प्रभाष जोशी : श्रद्धांजलि
पत्रकारिता-जगत में सन्नाटा
आज भारतीय पत्रकारिता सन्नाटे में है। भारतीय पत्रकारिता की बेबाक और बेखौफ वाणी यकायक खामोश हो गई। एक ऐसी आवाज जिसमें कई रंग, कई स्वर शामिल थे। लेखनी का एक ऐसा जादूगर हमारे बीच से चला गया जिसमें पत्रकारिता को विशिष्ट आयाम और तेवर देने का साहस था। प्रभाष जी के निकटतम साहित्यकार-पत्रकार इस पीड़ादायक खबर से शब्दहीन से हैं। कबीर परंपरा के उद्भट पत्रकार प्रभाष जोशी मालवा की कबीर परंपरा के उद्भट पत्रकार थे। मेरा सौभाग्य है कि 1986 में उनकी पहली पुस्तक 'मसिकागद' का संपादन मैंने किया। यह पुस्तक उनके चरित्र का सही और सटीक मूल्यांकन करती है। प्रभाष जी निर्गुण थाट के यशस्वी वक्ता थे। गणेश शंकर विद्यार्थी, उग्र, सूर्यनारायण व्यास जैसे पत्रकारिता के स्कूल के वे अंतिम विद्यार्थी थे, जिनकी कलम ने यह आईना दिखाया कि राज्यसभा के द्वार कैसे खुलें। सूर्यनारायणजी द्वारा संपादित 'विक्रम' उज्जैन से पत्रकारिता का आरंभ करते हुए, नईदुनिया इंदौर से होते हुए उन्होंने दिल्ली की अलसाई हुई पत्रकारिता पर बिजली गिराई थी। आक्रामक पत्रकारिता की नई परिभाषा रचने वाले प्रभाष जी मूलत: अहिंसावादी थे। यह मेरी व्यक्तिगत क्षति है। उनका स्नेह मेरी धरोहर है। राजशेखर व्यास, वरिष्ठ निदेशक, दिल्ली दूरदर्शन लेखनी का जादूगर क्रिकेट के प्रति दिवानगी वाले पत्रकार तो बहुत हुए लेकिन अपनी लेखनी से उसमें रस पैदा करने का हुनर सिर्फ उनमें था। जब गावस्कर ने 10,000 रन पूरे किए तो स्टेडियम में उपस्थित उदयन शर्मा और अन्य पत्रकार खड़े हो गए। लेकिन प्रभाष जी बैठे रहे और बरबस ही रो पड़े। भर्राए गले से बस इतना कह सकें पता नहीं ऐसा खुशी का क्षण फिर कब आएगा? 1992 में जब भारत विश्वकप से बाहर हुआ तो उनका अपने ही अनूठे अंदाज में मालवी कथन था- 'सई साझँ का मरिया के कई रोए? 'प्रभाष जी की लेखनी में वो जादू था कि उनके लिखे संपादकीय पर कहीं भी अंगुली रख दो, आप बहते चले जाएँगे, ऐसी रवानगी थी उनकी लेखनी में जो आज के पत्रकारों में नहीं मिलती। शशांक दुबे, स्वतंत्र लेखक, मुंबई तीखे तेवर- कोमल स्वभाव प्रभाष जोशी का जाना हिन्दी पत्रकारिता के लिए ऐसा नुकसान है जिसकी भरपाई कदापि संभव नहीं। अपनी बात को कहने का नया तेवर, साफगोई, निडरता और बेलाग टिप्पणी रखने का उनका माद्दा ऐसे विलक्षण गुणों से रचे प्रभाष जी जैसे पत्रकार अब मिलना संभव नहीं है। उनका जाना रिक्तता भी देता है और असीम कष्ट भी। वे उस पीढ़ी के पत्रकार थे जिनके लिए पत्रकारिता मिशन थी, व्यवसाय नहीं। राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते और अभय छजलानी के समतुल्य प्रभाष जी ने ना सिर्फ हिन्दी पत्रकारिता वरन भारतीय पत्रकारिता को दिव्यता प्रदान की। उनकी लेखनी में पैनापन था लेकिन स्वभाव से वे उतने ही कोमल थे। वे कभी किसी से नहीं डरते थे, आज की पत्रकारिता में ऐसे गुण कहाँ मिलते है? विश्वनाथ सचदेव, वरिष्ठ पत्रकार-लेखक उनकी कलम को वंदन मेरे परम मित्र थे। आज जब देश को ऐसे पत्रकार की जरूरत है जो राजनीतिक पाखंडों और दुराचारों से सीधा लड़ सकें, ऐसे में प्रभाषजी असमय चले गए। देश में गिने-चुने पत्रकार बचे हैं जिनकी लेखनी के आधार पर हम पत्रकारिता के मापदंड तय कर सकें। हम तो अभी सोच रहे थे कि उनका अमृत महोत्सव कैसे मनाएँगे और वे ही चल दिए। मुझे नहीं पता अपनी कलम वे किसे देकर गए हैं लेकिन मैं उनकी कलम को वंदन करता हूँ। उनकी कलम का चमत्कार था कि छोटे से गाँव के कलाकार प्रह्लाद टिपाण्या पर उन्होंने मात्र दो लेख लिखे और उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर दिया। व्यक्तित्व को बनाना और बुलंदी पर पहुँचा देना ये किसी सामान्य लेखक के बस की बात नहीं है। सच कहूँ तो 'नईदुनिया' की ऊर्वर माटी ने ऐसे पेड़ तैयार किए जो आम जनमानस को छाँव देने की ताकत रखते हैं। आज एक वटवृक्ष नहीं रहा। पत्रकारिता-जगत की यह 'दुर्घटना' दहला देने वाली है। बालकवि बैरागी, सुप्रसिद्ध कवि-गीतकार मालवी मुहावरों को मंच दिया किसी के जाने के बाद अक्सर एक मुहावरा कहा जाता है कि एक युग का अंत हुआ। आज उस मुहावरे का सही उपयोग होगा कि पत्रकारिता के एक युग का सचमुच अंत हो गया है। प्रभाष जी गाँधीवादी विचारों के साथ आधुनिक पीढ़ी को लेकर चलने वाले विरल पत्रकार थे। आत्मीयता और सरलता के पर्याय। अंग्रेजी साहित्य के विषद् ज्ञाता। मालवी मुहावरों को वैश्विक ख्याति दिलाने वाले। क्रिकेट के प्रति उनका रागात्मक लगाव इस कदर था कि जो क्रिकेट देखते नहीं थे वे भी प्रभाषजी की दिलचस्प टिप्पणी पढ़े बिना नहीं रह सकते थे। इतने वरिष्ठ पत्रकार जो साहित्य व समाज से गहरे तक जुड़े थे और क्रिकेट को भी उन्होंने अपनी पैनी पेठ और गहरी रूचि से आकर्षक प्रतिमान बना दिया। उनकी लेखनी का लोकतत्व, मालवा के मुहावरों का बिंदास प्रयोग, दिल में गहरे उतरने का कौशल सब गुण उन्हें विरल पत्रकार की श्रेणी में खड़ा करते हैं। उन्हें तो अभी 'रन' बटोरने थे, असमय 'आउट' हो गए। मेरी गहरी श्रद्धांजलि। अशोक चक्रधर, वरिष्ठ साहित्यकार