वितस्ता का जन्मदिन, क्षीर भवानी में मत्था टेक और पिछले साल दशहरा मनाकर कश्मीरी पंडितों ने अपने दिलों में रुके सैलाब को तो बाहर निकाल दिया पर ये सब वे अपनी जन्मभूमि में वहां के वाशिंदे बनकर नहीं बल्कि ‘पर्यटक’ बनकर ही कर पाए थे। यह कड़वा सच है कि इन रस्मों और त्योहारों को मनाने वाले कश्मीरी पंडित कश्मीर में पर्यटक बनकर ही आए थे।
यूं तो उनकी इन रस्मों और त्योहारों को कामयाब बनाने में राज्य सरकार की अहम भूमिका रही थी पर वह भी अभी भी कश्मीरी पंडितों को कश्मीर के लिए ‘पर्यटक’ ही मानती है। अगर ऐसा न होता तो कश्मीरी बच्चों को वादी की सैर पर भिजवाने का कार्य सेना क्यों करती और कश्मीर आने वाले पर्यटकों की संख्या में कश्मीरी पंडितों की संख्या को भी क्यों जोड़ा जाता।
यह हकीकत है। कश्मीर में आने वाले पर्यटकों की संख्या में अगर पिछले कुछ सालों तक राज्य प्रशासन अमरनाथ श्रद्धालुओं को भी लपेटता रहा है तो कुछ खास त्योहारों पर कश्मीर आए कश्मीरी पंडितों और विभिन्न सुरक्षाबलों द्वारा वादी की सैर पर भिजवाए गए उनके बच्चों की संख्या का रिकॉर्ड बतौर पर्यटक ही रखा गया है।
क्यों नहीं लौटना चाहते कश्मीरी पंडित...पढ़ें अगले पेज पर...
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इससे कश्मीरी पंडित नाराज भी नहीं हैं। कारण पूरी तरह से स्पष्ट है कि वे अपने पलायन के इन 25 सालों के अरसे में जितनी बार कश्मीर गए 3 से 4 दिनों तक ही वहां टिके रहे। कारण जो भी रहे हों वे कश्मीर के वाशिंदे इसलिए भी नहीं गिने गए क्योंकि कश्मीर के प्रवास के दौरान या तो वे होटलों में रहे या फिर अपने कुछ मुस्लिम मित्रों के संग।
सच में यह कश्मीरी पंडितों के साथ भयानक त्रासदी के तौर पर लिया जा रहा है कि वे कश्मीर के नागरिक होते हुए भी, कश्मीरियत के अभिन्न अंग होते हुए भी फिलहाल कश्मीर तथा वहां की सरकार के लिए मात्र पर्यटक भर से अधिक नहीं हैं।
वैसे सरकारी तौर पर उन्हें कश्मीर में लौटाने के प्रयास जारी हैं। 25 सालों में 1200 के लगभग कश्मीरी पंडितों के परिवार कश्मीर वापस लौटे भी। पर उनकी दशा देख कश्मीरी पंडितों को उससे अच्छा विस्थापित जीवन ही लग रहा है। ऐसे में सरकार और कश्मीरी पंडितों की त्रासदी यही कही जा सकती है कि वे अपने ही घर में विस्थापित तो हैं ही, अब पर्यटक बन कर भी भी घूमने को मजबूर हुए हैं।