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यहां देवी की तरह पूजे जाते हैं किन्नर...

यहां देवी की तरह पूजे जाते हैं किन्नर... - Kinnar worshiped like goddess here
देवनामपट्‍टनम। समूची दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में किन्नरों को भले ही सामाजिक प्रताड़ना और लोगों की अवहेलना झेलती पड़ती है, लेकिन भारत में कुछ ऐसे हिस्से हैं जहां इन्हें सम्मान के साथ देखा जाता है और इन्हीं किसी दिव्य पुरुष की भांति देखा जाता है।
 
दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के कई स्थानों पर प्रति वर्ष दस दिनों तक एक त्योहार मनाया जाता है जिसे 'मयना कोल्लई' कहा जाता है। इन दस दिनों में यहां किन्नरों को देवी के रूप में पूजा जाता है। इस अवधि में इन्हें किसी देवी की भांति सजाया जाता है, पूजा की जाती है और समूचे गांव वाले इनका आशीर्वाद लेते हैं।  
 
तमिल और तेलुगू में स्थानीय देवियों को अंगलाअम्मा या अंकलाअम्मा के नाम से जाना जाता है।
हालांकि यह गैर-वैदिक काल की देवियां हैं, लेकिन देश के इन भागों में यह बहुत लोकप्रिय हैं। इन देवियों के मंदिर गांव के बाहर बना दिए जाते हैं जोकि बहुत साधारण से होते हैं। इन्हें मां काली 'अम्मा' का अवतार माना जाता है।
 
तमिल और तेलुगू लोगों के कर्नाटिक क्षेत्र में इन्हें देवी शक्ति का अवतार माना जाता है और समझा जाता है कि यह पार्वती का अवतार हैं जिन्हें ब्रह्मा ने राक्षसों का वध करने के लिए एक यज्ञ से पैदा किया था। देवी पार्वती ने अम्मा का अवतार लेकर राक्षसों का विनाश किया था और लोगों को उनके कष्टों से मुक्ति दिलाई थी। तमिलनाडु के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह के त्योहार को अपनी स्थानीय मान्यताओं के अनुसार मनाया जाता है।
 
मायना कोल्लई अंगलाअम्मा के लिए मनाया जाता है और तमिल माह मासी (फरवरी-मार्च) में मनाया जाने वाले इस त्योहार के दौरान देवी को बकरों-मुर्गों की बलि भी दी जाती है और इसका समापन महा शिवरात्रि से होता है। चेन्नई के पास तिरुवल्लूअर जिले के पुतलूर में प्रसिद्ध श्रीअंगला परमेश्वरी देवी का मंदिर है जहां पर मायना कोल्लई सैकड़ों ही नहीं वरन हजारों वर्षों से मनाया जाता रहा है। तमिलनाडु के बहुत से छोटे बड़े स्थानों पर देवी के मंदिर हैं जहां पर विभिन्न प्रथाओं के साथ इस त्यौहार को मनाया जाता है।    
त्योहार के दौरान किन्नरों पर कुछ प्रतिबंध भी होते हैं... पढ़ें अगले पेज पर....

लेकिन, देवनामपट्‍टनम में किन्नरों को ही देवी का स्वरूप माना जाता है। हालांकि इस त्योहार से पहले किन्नर व समाज के बाकी लोग अपना-अपना सामान्य जीवन जीते हैं, लेकिन फरवरी-मार्च के महीनों में जब कोल्लई त्योहार आता है तो लोग इन्हें किसी देवी की तरह पूजने लगते हैं। इस स्थान पर किन्नरों को कोथी कहा जाता है और दस दिनी त्यौहार के दौरान इन्हें सजाया-संवारा जाता है।
 
इस अवधि में इन पर यह प्रतिबंध लागू होता है कि वे न तो शराब पी सकते हैं और न ही पुरुषों के करीब जा सकते हैं। त्योहार के दौरान ये सजे-संवरे नाचते हैं और पूरे गांव में घूमकर लोगों को आशीर्वाद देते हैं। 
 
त्योहार की अवधि में उनका प्रतिदिन साज श्रृंगार किया जाता है और इन्हें एक बंद कमरे में घंटों तक सजाया जाता है। इस तरह से ये लोग नृत्य के लिए तैयार किए जाते हैं। सजने-संवरने की रस्म पूरी हो जाने के बाद ये ग्रामीणों के सामने नाचते हैं और ग्रामीण इन्हें देवी के तौर पर पूजते हैं। त्योहार के दस दिनों तक इनकी खूब पूछ परख होती है और ग्रामीण इन्हें अपने घरों में आमंत्रित करते हैं। ये पूरे गांव की सैर करते हैं और प्रत्येक घर में जाते हैं जहां लोग इनसे आशीर्वाद लेते हैं। 
 
इस त्योहार के कारण यहां कुछ किन्नर इतने प्रसिद्ध हो गए हैं कि वे किसी लोकल सेलिब्रिटी से कम नहीं होते हैं। लोग इनके साथ अपनी तस्वीरें लेते हैं और इन्हें यादगार के तौर पर सुरक्षित रखते हैं। 
 
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