शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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इंतजार का डेढ़ साल, देह से कंकाल...

इंतजार का डेढ़ साल, देह से कंकाल... - mother's decomposed body
मुंबई में उस बुजुर्ग महिला का कंकाल मिलना झकझोर रहा है, जिसकी डेढ़ साल पहले विदेश में सेटल हो चुके बेटे से आखरी बार बात हुई थी। बातें भी कोई साधारण नहीं, बल्कि संवेदना से भरी...। जिसमें मां ने बेटे से अपना दुख साझा किया होगा यह सोचकर, कि वह समझेगा उसका अकेलापन। यही सोचकर कहा होगा मां ने, कि अब वह इतने बड़े घर में अकेली नहीं रह सकती...वह डिप्रेशन में है...वह वृद्धाश्रम चली जाएगी। उसने बेटे से गुहार भी तो लगाई थी, कि या तो वह मुंबई आकर उसके साथ रहे या फिर उसे भी विदेश ले जाए, क्यों अकेलापन उसे परेशान कर रहा है। बेटा आया भी तो कब, जब मां की देह तक कंकाल बन चुकी...! 
 
सोच रही हूं, बचपन में जब मां एक पल को भी दूर होती, तो हम रो-रोकर सारा घर सर पर उठा लेते... हमारी जरा सी आवाज पर मां दौड़कर आती और गोद में उठा लेती...। हमें अबोध रूप में भी दूर रहना स्वीकार्य नहीं, तो उसे जान बूझकर हम इतना दूर कैसे कर सकते हैं कि वह जीते-जी मरने पर विवश हो। किस बात की सजा उसे... कि उसने हमें जन्म देकर हर हाल में संभाला और हम उस ऊंचाई पर पहुंच सके जहां से उसकी आवाज भी धुंधली लगे? 
 
बच्चे के इस दुनिया में आने का विचार मात्र ही एक मां को उसके प्रति असीम संवेदनाओं से भर देता है, उसके बाद उसे 9 माह कोख में रखना...असहनीय पीड़ा को सहते हुए जन्म देना और उसकी पहली किलकारी में दर्द को भूलकर खुशी और सुकून का अनुभव करना संवेदनाओं को न जाने कितने शिखर ऊपर ले जाता है... बस उसके बाद से संतान के प्रति मां की संवेदनाएं कभी खत्म कम नहीं होती बल्क‍ि अपने साथ-साथ अनेक एहसासों को साथ-साथ लेकर आगे बढ़ती है...। 
 
उसका पहली बार कोई शब्द बोलना, घुटने चलना, खड़ा होना, पहला पैर उठाना, पहला निवाला और न जाने क्या-क्या....वह समेट कर रख लेती है हर एहसास और याद को अपने लिए...और जब हम बड़े होते हैं, तब खुलता है पिटारा हमारी हर शैतानी का...वो भी मुस्कुराहट के साथ। 
 
बड़े होने के साथ-साथ जैसे हमारी इच्छाएं और नखरे बढ़ते हैं, उनके साथ-साथ बढ़ते हैं मां के अरमान भी... तरह-तरह के कपड़े पहनाने के, नए खिलौने नई सुविधा जुटाने के, संतान की हर तकलीफ का विकल्प तलाशती है वह...। 
 
बच्चा पहली बार जब स्कूल जाता है...वह पहली बिछड़न, जब बच्चा कुछ देर रोता है और फिर घुल मिल जाता है अनेक बच्चों में... लेकिन मां, घर पर उसकी चिंता में पल-पल गिनती है...उसकी हर सुबह आपकी पसंद से भरे लंच बॉक्स बनाने से शुरु होती है और हर रात आपको सुलाकर ही वह सोती है... आपके इस दुनिया में आने की दस्तक से शुरु हुआ ये सफर आजीवन किसी अनमोल खजाने की तरह आपके प्रति उसकी गहरी संवेदनाओं से भरा ही रहता है। 
 
लेकिन यहां सवाल है कि हमारी संवेदनाएं मां के प्रति कहां से शुरु होती हैं... हमारी जरूरतों से? तभी तो हर जरूरत और दुख-सुख में वही याद आती है, क्योंकि हम जानते हैं कि जरूरत में एक वही है जो साथ नहीं छोड़ेगी... दुख में एक वही है जो उतनी ही तड़पेगी हमारे सुख के इंतजाम में। और हमारे सुख से दुनिया में किसी को लेना-देना नहीं है सिवा उसके...। एक वही है जो सुख के सौ गुना बढ़ने की दुआएं दे सकती है...। 
 
बचपन में जब हमें एक-एक निवाला खिलाने के लिए जब वह पीछे-पीछे पूरे घर में घूमती है, तब भी हम चिढ़ र‍हे होते हैं। हमें उसका समर्पण नहीं बल्कि अपनी तकलीफ दिखती है। लेकिन समय के साथ-साथ उसके भावों को न समझ पाएं, उसके त्याग और समर्पण का मोल न जान पाएं, उसकी तकलीफों को सुनकर भी न महसूस कर पाएं, तो क्या हम पर उसकी खर्च हुईं संवेदनाएं कहीं सार्थक हुईं? नहीं... उसका दर्द सुनकर भी हम कम न कर पाएं तो हम उसकी संतान होने के सही अधिकारी नहीं...।