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Written By विकास सिंह

छत्तीसगढ़ बीजेपी में चाल, चरित्र और चेहरे का संकट!

छत्तीसगढ़ बीजेपी में चाल, चरित्र और चेहरे का संकट! - Chhatisgarh BJP
रायपुर। विधानसभा चुनाव में करारी हार झेलने वाली छत्तीसगढ़ बीजेपी इन दिनों संकट के दौर से गुजर रही है। 15 साल तक छत्तीसगढ़ में एकछत्र होकर राज करने वाली बीजेपी के सामने इस वक्त खुद अपनी ही पार्टी का नारा चाल चरित्र और चेहरे को लेकर संकट खड़ा होता दिखाई दे रहा है।
 
सबसे पहले बात चेहरे को लेकर : छत्तीसगढ़ में 15 साल सत्ता में रहते हुए पूरी पार्टी मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई। रमन सिंह पिछले पंद्रह सालों में छत्तीसगढ़ बीजेपी का एक मात्र चेहरा थे और बीजेपी ने विधानसभा चुनाव भी रमन सिंह के चेहरे पर ही लड़ा लेकिन चुनाव में जिस तरह बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा उसके बाद पार्टी के अंदर से ही रमन सिंह के विरोध में स्वर उभरने लगे।
 
इस बीच पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक के नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद पार्टी में नए नेतृत्व की तलाश होने लगी। लोकसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान से पहले पार्टी हाईकमान ने आदिवासी चेहरे और कांकेर से सांसद विक्रम उसेंडी को सूबे में पार्टी की कमान सौंप दी। पार्टी हाईकमान का ये फैसला पार्टी के ही लोगों के लिए उतना ही हैरान कर देने वाला था जितना विधानसभा चुनाव के बाद आए नतीजें। पार्टी के अंदर तुरंत विरोध के स्वर उभरने भी लगे।
 
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में शामिल होने वाले 16 पूर्व नौकरशाहों ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है,इन सभी रिटायर्ड अफसरों को विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सामने बड़ी धूमधाम से पार्टी में शामिल किया गया है,पार्टी से इस्तीफा देने वालों में रिटायर्ड डीजी रावीव श्रीवास्तव,रिटायर्ड आईएस अफरस आरसी सिन्हा सहित कई अफसर शामिल है।
 
बताया जा रहा है कि ये सभी ने नए प्रदेश की नियुक्ति से खुश नहीं थे, जिसके चलते सभी ने पार्टी को अलविदा कह दिया, वहीं दूसरी ओर पार्टी को वो दिग्गज नेता जिनको लोकसभा चुनाव के लिए टिकट का दावेदार माना जा रहा था वो पीछे हटने लगे। पहले जहां पूर्व मंत्री और बीजेपी के बड़े नेता बृजमोहन अग्रवाल ने लोकसभा चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था तो अब बीजेपी के दूसरे बड़े नेता और रमन कैबिनेट में ताकतवार मंत्री अजय चंद्राकर ने लोकसभा चुनाव लड़ने से पीछे हट गए। अजय चंद्राकर को महासमुंद से पार्टी का संभावित उम्मीदवार माना जा रहा था लेकिन उन्होंने अपने कदम वापस खींच लिए हैं।
 
इसके साथ ही रायपुर सांसद रमेश बैस के फिर से चुनाव लड़ने पर पार्टी के अंदर सवाल खड़े होने लगे.इसके बाद ये चर्चा जोरों से तेज हो गई कि क्या छत्तीसगढ़ बीजेपी में इन दिनों सब कुछ सामान्य चल रहा है। चुनाव से ठीक पहले पार्टी ने प्रदेश में आदिवासी कार्ड खेलते हुए सांसद विक्रम उसेंडी को प्रदेश बीजेपी की कमान दी थी, अब उस चेहरे पर ही संकट खड़ा हो रहा है।
 
चाल और चरित्र : कहते हैं कि चाल से ही चरित्र का निर्माण होता है। छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने 15 साल सत्ता में रहते हुए जिस तरह चाल यानि काम किया उस पर विधानसभा चुनाव के परिणाम ने सवाल उठा दिया है। छत्तीसगढ़ बीजेपी जिस रमन सरकार के मॉडल का ढिंढोरा पूरे देश में पीटती थी वो पार्टी विधानसभा चुनाव में पंद्रह सीट पर सिमट गई। वहीं विधानसभा चुनाव से पहले उठे सीडी कांड के विवाद ने सियासत में चाल चरित्र और चेहरे की सियासत करने वाली पार्टी पर कई गंभीर सवाल उठा दिए हैं।
 
छत्तीसगढ़ में जिस बीजेपी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 11 सीटों में से 10 सीटों पर कब्जा जमाया था, उसके समाने इस वक्त टिकट बंटवारा बड़ी चुनौती बन गया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में मोदी लहर में एकतरफा जीत हासिल करते हुए 11 में से 10 सीटों पर कब्जा कर लिया था लेकिन इस बार पार्टी में हालात एक दम उलट है। पिछली बार विपक्ष में रहने वाली कांग्रेस अब ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में है और बीजेपी सूबे में अपने सबसे खराब समय से गुजर रही है। ऐसे हालात में पार्टी के लिए टिकट बंटवारा एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।
 
छत्तीसगढ़ की राजनीति के जानकर बताते है कि इस बार बीजेपी को अगर सूबे में अच्छा प्रदर्शन करना है तो कई सीटिंग सांसदों के टिकट काटने पड़ेगें। पार्टी इस बार नए चेहरों को मौका दे सकती है। पार्टी ने चुनाव से पहले जो सर्वे कराया है उसमें कई सांसदों की रिपोर्ट निगेटिव आई है।

वहीं सूबे में बड़े नेताओं के बीच गुटबाजी शुचिता की राजनीति करने वाली पार्टी के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी करती है। जिसका खामियाजा पार्टी को विधानसभा चुनाव में भी उठाना पड़ा। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी को जिस दुर्ग सीट पर हार का सामना करना पड़ा था उसमें पार्टी के भीतर बड़े नेताओं में आपसी खींचतान को मुख्य वजह माना गया था। इस बार भी अगर पार्टी के भीतर गुटबाजी पर काबू नहीं पाया गया तो लोकसभा चुनाव के नतीजे भी विधानसभा चुनाव की तरह होंगे।