़ दें और पुनः ईश्वर रूप धारण करें।' ब्रह्मा और वशिष्ठ ऋषि को यही कुल मिलाकर उन्हें कहना था।
लेकिन लक्ष्मण ने राम से कहा- 'भ्राताश्री, आपको मेरा शिरोच्छेद कर देना चाहिए।'
राम ने कहा- 'क्यों? अब हमें कोई और बात नहीं करनी थी, तो मैं तुम्हारा शिरोच्छेद क्यों करूं?'
लक्ष्मण ने कहा- 'नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते। आप मुझे सिर्फ इसलिए छोड़ नहीं सकते कि मैं आपका भाई हूं। यह राम के नाम पर एक कलंक होगा। मुझे दंड मिलना चाहिए, क्योंकि मैंने आपके एकांत वार्तालाप में विघ्न डाला है। यदि आप दंड नहीं देंगे तो मैं प्राण त्याग दूंगा।'
लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे जिन पर विष्णु शयन करते हैं। उनका भी समय पूरा हो चुका था। वे सीधे सरयू नदी तक गए और उसके प्रवाह में विलुप्त हो गए। जब लक्ष्मण ने अपना शरीर त्याग दिया तो राम ने अपने सभी अनुयायियों, विभीषण, सुग्रीव और दूसरों को बुलाया और अपने जुड़वां पुत्रों लव और कुश के राज्याभिषेक की व्यवस्था की। इसके बाद राम भी सरयू नदी में प्रवेश कर गए।
उधर, इस दौरान हनुमान पाताललोक में थे। उन्हें अंततः भूतों के राजा के पास ले जाया गया। उस समय वे लगातार राम का नाम दुहरा रहे थे, 'राम..., राम..., राम...।'
भूतों के राजा ने पूछा- 'तुम कौन हो?'
हनुमानजी ने कहा- 'मैं हनुमान।'
भूतराज ने पूछा, 'हनुमान? यहां क्यों आए हो?'
हनुमानजी ने कहा- 'श्रीराम की अंगूठी एक छिद्र में गिर गई थी। मैं उसे निकालने आया हूं।'
भूतों के राजा हंसने लगे और फिर उन्होंने इधर-उधर देखा और हनुमानजी को अंगूठियों से भरी एक थाली दिखाई। थाली दिखाते हुए कहा- 'तुम अपने राम की अंगूठी उठा लो। मैं नहीं जानता कि कौन-सी अंगूठी तुम्हारे राम की है।'
हनुमान ने सभी अंगूठियों को गौर से देखा और सिर को डुलाते हुए बोले- 'मैं भी नहीं जानता कि इनमें से कौन-सी राम की अंगूठी है, सारी अंगूठियां एक जैसी दिखाई दे रही हैं।'
भूतों के राजा ने कहा कि इस थाली में जितनी भी अंगूठियां हैं सभी राम की ही हैं, लेकिन तुम्हारे राम की इनमें से कौन-सी है, यह तो तुम्हें ही जानना होगा। इस थाली में जितनी अंगूठियां हैं, उतने ही राम अब तक हो गए हैं।
और सुनो हनुमान, जब तुम धरती पर लौटोगे तो राम नहीं मिलेंगे। राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है। जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है। मैं उन्हें उठाकर रख लेता हूं। अब तुम जा सकते हो।'
हनुमान आश्चर्यचकित होकर वापस लौट गए।