शनिवार, 20 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. धर्म-दर्शन
  3. आलेख
  4. swami vivekananda
Written By

दूसरों के लिए आनंद की सीढ़ी बनाओ

दूसरों के लिए आनंद की सीढ़ी बनाओ - swami vivekananda
श्रीरामकृष्ण परमहंस के आश्रम में एक बहुत ही सीधा-सादा आदमी रहता था। नाम था उसका कालू। उसका छोटा सा कमरा था। उसी में वह अपने लगभग तीन सौ देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ रहता था। खुद के लिए बहुत ही कम जगह बचती थी। वहां बड़ी मुश्किल से किसी तरह उसके सोने लायक जगह मिलती थी।


 
वह छह-छह घंटे तक उन सब मूर्तियों की पूजा करता। वह हर देवता की बड़े भाव से अलग-अलग पूजा करता। यह नहीं कि सब एक साथ फूल बरसा दिए या आरती एक साथ कर दी, घंटी एक साथ बजा दी सबकी। वह एक को उनकी निजता में पूजता था। इसमें उसे दिन-दिन भर लग जाया करता था।
 
स्वामी विवेकानंद बड़े तर्क निष्ठ व्यक्ति थे। उनको कालू की पूजा का ढंग बिल्कुल नहीं जंचता, वे हमेशा उससे कहा करते यह क्या पागलपन कर रहा है? पत्थरों के साथ सिर फोड़ रहा है और दिन खराब कर रहा है। लेकिन कालू ने उनकी बात कभी नहीं मानी। वह उसी प्रकार पूजा में मग्न रहता। वह बहुत प्रसन्न और सुखी था। 
 
विवेकानंदजी ने उन दिनों नया-नया ध्यान सीखा था। एक दिन उनका ध्यान बहुत गहराई से लग गया। उन्होंने अपने अंदर शक्ति अनुभव की। उन्हें कालू का ध्यान आया। सोचा कि क्यों न इसके द्वारा कालू को सुधार दूं।
 
इस समय इससे जो कहूंगा ये मान लेगा। अब कालू को तो कुछ पता नहीं था लेकिन ध्यान में विवेकानंद ने उससे कहा- कालू उठ और सब देवी-देवताओं की पोटली बांध ले और गंगा में विसर्जन कर आ।
 
सीधे-साधे निष्कपट कालू के अंतर्मन में ये शब्द पहुंच गए और वह सारी मूर्तियों को पोटली में बांधकर गंगा में विसर्जित करने चल दिया। परंतु साथ ही रोता भी जाता था, क्योंकि उसे तो उन मूर्तियों से सच्चा प्रेम था।
 
उधर से रामकृष्ण देव गंगा स्नान करके लौट रहे थे। उन्होंने कालू को जो हाल-बेहाल देखा तो स्तब्ध रह गए। पूछने पर कालू बोला - मेरी आत्मा के अंदर से आवाज आ रही है कि सब मूर्तियों को गंगा में विसर्जित कर दूं, सो वही करने जा रहा हूं। रामकृष्ण देव तुरंत सारा मामला समझ गए, कि ये नरेंद्र (विवेकानंद) की करतूत है। उन्होंने कालू को आज्ञा दी- तू एक-दो मिनट ठहर और मेरे साथ चल। फिर वे उसे लेकर विवेकानंद के कमरे पर गए। दरवाजा खटखटाया नरेंद्र ध्यान कर रहे थे। उठकर दरवाजा खोला तो सामने रामकृष्ण देव खड़े थे।
 
वे बोले- 'तो तू पहले दिन से ही ध्यान का दुरुपयोग करने लगा। इसलिए वह चाबी जो मैंने तुझे दी थी, वापस ले रहा हूं। तुझे ध्यान मिला था तो उससे दूसरों का ध्यान बढ़ाना चाहिए था पर तू तो मिटाने लगा। दूसरों की श्रद्धा स्थिर करने के बजाय तू तो उनकी श्रद्धा अस्थिर करने लगा। ध्यान को ऊंचे उठने का सहारा बनाना चाहिए था। तू तो उल्टा करके ध्यान व्‍यर्थ कर रहा है। आगे वे बोले - 'मान लो कालू मूर्तियां गंगा में फेंक आता, तो तुझे क्या मिलता? परंतु कालू का बहुत कुछ खो जाता। ध्यान रख जब भी हम किसी  का कुछ आनंद खोने में भागीदार बनते हैं, तो हमें उसका फल एक न एक दिन भोगना पड़ता है।
 
यही तो कर्म का सारा सिद्धांत है। यदि तुम जीवन में आनंद चाहते हो तो दूसरों के लिए आनंद की सीढ़ियां बनाना। इसके विपरीत करोगे तो दुख पाओगे। ये ध्यान की चाबी जिसके द्वारा तू समाधि को प्राप्त होता है, मैं वापस ले रहा हूं, अभी तू इसके योग्य नहीं है। यह चाबी, अब मैं तुझे उचित समय आने पर लौटा दूंगा।'
 
महान गुरु के महान शिष्य ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य की और फिर कभी वह भूल नहीं दुहराई। गुरुदेव ने समय आने पर अपना वचन पूरा किया।
 
कबीर ने ठीक ही कहा है 
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़-गढ़ काहै खोट।
भीतर हाथ सहाय दे, बाहर मारे चोट।।