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Last Modified: गुरुवार, 20 अप्रैल 2017 (19:07 IST)

आडवाणी को महंगी पड़ी 'कमंडल राजनीति'

आडवाणी को महंगी पड़ी 'कमंडल राजनीति' - Lalkrishn Adwani, Babri Masjid case
नई दिल्ली। करीब 25 वर्ष पहले बाबरी मस्जिद विध्वंस का सुप्रीम कोर्ट का मस्जिद ढहाने के लिए षड्यंत्र करने के मामले में फैसला अब कुछ लोगों के लिए राजनीतिक कीमत चुकाने का सबब बनेगा। इतना ही नहीं, इस घटनाक्रम का कई लोगों के लिए कई अर्थ साबित होंगे और इसी के साथ पार्टी के लिए यह नई स्थिति होगी। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज का राजनीतिक करियर भी बाबरी मस्जिद-राम मंदिर अभियान के आसपास बना था और यह इसी के आसपास समाप्त भी हो सकता है।
 
अगर आडवाणी और जोशी जैसे नेताओं को सजा मिलती है तो उनका राजनीतिक करियर भी ढह सकता है। आडवाणी जहां राम ‍मंदिर आंदोलन के शिल्पी रहे हैं लेकिन उसकी राजनीतिक सजा से ही उनका राजनीतिक करियर भी समाप्त हो सकता है। अभी तक तो उन्हें और मुरली मनोहर जोशी को राष्ट्रपति पद के दावेदारों में गिना जा रहा था लेकिन लगता है कि चुनाव आने तक बहुत सारे दावेदार पैदा हो जाएंगे। इस घटनाक्रम में आडवाणी का दोष यह रहा कि उन्होंने हिंदुत्व को पहचान बनाने के लिए एक सार्वजनिक उन्माद पैदा किया।
 
यह कहना गलत नहीं होगा कि जिस शेर की सवारी करके उन्होंने पार्टी और लोगों को लोकप्रियता की नई ऊंचाइयां दीं लेकिन इस शेर की सवारी ही उनकी राजनीति के समापन का कारण बना। भले ही कोई कोर्ट कहे या न कहे लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता अपनी नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं। हालांकि आडवाणी का बार-बार यही कहना कि उन्हें इस विध्वंस की जानकारी नहीं थी लेकिन वे इस जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं कि उनकी आंखों के सामने ढांचा को ईंट दर ईंट तोड़ा गया।
 
यह कहना भी गलत न होगा कि मंडल राजनीति की काट के तौर पर उन्होंने 1989 से 1992 तक कमंडल राजनीति का कार्ड चला जिसने देश की राजनीति को हिंसा के गर्त में धकेल दिया। मस्जिद ढहाने के बाद 30 जनवरी, 1993 को उनका कहना था कि अगर देश के मुस्लिम खुद को हिंदुत्व के साथ जोड़ पाते तो देश में कहीं भी साम्प्रदायिक दंगे होने का सवाल नहीं उठता। अपने बाबरी अभियान के कारण उन्हें इसकी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी। एक समय पर 1984 में जब देश की संसद में भाजपा की मात्र दो सीटें थीं लेकिन उन्होंने अपने अभियान के तहत इनकी संख्या 1991 में अकेले के बलबूते 117 सीटें कर दीं लेकिन वे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सके।
 
बाद में, जब उन्होंने अपनी कट्‍टरपंथी छवि को नरम बनाने के लिए उन्होंने जिन्ना तक की प्रशंसा कर डाली लेकिन जो नुकसान हो सकता था, वह हो गया था। वे जिन्ना के प्रशंसक बनने से पहले हिंदुत्व के जिन्ना बन सकते थे लेकिन उन्होंने इसे छोड़कर अपनी ही कब्र खोदने का काम किया। गुजरात दंगों के बाद वे नरेन्द्र मोदी के सबसे मुखर समर्थक थे लेकिन अंत में मोदी ने उन्हें पीछे धकेलकर कुर्सी को हथियाने में सफलता पा ली। यह स्थिति भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के लिए आदर्श हो सकती है कि राम मंदिर का मुद्दा 2019 तक जीवित बना रहे और न्यायालय में दिन-प्रतिदिन की सुनवाई के चलते सुर्खियां पार्टी और इसके बड़े नेताओं के काम आएंगी।       
वास्तव में अगले आम चुनाव तक पार्टी आडवाणी, जोशी और अन्य को हिंदुत्व की राह में 'शहीद' बता सकती है। मुकदमे से जो प्रचार हासिल होगा, उसका लाभ भी उन्हीं लोगों को मिलेगा और इन नेताओं को अगर सजा मिलती है तो दु:खद बात होगी लेकिन अगर इन्हें बाइज्जत बरी कर दिया जाता है तो पार्टी के शीर्ष पदों पर बैठे नेता इन लोगों को 'सीताजी' की बराबरी पर ला देंगे जो कि तमाम तरह की अग्नि परीक्षाओं में खरे उतरे हैं। 'मंदिर वहीं बनाएंगे' की दहाड़ ऐसे नेता का शोक गीत साबित होगा जिसने साम्प्रदायिकता की फसल को बोने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन फसल काटने का मौका ऐसे लोगों को मिलेगा जो पहले ही आडवाणी और जोशी को इतिहास के कूड़ेदान में डाल चुके हैं।