आजादी से दूर हैं देश के आदिवासी
- एनसी सक्सेना
आजादी के इतने दशकों बाद भी आज आदिवासी समाज पूरी तरह उपेक्षित है और विकास की तमाम अवधारणा उसके उत्थान के बारे में नहीं सोचती। आज सच पूछिए तो आदिवासी समाज को विकास की तमाम घोषणाओं से डर लगता है।
उनके लिए विकास यानी उनकी जमीन से उनकी बेदखली और उन्हें उनके जंगलों से उन्हें बाहर निकाला जाना। आजादी के इतने सालों बाद तक हम उन्हें उनकी जमीन से बेदखल करते रहे हैं। जब वे इस अन्याय के खिलाफ एकजुट होते हैं तो उनका दमन किया जाता है। ये समझना जरूरी है कि या तो आदिवासी दमन को चुपचाप झेलता जाएगा या फिर बंदूक उठाएगा! जहां भी उनका बेइंतहा शोषण किया गया, वहां लंबे समय तक उसे झेलने के बाद ही आदिवासियों ने बंदूक उठाई है। आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ हर जगह यह मुख्य वजह दिखाई देती है।
लंबे समय तक सरकारी नौकरी में रहते हुए मैंने गांव-गांव जाकर देखा कि किस तरह से उन्हें तमाम नियमों को ताक पर रखकर उजाड़ा गया। आदिवासियों की स्थिति के बारे में इसी से पता चल जाता है कि जो दो कानून मुख्य रूप से उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए थे, उन्हीं का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हुआ।
अन्याय के खिलाफ आदिवासियों के पास आवाज उठाने का लोकतांत्रिक अधिकार नहीं है। न तो कोई राजनीतिक पार्टियां उन्हें अपने मुख्य एजेंडे में रखने को तैयार हैं और न उनकी अलग राजनीतिक दावेदारी विकसित हो पाई है। वे हाशिए पर ही थे, और हाशिए पर ही हैं।
तमाम कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से अधिसंख्य आदिवासी समुदाय वंचित है। गरीबी रेखा (बीपीएल) का लाभ लेने वालों में आदिवासियों का नाम ही नहीं है, वे छूटे हुए हैं। लिहाजा बीपीएल से जुड़ी हुई तमाम योजनाओं से भी वे बाहर हैं।
एक तरह से देखा जाए तो विकास के साथ उनका अलगाव बढ़ता जा रहा है। आलम यह है कि किसी भी गांव में पैसा कानून का भी पूरी तरह से क्रियान्वयन होता नजर नहीं आता। मंत्रालय की रत्तीभर भी दिलचस्पी नहीं है। इन योजनाओं के तहत जो पैसा आवंटित होता है, वह खर्च ही नहीं होता है। लूट की खुली छूट है।
मैंने उड़ीसा की विवादित पॉस्को और वेदांता परियोजना, दोनों में अपनी रिपोर्टें पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी। नियमों-कानूनों का हवाला देते हुए बताया कि किसी भी सूरत में ये परियोजनाएं इस रूप में नहीं चलनी चाहिए। कहना तो सबसे आसान है, उसमें कुछ नहीं जाता पर लागू करने वाले सिर्फ मुंहजबानी खर्च करते हैं, करते नहीं।
उड़ीसा में जंगलों में उगने वाले तेंदूपत्तों पर रॉयल्टी 12 हजार रुपए टन है, जबकि बॉक्साइट पर 30 रुपए प्रति टन! हर जगह आदिवासी को मारा जाता है। उसका शोषण कागज पर लिखकर और कई बार बिना लिखे ही किया जा रहा है। ऐसे में इस समुदाय का अलगाव, उसका पिछड़ापन बढ़ेगा ही। इन बुनियादी सवालों को देखे, सुने, सुलझाए बिना कोई विकास बेमानी है।