शत शत नेत्रों से बरसाकर
नौ दिन तक अविरल अति जल।
भूखे जीवों के हित दिए अमित
तृण, अन्न, शाक शुचि फल।।
‘माता शताक्षी की तरह कोई दयालु हो ही नहीं सकता। अपने बच्चों का कष्ट देखकर वे नौ दिनों तक लगातार रोती ही रहीं।’
न शताक्षीसमा काचिद् दयालुर्भुवि देवता।
दृष्ट्वारुदत् प्रजा स्तप्ता या नवाहं महेश्वरी।। (शिवपुराण, उ. सं. ५०।५२)
करुणामयी मां आदिशक्ति मां जगदम्बा करुणासिन्धु हैं। इनकी करुणा की एक बूंद से ही संसार की समस्त करुणा बनीं हैं। ऋग्वेद के वाक्सूक्त में आदिशक्ति पराम्बा ने कहा है: मैं करुणामय हूं, क्योंकि मेरा आश्रय करुणा का समुद्र ब्रह्म है और जो इस करुणाजल से ओत-प्रोत ब्रह्म है, वह मैं ही हूं।’
वेद ने परमात्मा को माता के रूप में भी माना है। परमात्मा का यह मातृरूप मनुष्य के लिए अद्भुत सहारा बन गया क्योंकि संसार में सभी प्रकार के प्रेमों में माता का प्रेम ही नि:स्वार्थ होता है। माता कभी अपने बच्चों की पुकार को अनसुना नहीं करती। जब तक वह बच्चे का कष्ट नहीं मिटा लेती, तब तक उसे चैन नहीं मिलता।
ऋग्वेद के वाक्सूक्त में पराम्बा ने पुन: कहा है :‘समस्त प्राणी मेरी ही संतान हैं। उन पर मेरी इतनी ममता रहती है कि मैं उन्हें प्यार किए बिना रह ही नहीं पाती। अत: मायामय देह धारणकर इन्हें बाहर-भीतर छूकर प्यार करती रहती हूं। मैं जैसे भूतलवासियों का स्पर्श कर प्यार प्रकट करती रहती हूं, वैसे ही स्वर्गवासियों (देवताओं) को छूकर, गोद में भरकर प्यार करती रहती हूं।’
मां शताक्षी
दुर्गमासुर जैसे कुछ ऐसे विश्व के शत्रु होते हैं, जो वर पाकर अवध्य हो जाते हैं। ऐसे दुष्टों से अपने बच्चों को बचाने व दुष्टों का उद्धार करने के लिए करुणामयी मां स्वयं संग्राम में उतर पड़ती हैं और जनता के दुर्गम पथ को सरल, सरस और आकर्षक बना देती हैं।
एक बार दुर्गम नामक असुर ने ब्रह्माजी के वरदान से चारों वेदों को अपने हाथों में कैद कर लिया और वेदों के जानने वालों के मस्तक पर स्थित होकर वहां से भी वैदिक ज्ञान लुप्त कर दिया। वेदों के अदृश्य हो जाने पर यज्ञ आदि बंद हो गए और देवताओं को यज्ञ का भाग मिलना बन्द हो गया। वैदिक क्रिया के रुक जाने और मंत्र-शक्ति के अभाव से ब्राह्मण और देवता दुराचारी हो गए।
परिणामस्वरूप पृथ्वी पर सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। कुंआ, बावड़ी, नदी-नाले, समुद्र-सरिताएं, व सभी वृक्ष और लताएं सूख गई। भीषण तपन और भूख-प्यास से लोग तड़प उठे। घोर अकाल से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। देवताओं और मनुष्यों की ऐसी दशा देखकर दुर्गम दैत्य बहुत खुश हुआ। परन्तु उसे इतने पर भी चैन न था। उसने देवताओं की नगरी अमरावती पर अपना अधिकार जमा लिया।
विवश होकर सभी देवता हिमालय पर्वत पर पराम्बा महेश्वरी की शरण में गए और गुहार लगाई :‘बालकों से पग-पग पर अपराध होता ही रहता है। केवल माता के सिवा संसार में ऐसा दूसरा कौन है, जो उस अपराध को सहन करता हो। आपके पुत्र महान कष्ट पा रहे हैं। आप हमें दर्शन दो और इस दुर्गम नामक दुष्ट दैत्य से हम सब की रक्षा करो।’
अपने बच्चों का बिलखना पराम्बा से देखा नहीं गया। भला, पुत्र कष्ट में हों तो मां कैसे सहन कर सकती है? फिर देवी तो जगन्माता हैं, उनके कारुण्य की क्या सीमा? त्रिलोकी की ऐसी व्याकुलता देखकर मां के अंत:स्तल में उठने वाला करुणा का आवेग अकुलाहट के साथ आंसू की धारा बनकर बह निकला। नीली-नीली कमल जैसी दिव्य आंखों में मां की ममता आंसू बनकर उमड़ आई। दो आंखों से हृदय का दु:ख कैसे प्रकट होता, जगदम्बा ने कमल-सी कोमल सैकड़ों आंखें बना लीं। सैकड़ों आंखों से करुणा के आंसुओं की अजस्त्र धारा बह निकली। इसी रूप में माता ने सबको अपने दर्शन कराए और जगत में ‘शताक्षी’ (शत अक्षी) कहलाईं। वे अपने चारों हाथों में कमल-पुष्प तथा नाना प्रकार के फल-मूल लिए हुए थीं। करुणार्द्र-हृदया मां व्याकुल होकर लगातार नौ दिन और नौ रात तक रोती रहीं।
मां शताक्षी ने आंसुओं से दूर की विश्व की तपन
मां ने सैकड़ों नेत्रों से आंसुओं की सहस्त्रों धाराएं प्रवाहित कर दीं जिससे त्रिलोकी में बहुत बारिश होती रही। सब लोग तृप्त हो गए और विश्व का तपन समाप्त हो गया। समुद्र, नदी-नाले, सरिताएं व सरोवर अगाध-जल से भर गए। सभी औषधियां सींचा गई, पेड़-पौधों में नए अंकुर फूटने लगे। लोगों के प्राण-में-प्राण आ गए। फिर भी पराम्बा की आंखों के आंसू कम नहीं हो रहे थे। वे अपने बच्चों की छटपटाहट और आर्तनाद को भूल नहीं पा रही थीं।
मां का प्यार-भरा आश्वासन
शताक्षी अवतार में मां ने अपनी वात्सल्यता का वर्णन किया है : तुम बच्चों को देख लेने के बाद मैं मिलने के लिए व्याकुल हो जाती हूं, तब प्रेमाकुलता इतनी बढ़ जाती है कि तुम तक पहुंचने के लिए मुझे दौड़ना पड़ता है। इस अवसर पर मेरी दशा वही हो जाती है, जो अपने बछड़ों को देखकर गायों की होती है।’
मां का ‘शाकंभरी’ रूप
संसार को संतप्त देखकर देवी शताक्षी ने समस्त लोकों के भरण-पोषण के लिए फलों और फूलों के ढेर लगा दिए। देवी ने अपने शरीर से उत्पन्न शाकों व फलों को देवताओं को दिया और तरह-तरह की अन्य भोजन सामग्रियां सभी लोगों को अपने हाथ से बांट दीं। गायों के लिए घासों का ढेर लग गया। सबकी भूख-प्यास मिट गई और समस्त लोक हर्ष से भर गए। इसीलिए देवी ‘शाकंभरी’ नाम से प्रसिद्ध हुईं।