महाभारत काल में यदुवंशियों को हर जगह से पलायन ही करना पड़ा। इस पलायन के कई कारण थे। कहते हैं कि यदुवंशियों के प्रारंभ में मथुरा में ही कुल 18 कुटुम्ब के लोग थे। देशभर की संख्या ज्ञात नहीं। महाभारत के बाद जब मौसुल युद्ध हुआ तो यही 18 कुल के लोग आपस में लड़कर मारे गए। लेकिन यह भी कहा जाता है कि उस काल में बहुत से यदुवंशी पलायन करके भारत के बाहर भी चले गए थे, जहां उन्होंने अपना एक अलग साम्राज्य स्थापित कर अपने वंश को विस्तार दिया। हालांकि कालांतर में उनका साम्राज्य भी नष्ट हो गया या कर दिया गया। यह आलेख सिर्फ महाभारत पर ही केंद्रित है और यह आलेख किसी निष्कर्ष या समाधान की बात नहीं करता, सिर्फ शोधार्थियों हेतु सवाल प्रस्तुत करता है। यदुवंशियों का प्राचीन और मध्यभारत में अतुलनीय योगदान रहा है। उनकी पीढ़ियों के योगदान और इतिहास को प्रकट और संरक्षित करने की जरूरत है।
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महाभारत का युद्ध अधर्म के विरुद्ध धर्म का युद्ध था। लेकिन अधर्म की ओर वे लोग भी थे, जो धर्म के पक्षधर थे। एकमात्र यह युद्ध ऐसा युद्ध था जिससे कई घटनाओं और कहानियों का जन्म हुआ और जिससे भारत का भविष्य तय हुआ। इस युद्ध में एक ओर जहां भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा आदि को शाप दिया था वहीं भगवान कृष्ण को भी शाप का सामना करना पड़ा।
मथुरा अंधक संघ की राजधानी थी और द्वारिका वृष्णियों की। ये दोनों ही यदुवंश की शाखाएं थीं। यदुवंश में अंधक, वृष्णि, माधव, यादव आदि वंश चला। श्रीकृष्ण वृष्णि वंश से थे। वृष्णि ही 'वार्ष्णेय' कहलाए, जो बाद में वैष्णव हो गए। भगवान श्रीकृष्ण के पूर्वज महाराजा यदु थे। यदु के पिता का नाम ययाति था। ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे। ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनद कहा गया है।
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पुराणों में उल्लेख है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गए थे और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को कभी राजपद प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा। ययाति सबसे छोटे बेटे पुरु को बहुत अधिक चाहते थे और उसी को उन्होंने राज्य देने का विचार प्रकट किया, परंतु राजा के सभासदों ने ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए इस कार्य का विरोध किया।
यदु ने पुरु पक्ष का समर्थन किया और स्वयं राज्य लेने से इंकार कर दिया। इस पर पुरु को राजा घोषित किया गया और वह प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक हुआ। उसके वंशज पौरव कहलाए। कहते हैं कि यदु के बाद अधिकतर यदुओं को कभी भी उस काल में राज्य का सुख हासिल नहीं हुआ। उनके वंशज के लोग एक स्थान से दूसरे स्थान को भटकते रहे और उनको हर जगह से पलायन ही करना पड़ा। वे जहां भी गए उन्होंने एक नया नगर बसाया और अंतत: उस नगर का विध्वंस हो गया या कर दिया गया।
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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अनुमानित 7,200 ईसा पूर्व यदु ने राज्य को छोड़ने के बाद समुद्र के किनारे अपनी नगरी को बसाया था। यह भी कहा जाता है कि ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पश्चिम में पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुहु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भू-मंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। ययाति के राज्य का क्षेत्र अफगानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर असम तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक था।
यदु के कुल में भगवान कृष्ण हुए। यदु के 4 पुत्र थे- सहस्रजीत, क्रोष्टा, नल और रिपुं। सहस्रजीत से शतजीत का जन्म हुआ। शतजीत के 3 पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय से धर्म, धर्म से नेत्र, नेत्र से कुन्ति, कुन्ति से सोहंजि, सोहंजि से महिष्मान और महिष्मान से भद्रसेन का जन्म हुआ।
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ययाति ने जब यदु को सिन्ध-गुजरात के क्षेत्र दिए तो उस समय गुजरात के समुद्र तट पर एक उजाड़ नगरी थी जिसे कुशस्थली कहा जाता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराज रैवतक ने प्रथम बार समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकालकर यहां एक नगरी बसाई थी। यहां उनके द्वारा कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण इसे कुशस्थली कहा गया। अन्य मान्यताओं के कारण इसे राम के पुत्र कुश के वंशजों ने बसाया था। यह भी कहा जाता है कि यहीं पर त्रिविक्रम भगवान ने 'कुश' नामक दानव का वध किया था इसीलिए इसे कुशस्थली कहा जाता है। जो भी हो, यहां पर महाराजा यदु ने अपनी एक नगरी बसाई थी।
अज्ञात कारणों के चलते जब यह नगरी उजाड़ हो गई तो सैकड़ों वर्षों तक इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। बाद में जरासंध के आक्रमण से त्रस्त होकर श्रीकृष्ण ने मथुरा से अपने 18 कुल के हजारों लोगों के साथ पलायन किया तो वे कुशस्थली आ गए थे और यहीं उन्होंने नई नगरी बसाई और जिसका नाम उन्होंने द्वारका रखा। इसमें सैकड़ों द्वार थे इसीलिए इसे द्वारका या द्वारिका कहा गया। इस नगरी को श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा और मयासुर की सहायता से बनवाया था।
यह अभेद्य दुर्ग था। लेकिन कहते हैं कि जब भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका से बाहर लंबी यात्रा पर थे तब उनके शत्रु शिशुपाल ने यहां आक्रमण कर इस नगरी को कुछ हद तक नष्ट कर दिया था। इसे श्रीकृष्ण ने फिर से मजबूत बनवाया था। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण में उल्लेख मिलता है कि कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था, जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी।
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मौसुल युद्ध के बाद यदुवंशियों का विनाश हो गया। इसके बाद श्रीकृष्ण के देह त्याग के बाद जब द्वारिका नगरी जल में डूब रही थी तब अर्जुन सभी यदुवंशी स्त्री और बच्चों को लेकर हस्तिनापुर के लिए निकले। हजारों की संख्या में एक जगह पड़ाव डाला तब उनके साथ लूटपाट हुई और लगभग सभी मारे गए। बस बच गया था तो श्रीकृष्ण का प्रपोत्र वज्रनाभ।
उल्लेखनीय है कि कालांतर में मथुरा को भी कई बार नष्ट किया गया था। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को बहुत सी जगहों पर वज्रनाभ भी लिखा गया है। वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे। द्वारिका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारिका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा भी घोषित किया था। उसे इन्द्रप्रस्थ भी दिया गया था लेकिन वह नष्ट हो गया। वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है। इस वज्र ने ही मथुरा में सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण के जन्म स्थान पर भव्य मंदिर बनवाया था लेकिन कालांतर में आक्रांताओं ने इसे नष्ट कर दिया था।
मथुरा को नष्ट करने में सबसे पहला नाम जरासंध का आता है। उसके बाद शिवभक्त मिहिरकुल का आता है। मिहिरकुल हूण सम्राट तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल भारतीय इतिहास में अपनी खूंखार और ध्वंसात्मक प्रवृत्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। 450 ईस्वी के लगभग हूण, गांधार इलाके के शासक थे, जब उन्होंने वहां से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया था। इसके बाद महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी ने इस शहर का विध्वंस किया था।
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ऐसा नहीं है कि यादव क्षत्रियों ने कभी राजपाट नहीं किया। उन्होंने कई वर्षों तक देश में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में राज किया लेकिन उनका शासन आक्रांताओं के कारण अस्थिर ही रहा। जैसे कश्मीर में अभीर यादव वंश का शासन था। आज का अभिसार और राजौरी क्षेत्र उसी शासन के अंतर्गत आता था। इसी तरह गुजरात में भी अहीरवंशी क्षत्रियों का शासन रहा है। आज भी गुजरात में यादव समुदाय की आबादी जामनगर, जूनागढ़, कच्छ, राजकोट एवं अमरेली जिलों में अधिक है। अहीर, ग्वाल तथा यादव शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द ही माने जाते हैं। यादवों में घोसी, गौड़, गौर, राउत, रावत, भाटी आदि भी होते हैं।
लंबे कालखंड और आपसी फूट के कारण यादव समाज उपजातियों में बंटकर बिखर गया है। प्रत्येक प्रदेश में यादवों की पीढ़ियों का इतिहास अलग-अलग मिलेगा, लेकिन शुरुआती क्रम समान है। यदि हम गुजरात की बात करें तो अत्रि से सोम, सोम से ययाति, ययाति से यदु, यदु से आगे 59वीं पीढ़ी में सूरसेन, सूरसेन से वसुदेव, वसुदेव से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
श्रीकृष्ण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध, अनिरुद्ध से वज्रनाभ का जन्म हुआ। वज्रनाभ की 140वीं पीढ़ी में देवेन्द्र हुए। देवेन्द्र के बाद गजपत हुए। गजपत के बाद शालिवाहन, शालिवाहन के बाद यदुभाण, यदुभाण के बाद जसकर्ण, जसकर्ण के बाद समाकुमार, समाकुमार के बाद ईस्वी सन् 875 में चूड़चन्द्र हुए। इस तरह हमें यह लिस्ट मिलती है।
।।इति यादव कथा।।