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रतन टाटा-साइरस मिस्त्री के झगड़े के पीछे की असली कहानी

रतन टाटा और साइरस मिस्त्री के इन मुद्दों पर मतभेद हुए

रतन टाटा-साइरस मिस्त्री के झगड़े के पीछे की असली कहानी - ratan tata cyrus mistry dispute real reasons revealed
भारतीय कॉर्पोरेट जगत के दिग्गज समूह टाटा ग्रुप का हालिया आंतरिक झगड़ा उसके इतिहास  का सबसे बड़ा झगड़ा रहा। रतन टाटा और साइरस मिस्त्री के मनमुटाव से उपजे झगड़े ने आगे  बड़ा रूप लिया। दोनों में इन मुद्दों पर नहीं बनी। 

 
इकॉनोमिक टाइम्स में प्रकाशित खबर के अनुसार इस झगड़े की वजह टाटा ग्रुप चुनाव के लिए कैसे चंदा दे? कौन से प्रोजेक्ट और किस तरीके से निवेश करे, क्या टाटा ग्रुप को अमेरिका की फास्ट फूड चैन से जुड़ना चाहिए, जैसे सवाल प्रमुख थे। 
 
इकॉनोमिक टाइम्स की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि रतन टाटा ने एक खास रक्षा से जुड़े कांट्रेक्ट और टाटा पॉवर-वेल्सपन के बीच की डील पर नजरिए को लेकर मिस्त्री और उनके साथियों की राय को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। 

10 करोड़ का मुद्दा, चुनावी चंदा  
 
चुनाव के लिए पैसा देना किसी भी बड़े बिजनेस ग्रुप के लिए अहम मुद्दा होता है। यह सबसे  पहले सामने आने वाले उन मुद्दों में से एक था जिस पर रतन टाटा ने मिस्त्री और उनकी टीम  के प्रति अपनी असहमति जाहिर की। मिस्त्री के एक करीबी ने उड़ीसा के विधानसभा चुनावों  (2014 के मध्य में हुए) के लिए 10 करोड़ की राशि देने की राय दी थी। इसके पीछे यह कारण  बताया गया था कि इस राज्य में लोहा पाने के लिए सबसे अधिक अयस्क मौजूद हैं परंतु रतन  टाटा द्वारा नामांकित बोर्ड सदस्यों ने इस विचार के विरूद्ध तर्क पेश किए। 
 
उनके अनुसार ग्रुप केवल पार्लियामेंट में धन देत है। यह भी एक ट्रस्ट के माध्यम से किया  जाता है। इस तरह उड़ीसा के चुनावों में धन देने का प्रस्ताव निरस्त हो गया परंतु एक बोर्ड  मेंबर के अनुसार, रतन टाटा इस तरह के प्रस्ताव के सामने आने से ही नाराज थे।  साथ ही  मिस्त्री को जानकारी दे दी गई कि इस तरह की योजनाएं ग्रुप की छवि से मेल नहीं खाती। 
 
मिस्त्री के करीबी इससे अलग एक कहानी कहते हैं। इन्हीं में से एक ने कहा कि इस मुद्दे को  लेकर बातचीत हुई थी। राज्यों के चुनाव पर धन देने का फैसला उस राज्य में ग्रुप की कंपनी  पर पूरी तरह छोड़ देना चाहिए। यह इलेक्टोरल ट्रस्ट के माध्यम से ही होगा और इसकी  जानकारी सभी को दी जाए। 
 
सेना के 60,000 करोड़ रुपए का मुद्दा, अगले पेज पर 

60,000 करोड़ रुपए का मुद्दा 
   
टाटा बोर्ड के एक सदस्य के अनुसार, रतन टाटा ग्रुप द्वारा आर्मी कांट्रेक्ट, जिसमें पैदल सेना के  लिए 2,600 युद्ध वाहन खरीदने के लिए 60,000 करोड़ रुपए के कांट्रेक्ट का प्रस्ताव था, से  नाखुश थे।  
 
टाटा पॉवरबीएसई और टाटा मोटरबीएसई ने इस कांट्रेक्ट के लिए अलग अलग बोली लगाईं।  रतन टाटा के हिसाब से टाटा ग्रुप को एक ही बोली लगानी थी। इन दो बोलियों से टाटा ग्रुप  हंसी का पात्र बना। इस कांट्रेक्ट को जीतने वाले की घोषणा फिल्हाल नहीं की गई है। 
 
मिस्त्री के सहयोगी इस तरह की राय को दखलअंदाजी मानते हैं। मिस्त्री की तरफ से एक  आदमी ने कहा कि मिस्त्री ने सभी की एकसाथ राय कायम करने की कोशिश की थी, जो सभी  के हक में हो। मिस्त्री ग्रुप की हर कंपनी को पूरे अधिकार देने में विश्वास करते हैं और किसी  का भी पक्ष लेने से बचते हैं।
 
टाटा वेल्स्पन डील  
 
टाटा वेल्स्पन डील पर सामने आया मुद्दा इस बात को लेकर था कि रतन टाटा के अनुसार  सायरस मिस्त्री द्वारा टाटा वेल्स्पन डील को टाटा संस के बोर्ड को न बताना ग्रुप के कानून का  उल्लंघन है, क्योंकि यह डील इतनी बड़ी थी कि कंपनी की सहमति इसके लिए आवश्यक थी।  मिस्त्री ने इस पर कहा कि कानून का उल्लंघन शब्द न इस्तेमाल किया जाए। टाटा संस के  प्रतिनिधि ने रतन इस बारे में  बात की और इस शब्द के बदले सबकी सहमति न लिए जाने  पर दोनों पक्ष राज़ी हुए। 
 
रतन टाटा नाखुश थे और कंपनी सेक्रेटरी ने फिर से इसमें थोड़ा बदलाव किया। इससे दोनों पक्षों  में कड़वाहट घुल गई। मिस्त्री के पक्ष के लोग कहते हैं कि रतन टाटा आसानी से भूल सकते हैं  कि टाटा वेल्स्पन डील डील के पेपर उनके पास पूरे 10 दिन रहे जब वे दुनिया की यात्रा पर  निकल गए थे, जो होना चाहिए थी वह प्रक्रिया अपनाई गई और टाटा पॉवर बोर्ड इस पर पूरी  तरह से राज़ी था। टाटा संस को टाटा वेल्स्पन डील की जानकारी प्रेस (मीडिया) को बताने के  पहले ही दे दी गई थी। 
 
खाने पर हुआ मिस्त्री और टाटा में विवाद, अगले पेज पर। 

खाने की लड़ाई  
 
फास्ट फूड को लेकर अमेरिकन कंपनी से जुड़ना का मुद्दा भी अहम रहा। एक बोर्ड सदस्य के  अनुसार, टाटा संस बोर्ड के पास एक प्रपोज़ल आया जिसमें यूएस की पिज्ज़ा चेन लिटिल कैसर्स  के साथ टाय-अप की बात कही गई थी। रतन टाटा नाखुश थे कि इस तरह की कोई बात टाटा  संस के बोर्ड के सामने लाई गई है। टाटा की कोई और फर्म इस बारे में फैसला ले सकती थीं।  इससे ग्रुप की छवि गिर रही थी। 
 
मिस्त्री के सहयोगी कहते हैं कि टाटा कंपनी एक कॉफी चेन (स्टारबक्स) के साथ पहले ही जुड़  चुकी थी, इस तरह के विचार में कोई गलत बात नहीं थी। पहले ही इस बारे में बात हो चुकी  थी कि क्वीक सर्विस रेस्टोरेंट (जल्दी सर्विस देने वाले रेस्टोरेंट) पर विचार किया जाना था। यह  स्टारबक्स के साथ मिली सफलता पर आधारित था। 
 
जापानी और कर्मचारी 
 
बोर्ड मेंबर के अनुसार इससे चीज़े चिंताजनक होती गईं। रतन टाटा को भी मिस्त्री की विभिन्न  मुद्दों पर काम करने को लेकर सही नहीं लग रहा था। इनमें टाटा फेक्टरी के कर्मचारी और और  जापान आईएनसी के साथ संबंध खास थे। टाटा के करीबी सदस्य का कहना है कि रतन टाटा  को मिस्त्री के नैनो और टाटा-कोरस पर लिए गए फैसले से कोई परेशानी नहीं थी। 
 
टाटा को परेशानी थी कि मिस्त्री के फेक्ट्री जाकर कर्मचारियों से मिलना, उनसे वहां जाकर  मिलकर बातचीत कर मुद्दे नहीं सुलझा रहे थे बल्कि मुंबई से ही मुद्दे सुलझाने में लगे थे। उन्हें  लगा टाटा इस तरह काम नहीं करते। इस तरह कर्मचारियों का ब्रांड से भावनात्मक जुड़ाव खत्म  हो जाएगा।
 
टाटा-डोकोमो के मुद्दे पर रतन टाटा ने महसूस किया कि ग्रुप की साख दांव पर लगी थी। वह  यह डील हासिल करना चाहते थे और उन्होंने मिस्त्री को दिल्ली हाईकोर्ट में 8,000 करोड़ जमा  करने को कहा। टाटा को इसमें दखलअंदाजी करनी पडी क्योंकि जापान आईएनसी के कुछ खास  नामों ने उनके कहा कि जापान में यह मुद्दा सही नहीं चल रहा है। 
 
मिस्त्री के साथी कहते हैं कि वे कानूनीतौर पर सही होना चाहते थे।  टाटा के तरीके आरबीआई  के हालिया घोषित तरीकों के अनुसार भारतीय कानून के तहत गैरकानूनी साबित हो रहे थे।  सायरस मिस्त्री इसका कोई कानूनी हल खोजना चाहते थे। टाटा के समर्थक कहते हैं कि मिस्त्री  को सरकार के साथ मिलकर हल निकालना चाहिए था जैसा वे करते नहीं दिख रहे थे।