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Last Modified: शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017 (18:10 IST)

राजनीति में मुस्लिम कारक का कारण

राजनीति में मुस्लिम कारक का कारण - Indian elections, Muslim
नई दिल्ली। अक्सर ही देखा जाता है कि देश के मुस्लिमों का कोई ऐसा सर्वमान्य नेता नहीं है जिसका प्रभाव कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हो। आखिर क्यों कभी ऐसा कोई नेता नहीं उभर सका जिसे देशभर के मुस्लिमों का नेता कहा जा सके? इस संबंध में यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि अगर देश की राजनीति में मुस्लिम कारक जैसा कोई निर्णायक कारक नहीं होता तो भी क्या मुस्लिम नेतृत्वविहीन होते?
जब हम इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के दिमाग पर जोर डालते हैं तो ऐसे-ऐसे जवाब आने लगते हैं कि जिन पर किसी ने कभी ध्यान भी देने की जरूरत नहीं समझी। यही खास बात है राजनीति में मुस्लिमों की, पार्टी कोई भी हो, विचारधारा कैसी भी हो, समर्थन और विरोध की पूरी जिम्मेदारी मुस्लिमों के ऊपर होती है। इसी को राजनीति का मुस्लिम फैक्टर कहते हैं और इसीलिए यह सवाल पैदा है कि सियासत में मुस्लिम फैक्टर न होता तो क्या होता? विरोध या समर्थन की धुरी हमेशा मुस्लिम ही क्यों होता है?
 
प्रतापगढ़ निवासी और एएमयू के विद्यार्थी जफर भाई कहते हैं, 'ये जो अनेकता में एकता की बात की जाती है, इस जुमले की धुरी मुस्लिम है। वर्गों, नस्लों, जातियों, रंगों, क्षेत्रों और धर्मों में बंटे हुए लोग अगर एकजुट हैं तो मुस्लिमों के नाम पर। यह चाहे समर्थन में हो या विरोध में।' मुस्लिमों की या उनके नाम पर राजनीति करने वालों के लिए यह ‘बिल्ली के भाग से छींका टूटा’ वाली कहावत जैसा ही है लेकिन समझदार मुस्लिम इस स्थिति से बेचैन दिखता है और वह नहीं चाहता कि लोग उसके नाम पर सियासत करें।
 
स्थानीय हो या राष्ट्रीय, चुनाव चाहे कोई हो, अक्सर यही जुमला सुनने में आता है कि कुल मिलाकर इस त्रिकोणीय (या आमने-सामने) मुकाबले में सभी अपनी-अपनी जीत के दावे करते हैं लेकिन जातीय आंकड़ों में उलझे हुए किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में हर बार चुनाव में उम्मीदवारों की जोड़-तोड़ का केंद्र मुस्लिम मतदाता होता है। वह जिधर झुक गया, उसी का पलड़ा भारी हो गया समझो।
 
हिन्दू फैक्टर क्यों नहीं?  : चलिए एक दूसरा सवाल यह पूछिए कि हिन्दू फैक्टर पर कोई बात क्यों नहीं होती? अब आप देखेंगे कि आपकी सोच कोई जवाब नहीं दे पा रही है। जानते हैं क्यों? क्योंकि इस देश में हिन्दू फैक्टर नाम की कोई चीज है ही नहीं। हिन्दुओं के वोट एक धर्म की बजाय बात हमेशा जातियों में फंस जाती है, जैसे ब्राह्मण वोट, बनिया वोट, ठाकुर वोट और ये कभी एकजुट होकर वोट नहीं डालते हैं।
 
हालांकि ये सारी जातियां हिन्दू धर्म को मानने वालों की हो सकती हैं लेकिन चुनाव के माहौल में ये अपनी जाति के हो जाते हैं। इस वजह से ये हिन्दू फैक्टर न होकर ठाकुर, बनिया और पंडित फैक्टर बन जाते हैं। पाठक यह न समझें कि यह समझ सबकी होती है लेकिन वोट देने से एक दिन पहले किसी भी जाति के एक बड़े वर्ग की सोच अमूमन यही होती है।
 
दलित फैक्टर  : इसके बाद आता है एक तीसरा फैक्टर- दलित फैक्टर। इसका कोई बड़ा नेता न होने पर कोई शोक नहीं करता। आजादी के बाद एक लंबे समय तक ये कांग्रेस के बाड़े में खड़े रहते थे लेकिन अब इन्हें कांशीराम और मायावती जैसे स्थानीय रिंगलीडर मिल गए हैं। इनके बारे में कोई बात कैसे की जाए, कोई नहीं जानता। हालांकि इनका एक बड़ा वर्ग मुख्य धारा में जुड़कर खुद को ताकतवर बनाने की तिकड़म करने लगा है तो इनका एक बड़ा वर्ग अभी भी ठेके पर उपलब्ध है।
 
भारतीय मुस्लिम भी बंटे हैं जातियों में  :  हिन्दुओं की तरह से मुस्लिम भी जातियों में बंटे हुए हैं। इनमें भी ऊंची और नीची जातियां हैं। सैयद हैं, खान हैं, बनिये हैं, जुलाहे हैं, नाई हैं, मेहतर हैं, काश्तकार हैं। सिद्धांतत: यही माना जाता है कि क्रिश्चियन हों या मुस्लिम, मजहब के आईने में सब बराबर हैं। लेकिन कठोर वास्तविकता यही है कि सामाजिक ताने-बाने में इनके यहां भी वर्ग-व्यवस्था है इसलिए कि ये भारतीय मुसलमान हैं जिन्होंने सदियों पहले भले ही अपना मजहब किसी भी वजह से बदल लिया हो लेकिन वह मजहब इनके सामाजिक ताने-बाने को नहीं तोड़ पाया है। यहां भी हड्डी से हड्डी का जोड़ मिलाया जाता है। एक सैयद, मेहतर के यहां शादी नहीं करता।
 
वास्तविकता को देखने के बाद यह बात झूठी लगती है। हिन्दुस्तान में आने वाले बाहरी मजहब, जैसे इस्लाम या ईसाइयत आए तो उनका स्वागत ही समानता के उनके सिद्धांतों को देखते हुए किया गया। लेकिन इस त्रासदी को समझते-समझते सदियां बीत गईं कि जो जिस वर्ग-व्यवस्था से इन धर्मों में गया था, वहां भी उसी श्रेणी में रहा। मतलब लोग ईसाई या मुसलमान तो बन गए लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति वही रही। यह एक ऐसा सच है जिस पर पर्दा डाला जाता रहा है और आगे भी डाला जाता रहेगा।
 
चुनावी मौसम में पहचान  : लेकिन जब चुनाव आता है तो ये सब मुसलमान कहलाते हैं। सैयद से लेकर मेहतर तक सब मुसलमान कहकर बुलाए जाते हैं। हालांकि बिहार, उत्तरप्रदेश में मुसलमानों के इस अंतर को मान्यता देने के प्रयास हुए और अति पिछड़े मुस्लिम समाज को ‘पसमांदा-मुस्लिम’ कहकर उनके प्रति विशेष ध्यान देने की कोशिशें हुईं।
 
यूपी में मुसलमानों की आबादी करीब 19.3 फीसदी। इनकी मौजूदगी सीधे-सीधे 147 सीटों पर असर डालती है। एक अनुमान के मुताबिक, जातियों में बंटे मुसलमानों की अगर बात की जाए तो ये 68 से ज्यादा जातियों में बंटे हुए हैं। इनमें अशराफ और अफजाल दोनों आते हैं। अशराफ यानी उच्च हैसियत वाले सैयद, शेख, पठान आदि। अफजाल में बाकी जातियां आती हैं जिनमें 35 जातियां ओबीसी में शामिल हैं, हालांकि ये सरकारी आंकड़े नहीं हैं।
 
इन सारी वास्तविकताओं के साथ यह भी एक हकीकत है कि इस देश में कभी कोई ऐसा नेता नहीं बन पाया जिसे भारतीय मुसलमानों का नेता कहा जाता। ऐसा नहीं कि लोगों ने इसके लिए प्रयास नहीं किया लेकिन खुद मुसलमान इतने बंटे हुए हैं कि यह कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाई।
 
दूसरी सच्चाई यह भी है कि भारतीय राजनीति की तरह ही भारतीय चुनाव भी उलझे हुए हैं। यहां कब वोटर किस ओर मुड़ जाए कहना मुश्किल है। खासतौर पर मुस्लिम वोटर तो अपना वोट किसी ऐसे उम्मीदवार की झोली में भी डाल आता है जिसे वह पसंद भी नहीं करता। जानते हैं वह ऐसा क्यों करता है? सिर्फ इसलिए और इस सोच की वजह से कि वह उम्मीदवार किसी ऐसे उम्मीदवार को हराने में कामयाब होने वाला लगता है जिसका डर उनके दिलोदिमाग में बैठा दिया गया है। 
 
पिछले 70 वर्षों में अनगिनत ऐसी किताबें आई हैं जिनमें उन कारणों पर इशारा किया गया है जिसने एक पूरी मुस्लिम सोच को चुनाव के वक्त की देश की सोच से अलग रखने का काम किया है।  वास्तव में खुद मुस्लिम समाज इसका कोई तर्कसंगत हल नहीं ढूंढ पाया और बस यह सोचकर रह जाता है कि उसे एक साजिश के तहत ही पीछे धकेला जा रहा है। लेकिन उसे इस बात का अंदाजा नहीं है कि इस साजिश को अंजाम देने वाला भी वही है।