शनै: शनै: कड़ी – 14
दिवाली पर प्रदूषण के निरंतर बढ़ते स्तर का स्वयं संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च माननीय ने पटाखों पर निषेधाज्ञा लागू कर दिवाली सूनी कर दी थी। हालांकि प्रदूषण इन निर्णयों की अवमानना करते हुए सुरसा के मुख की भांति नित प्रति नवीन कीर्तिमान रचने में व्यस्त रहा।
माननीय की कृपा रही कि नववर्ष पर दुकानदारों ने बचे-बचाए पटाखे बेच-बेचकर दिवाली पर हुई हानि की कुछ भरपाई कर ही ली और पटाखों ने भी मध्यरात्रि जमकर पीपीएम 2.5 उड़ाया। फिर व्हॉट्स एपियों में दुविधा थी कि लोहड़ी पर फिर से प्रदूषण के अथवा संक्रांति पर निरीह पक्षियों के पक्ष में माननीय कोई निर्णय न दे दे। पर श्रीमान, लोहड़ी भी खूब मनी, लकड़ियाँ भी जलीं और अगले दिन पतंगें भी बरसाती कीट-पतंगों की भांति पूरे दिन आकाश में भिनभिनाती रहीं। मजाल है, अगले दिन किसी समाचार पत्र में या प्राइम टाइम टीवी पर प्रदूषण का अथवा पक्षियों के हताहत होने का कोई भी समाचार आया हो। पर ऐसा हुआ कैसे? और क्यों?
जब सूर्यदेव धनु राशि छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करते हुए उत्तरायन गति आरंभ कर रहे थे और घर-घर में आमजन तिल के लड्डू, तिल की बर्फी, तिल की गज़क बनाने-खाने में व्यस्त थे, तब सुरम्य ल्यूटन की दिल्ली में तिल का ताड़ बनाने का उपक्रम रचा जा रहा था। काव्यात्मक वातावरण था। सौंधी-सौंधी धूप खिली थी, गुनगुनी ठंड थी, पीपीएम 2.5 का स्तर भी 'हानिकारक' से गिरकर 'गंभीर' पर अटक गया था। निश्छल बादल नीले आकाश में बेफिक्री के छल्ले बना रहे थे। मद्धम पवन पूर्व दिशा की ओर रुक-रुककर बह रही थी। धवल राजसी भवन की पृष्ठभूमि में हरित घास पर ओस की बूंदें पैरों से कुचले जाने की राह देख रही थीं।
ऐसे दृश्य प्राय: ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में होते थे, जब अति धनाढ्य अधेड़ उम्र के सहनायक कुर्सी पर बैठकर समाचार पत्र पढ़ रहे होते। तभी रामू काका लंबे तार से बंधा फोन लेकर दौड़े आते। दूसरी ओर से एक गंभीर स्वर सुनाई देता और फिर कहानी की दिशा एवं गति दोनों ही बदल जाती। बस ऐसा ही कुछ यहाँ होने को था। उक्त वर्णित लॉन में चार कुर्सियाँ सजा दी गई थीं, सामने मेज़ पर माइकों के ढेर लगे हुए थे।
तिल के ताड़ की सुगंध सूंघते पत्रकारों एवं सहकर्मी अभिभाषकों के झुंड ने मेज़ के इर्द-गिर्द घेरा बना लिया था, जैसे मृत पशु के ऊपर गिद्ध मंडराते हैं। ताड़ से निकलने वाली ताड़ी के रसपान के स्मरण मात्र से ही इस सभा में उपस्थित हर सज्जन के मुख में जिह्वा लपलपाने लगी और लार बाढ़ का रूप लेकर होंठों के बांध तोड़ती हुई बाहर टपकने लगी। बस अब उन चार अधेड़ उम्र के सहनायकों की प्रतीक्षा थी, जो एक नया समाचार गढ़ने वाले थे।
फिर जो हुआ, वह लोकतांत्रिक परिकल्पना से परे था। न इसकी आशा थी और न ही आशंका। न पहले कभी हुआ और ईश्वर न करे भविष्य में कभी हो। इस सर्वोच्च संस्थान के वरिष्ठ सम्माननीय अपने ही वरिष्ठतम सहकर्मी की कार्यप्रणाली से रुष्ट थे। यहाँ तक तो ठीक, पर इस असहमति को सार्वजनिक करने के पीछे क्या उद्देश्य था, यह कोई भी टीवी चैनल गत एक सप्ताह से नहीं बूझ पा रहा है। अरे भाई वह रोस्टर का मास्टर है, रिंग मास्टर थोड़े ही है। अगर आज नहीं माना तो कल मान जाएगा, खा तो नहीं जाएगा। और यदि नहीं भी माना तो क्या? अगला नंबर आपका है, जब आप पदासीन हों तो यह परिपाटी बदल देना। यूं बखेड़ा खड़ा करने से क्या लाभ? लोकतंत्र में भी स्वतंत्रता असीमित नहीं है, उसकी अपनी मर्यादाएं और सीमाएं हैं।
आप चाहते हो कि जनता निर्धारित करे कि संविधान प्रदत्त सर्वोच्च संस्थान के शीर्ष पद पर आसीन गणमान्य का भविष्य जनता तय करे। अरे, जनता कचरे को सही डिब्बे में डाल दे और अपनी लेन में गाड़ी चला ले तो यही बहुत है। गूगल कर-करके भला कोई चिकित्सक बन सकता है? आप ही इस मर्ज का इलाज कर सकते हैं, हमसे उम्मीद न लगाएँ। इन प्रेस वार्ताओं से समाचार पत्र की बिक्री और टीआरपी ही बदल सकती है, समस्याएँ या हालात नहीं। छोटा मुंह बड़ी बात है- घर की बात है, घर में ही सुलझा लें, यूं अनर्गल तिल का ताड़ ना बनाएँ।
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(लेखक मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं।)