Mahabharata: भगवान विष्णु के बाद श्रीकृष्ण ने भी धरा था मोहिनी का रूप इरावान की पत्नी बनने के लिए
Mohini Avatar in Mahabharat : समुद्र मंथन हुआ तो अंत में उसमें से अमृत का कलश निकला। इस कलश के अमृत को प्राप्त करने के लिए देवता और असुरों के बीच छीना झपटी जिसके चलते अमृत की कुछ बूंदे धरती पर गिर गई। देवता या त्रिदेव नहीं चाहते थे कि अमृतपान अुसर लोग करें क्योंकि यदि वे ऐसा करते तो वे भी अजर अमर हो जाते। इसलिए श्रीहरि विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया।
मोहिनी रूप धारण करके के बाद उन्होंने असुरों को रिझाया और कहा कि झगड़ते क्यों हो मैं तुम सबसे बराबर से अमृत को बांट दूंगी। असुर मोहिनी रूप धरे विष्णुजी के छल में आ गए। विष्णुजी ने अपनी माया से एक और अमृत कलश तैयार किया। जब वह देवताओं को अमृत बांटती थीं तो असली अमृत कलश होता था और जब असुरों को बांटती थीं तो नकली अमृत कलश होता था। यह भ्रम एक दैत्य ने जा लिया। वह उठकर देवताओं की पंक्ति में देवता बनकर बैठ गया। उसने जैसे ही अमृत चखा तो सूर्य एवं चंद्र देव ने तुरंत ही मोहिनी से कहा ये तो दैत्य है। यह सुनकर मोहिनी ने तुरंत ही विष्णु रूप में प्रकट होकर उस दैत्य का सिर काट दिया। जो कटा सिर था वह राहु और जो धड़ था वह केतु कहलाया।
इरावण और श्रीकृष्ण का विवाह : अर्जुन और नागकन्या उलूपी के मिलन से अर्जुन को एक वीरवान पुत्र मिला जिसका नाम इरावान रखा गया। इरावान सदा मातृकुल में रहा। वह नागलोक में ही माता उलूपी द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया गया और सब प्रकार से वहीं उसकी रक्षा की गयी थी। इरावान भी अपने पिता अर्जुन की भांति रूपवान, बलवान, गुणवान और सत्य पराक्रमी था।
कृष्ण को मोहिनी रूप : एक मान्यता के अनुसार अर्जुन के बेटे इरावन ने अपने पिता की जीत के लिए युद्ध में खुद की बलि दी थी। बलि देने से पहले उसकी अंतमि इच्छा थी कि वह मरने से पहले शादी कर ले। मगर इस शादी के लिए कोई भी लड़की तैयार नहीं थी क्योंकि शादी के तुरंत बाद उसके पति को मरना था। इस स्थिति में भगवान कृष्ण ने मोहिनी का रूप लिया और इरावन से न केवल शादी की बल्कि एक पत्नी की तरह उसे विदा करते हुए रोए भी।
परंतु महाभारत के भीष्म पर्व के 83वें अध्याय के अनुसार महाभारत के युद्ध के सातवें दिन अर्जुन और उलूपी के पुत्र इरावान का अवंती के राजकुमार विंद और अनुविंद से अत्यंत भयंकर युद्ध हुआ। इरावान ने दोनों भाइयों से एक साथ युद्ध करते हुए अपने पराक्रम से दोनों को पराजित कर दिया और फिर कौरव सेना का संहार आरंभ कर दिया।
भीष्म पर्व के 91वें अध्याय के अनुसार आठवें दिन जब सुबलपुत्र शकुनि और कृतवर्मा ने पांडवों की सेना पर आक्रमण किया, तब अनेक सुंदर घोड़े और बहुत बड़ी सेना द्वारा सब ओर से घिरे हुए शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन के बलवान पुत्र इरावान ने हर्ष में भरकर रणभूमि में कौरवों की सेना पर आक्रमण कर प्रत्युत्तर दिया। इरावान द्वारा किए गए इस अत्यंत भयानक युद्ध में कौरवों की घुड़सवार सेना नष्ट हो गयी और शकुनि के छहों पुत्रों का उसने वध कर दिया। यह देख दुर्योधन भयभीत हो उठा और वह भागा हुआ राक्षस ऋष्यश्रृंग के पुत्र अलम्बुष के पास गया, जो पूर्वकाल में किए गए बकासुर वध के कारण भीमसेन का शत्रु बन बैठा था। ऐसे में अल्बुष ने इरावस से युद्ध किया। दोनों का घोर मायावी युद्ध हुआ और अंत में अल्बुष ने इरावन का वध कर दिया।
इरावान को युद्धभूमि में मारा गया देख भीमसेन का पुत्र राक्षस घटोत्कच बड़े जोर से सिंहनाद करने लगा। उसने भीषण रूप धारण कर प्रज्वलित त्रिशूल हाथ में लेकर भांति-भांति के अस्त्र-शस्त्रों से संपन्न बड़े-बड़े राक्षसों के साथ आकर कौरव सेना का संहार आरंभ कर दिया। उसने दुर्योधन और द्रोणाचार्य से भीषण युद्ध किया। घटोत्कच और भीमसेन ने भयानक युद्ध किया और क्रुद्ध भीमसेन ने उसी दिन धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध कर इरावान की मृत्यु का प्रतिशोध ले लिया।