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Written By WD

साहित्यिक-खाप की एक शाम

व्यंग्य

Literature | साहित्यिक-खाप की एक शाम
जवाहर चौधरी
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तय समय से पहले ही साहित्यिक-खाप के सारे पंच बार में पहुँच गए। संकेत मिलते ही बैरे ने 'चिंतन-पेय' परोसा और पंचों में एकता और संगठन की एक भावुक लहर-सी दौड़ गई। सबने एक-दूसरे से शीशे के भरे पात्र टकराकर 'विचार' कहा और पहला घूँट भरा।

'तो बताएँ... मुद्दे क्या हैं?' पापड़ तोड़ते हुए वरिष्ठ सरपंच ने पूछा।

'पहला तो यही कि कविता का 'भीम-पुरस्कार' इस बार चंद्रप्रकाश 'चंद्र' को देने की घोषणा हुई है जिसका हमें विरोध करना है।' पूर्वी खाप के पंच ने बताया।

'बिलकुल... विरोध तो करना ही है। चंद्रप्रकाश 'चंद्र' हमारे गोत्र का नहीं है। ...और साहित्यिक पुरस्कार हमेशा सगोत्रों को ही दिया जाता है। ...यही परंपरा है...। और परंपराओं से ही खाप का अस्तित्व है। हमें हर हाल में खाप की रक्षा करना है', बुजुर्ग पंच ने समर्थन किया।

'भीम-पुरस्कार की निर्णायक समिति में कौन लोग थे? उन्होंने गोत्र का ध्यान क्यों नहीं रखा?' युवा पंच ने अनुभवहीनता के कारण प्रश्न किया।

'भीम पुरस्कार सरकारी है। वहाँ हमारे गोत्र के निर्णायक हमेशा नहीं होते हैं। सरकार अपने संविधान के हिसाब से चलती है।'

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'संविधान के हिसाब से नहीं, चाटुकारों के हिसाब से चलती है। ...हमें सरकार पर पूरी ताकत से दबाव बनाना पड़ेगा। ...खाप के होते कोई भी पुरस्कार गोत्र के बाहर नहीं जाना चाहिए।' चिंतन पेय के सुरुर में आते ही सरपंचजी की आवाज में वजन पड़ने लगा। अब तक चुप बैठे बड़े मानसिंह ने बहुत सोचते हुए अपनी राय व्यक्त की, 'भई... म्हारी राय तो या हे कि सरकार को मनाना कोई आस्साण काम नीं है। खाप की इज्जत बचाणे के वास्ते अगर हम चंदर परकाश को गोत्र में शामिल कर लें तो? ...साँप भी मर जावेगा और लाट्ठी भी ना टूट्टेगी।'

'देखिए... ये साहित्यिक-खाप है... और ये स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हम यहाँ कोई समझौते या अच्छे काम के लिए जमा नहीं हुए हैं। ...जैसी कि हमारी आदर्श परंपरा रही है, हमें इस विवाद को ऊँचा उठाकर सही दिशा में आगे बढ़ाना है। ...

जहाँ तक चंद्रप्रकाश 'चंद्र' का सवाल है, उसे गोत्र में कैसे लिया जा सकता है! वो कवि नहीं तुक्कड़ है। उसकी कविताएँ ऐरे-गैरे तक समझ लेते हैं! उसकी रचनाओं में हमारी विचारधारा नहीं होती है। ऐसे में उसे सगोत्र बनाने पर विचार नहीं किया जा सकता है।'

एक सन्नाटा-सा छा जाता है और वातावरण में केवल पापड़ टूटने की आवाजें रह जाती हैं। अधिकांश को याद नहीं आ रहा है कि खाप की विचारधारा क्या है। सुना है शुरुआत में विचारधारा को लेकर बड़ी उटापटक हुई थी। एक पुस्तिका बनी थी 'खाप-स्मृति' नाम की जिसे बाकायदा पढ़वाया जाता था और सहमत होने पर ही किसी को सदस्यता दी जाती थी। बाद में चलन बदला, पुराने सदस्यों की अनुशंसा पर नए सदस्य बनाए जाने लगे ताकि जरूरत पड़ने पर उनके वोट मिल सकें। धीरे-धीरे सदस्यता का यही तरीका रह गया और ' खाप-स्मृति' कहाँ पड़ी सड़ गई, किसी को पता नहीं।

'वैसे एक बार हम लोगों को विचारधारा के बारे में ठीक से बता-समझा दिया जाता तो बेहतर होता', तरल-गरलजी ने कहा।

एकसाथ कई आवाजें समर्थन में आईं और सबने विचारधारा के मुद्दे पर प्रकाश डालने के लिए खाप-रत्न सुखानंद 'साधकजी' से आग्रह किया। साधकजी महान साहित्यकार हैं। उन्होंने बहुत कम लिखा है किंतु पुरस्कार अधिक प्राप्त किए हैं, इसलिए लोग उन्हें कलाकार की श्रेणी में भी रखते हैं।

उनका मानना है कि लेखक को कलम की साधना में ज्यादा समय बरबाद करने की अपेक्षा गोत्र और परंपरा के प्रति समर्पित होना चाहिए। लेखन तो निमित्त मात्र होता है, जो पैसा खर्च कर दूसरों से भी करवाया जा सकता है। लेकिन पुरस्कार घर की दीवार पर लटकने वाला सिंह-शीश होता है, जो लेखक को बड़ा शिकारी होने का-सा गौरव और आनंद प्रदान करता है। अगली पीढ़ी भले ही लिखे को लेखक के साथ फूँक दे, पर पुरस्कार समेटकर ले जाएगी। पुरस्कार इतिहास बनाते हैं और लेखन से चिता तैयार होती है। इसलिए साधकजी केवल सेंट्रल आइडिया यानी केंद्रीय विचार देते हैं।

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दूसरा लेखक पीते-खाते उसे आकार देता है और एक मुकाम पर पहुँचा देता है। यह सामग्री किसी तीसरे के पास जाती है, किन्हीं कारणों के चलते वह उसका संस्कार-परिष्कार कर उसे एक कृति में बदल देता है। साधकजी इसे अपनी रचना-प्रक्रिया कहते हैं, जो महँगी जरूर है पर बराबर फायदा करती है। बहरहाल, जब सारे लोग उनकी ओर देखने लगे तो उन्हें अपना मुँह खोलना पड़ा, 'देखिए, हमारी 'खाप-स्मृति' एक बड़ी पुस्तिका है। यदि अभी उसकी चर्चा लेकर बैठ गए तो चंद्रप्रकाश 'चंद्र' का मुद्दा रह जाएगा।'

' ठीक है... पहले इसी मुद्दे को ले लें, खाप-स्मृति सब लोग कहीं ढूँढ-ढाँढकर पढ़ लेंगे।'

'मेरा ख्याल है कि चंद्रप्रकाश 'चंद्र' के मामले में हम गोत्र और परंपरा के आधार पर विरोध नहीं कर सकते हैं। हमें कोई दूसरा रास्ता निकालना होगा', बुजुर्ग पंच बोले।

'दूसरा रास्ता क्या हो सकता है?'

'हमें यह बोलना होगा कि चंद्रप्रकाश की रचनाएँ घटिया, अश्लील और पुरस्कार के योग्य नहीं हैं। यही एकमात्र रास्ता है।'

'ठीक है... किसी ने पढ़ा है चंद्रप्रकाश को?'

'एक-दो कविताएँ पढ़ी हैं यहाँ-वहाँ।'

'मैं तो नाम देखकर ही हटा देता हूँ सामने से। ...जो गोत्र का नहीं उस पर समय नष्ट करने में क्या लाभ?'

'मेरा ख्याल है कि निर्णायकों ने भी नहीं पढ़ा होगा।'

'बिलकुल अनुभवहीन हो... निर्णय करने के लिए निर्णय की जरूरत होती है... पढ़ने की नहीं।'

'तो क्या हमें पढ़ना पड़ेगा?'

'अब कहाँ पढ़ेंगे... चलिए, हम एकता और संगठन के बल पर विरोध करेंगे।' इसके साथ ही बैरे को भोजन लगाने का संकेत हुआ और टेबल पर वे मुर्ग अपने सब कुछ के साथ लाए गए जिसे सुबह तक बचाए रखने के लिए वे प्रार्थना कर रहे थे।

'वाह... बढ़िया है... क्या नाम है इसका?' सरपंच ने पूछा।

'जी चिकन... चिकन...' बैरे ने जवाब दिया।

कुछ नाम नहीं है! जैसे चिकन जोश, चिकन मदहोश ...?

'नहीं सर... ये तो अभी ऐसे ही चल रहा है ..।

'ऐसे-कैसे? .... चलिए हम रखते हैं इसका नाम.... इसका नाम बताया करो 'चिकन चन्द्रप्रकाश 'चन्द्र'...। खाप ठठाकर हँस पड़ी..। किसी के हाथ में टाँग थी, किसी के मुँह में गर्दन। अचानक चिकन में एक नया स्वाद आने लगा था !