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Written By ND

इजाडोरा डंकन

इजाडोरा डंकन -
इजाडोरा डंकन (जन्म : 1878, मृत्य : 1927) बीसवीं सदी की महान प्रतिभा थी, उन्होंने आधुनिक योरपीय नृत्य की संरचना की। उन्होंने नृत्य-कला को साहित्य और जीवन से जोड़कर अप्रतिम ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया था। वे ग्रीक साहित्य और नाटक की गंभीर अध्येता थीं। उनकी खूबसूरती अपने समय से ही एक दंतकथा बन गई थी। उन्होंने जहां कलाकार के गहरे संघर्षों को जिया, वहीं एक स्त्री के मुक्त जीवन की चाह को भी अपने जीवन में उतारा। उन्होंने जीवन और प्रेम को अपने उसूलों से जिया। एक दुर्घटना में मृत्यु होने के कुछ ही पहले उन्होंने अपनी आत्मकथा लिख कर पूरी की थी, जो उनकी मृत्यु के बाद छपी। यह दुनिया की बेहतरीन आत्मकथाओं में से एक है। सत्य, सौंदर्य, प्रेम और कला इस आत्मकथा के हर अक्षर में जैसे स्वरूपित हो उठे हैं। इजाडोरा डंकन की इस बहुचर्चित और विवादास्पद आत्मकथा 'माय लाइफ' के सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद के अंश यहां प्रस्तुत हैं।

शोक और दुख और आंसू। लंबी प्रतीक्षा और पीड़ा आनंद के उस महान क्षण की भूमिका थे। बेशक अगर कोई ईश्वर है तो वह महान नाट्य-निर्देशक है।

बेलेव्यू में जिंदगी हर सुबह खुशियों के विस्फोट से शुरू होती। कॉरीडोर में एक स्वर में गाते बच्चों की आवाजें और दौड़ते-भागते कदमों का शोर गूंजता। जब मैं उतर कर नीचे आती तो वे नृत्य-कक्ष में पहुंच चुके होते। मुझे देखते ही वे चिल्लाते, 'गुडमॉर्निग इजाडोरा!' इस माहौल में भला कौन विषादग्रस्त रह सकता था? फिर भी मैं अकसर जब उनकी ओर देखती तो दो खोए हुए नन्हे चेहरे ढूंढती, फिर अपने कमरे में जाकर अकेले में रोती। पर हर दिन उन्हें सिखाने का साहस फिर से जुटा लेती। उनके नृत्य का प्यार भरा सौंदर्य मुझे जीनेकी हिम्मत देता।

पहली सदी में रोम की पहाड़ियों पर एक स्कूल था, जिसे लोग 'सेमिनरी ऑफ डांसिंग प्रीस्ट्स ऑफ रोम' के नाम से जानते थे। इस स्कूल के विद्यार्थी अतिकुलीन परिवारों से चुने जाते थे। सिर्फ इतना ही नहीं, उनकी सदियों पुरानी वंशावली देखकर यह पक्का किया जाता था कि उनकी वंश-परंपरा बेदाग है। हालांकि उन्हें समस्त कलाओं और दर्शनों की शिक्षा दी जाती थी, पर नृत्य उनकी प्रधान अभिव्यक्ति था। वे साल के चार मौसमों- वसंत, ग्रीष्म, पतझड़ और सर्दियों में नाट्यशाला में नृत्य प्रदर्शित करते। इन अवसरों पर वे पहाड़ियों से उतरकर रोम चलेआते, जहां वे विभिन्ना समारोहों में भाग लेते और चुनिंदा दर्शकों के सामने नृत्य प्रस्तुत करते। ये बच्चे इतने आनंद और आत्मीयता के साथ नृत्य करते कि उनका नृत्य बीमार आत्माओं के लिए औषधि का काम करता। जब मैंने स्कूल की स्थापना की तो मैंने ऐसी ही अभिव्यक्ति का सपना देखा था। मुझे विश्वास था कि पेरिस के पास स्थित बेलेव्यू अपने शहर और वहांं के कलाकारों के लिए भी वैसा ही महत्व रखेगा जैसा रोम के लिए 'डांसिंग प्रीस्ट्स' का यह स्कूल था।

कलाकारों का एक दल हर सप्ताह अपने चित्रकारी के सामान के साथ बेलेव्यू आता। स्कूल उनकी प्रेरणा का एक केंद्र बन गया था। सैकड़ों रेखाचित्रों और नृत्य आकृतियों को यहां से प्रेरणा मिली। मेरा सपना था कि इस स्कूल के जरिए कलाकारों और उनके मॉडलों केबीच संबंधों का एक नया आदर्श सामने आए। बीथोवेन और सीजर फ्रेंक के संगीत पर थिरकते या शेक्सपियर का काव्य-वाचन करते मेरे शिष्यों की चलती-फिरती आकृतियां किसी चित्रकार के स्टूडियो में बैठे मूक और लाचार मॉडल की छवि से कितनी अलग और जीवंत थीं!

इन आशाओं की अगली कड़ी थी- एल का बेलेव्यू की पहाड़ी पर थिएटर निर्माण का सपना। संभावनाओं की कल्पना, जो इतने दुखद ढंग से एक बार पहले स्थगित हो गई थी। इसकी कल्पना एक उत्सव थिएटर के रूप में की गई थी, जहां खास उत्सवों पर पेरिसवासियों का जमघट हो। वहां सिंफोनिक वाद्यवृंदों की व्यवस्था की भी योजना थी।

एल ने एक बार फिर वास्तुशिल्पी लुई स्यू को बुलाया। थिएटर से हटा दिए गए मॉडलों को पुस्तकालय में स्थापित कर दिया गया। इस थिएटर के जरिए संगीत, नाट्य और नृत्य की कलाओं को उनके शुद्धतम रूप में एक साथ लाने के मेरे स्वप्न के पूरा होने की उम्मीद जगी। यहां मॉनेत सली, इलीनोरा ड्यूस या सूजान देस्त्रे इडिपस या एंटीगनी या इलेक्ट्रा मंचित करते और मेरी नृत्यशाला के शिष्य कोरस-नृत्य करते। मैंने बीथोवेन की जन्म सदी के अवसर पर उसकी नौवीं सिंफनी पर अपने एक हजार शिष्यों का नृत्य करवाने का विचार किया।

मैंने उस दिन की कल्पना की जब बच्चे पैन एथेन की तरह पहाड़ी से उतरेंगे और नदी पार करके एक पवित्र नर्तक-दल के रूप में पैंथान पहुंचकर किसी महापुरुष की स्मृति में एक शानदार पर्व मनाएंगे। मैं रोजाना इन शिष्यों को घंटों सिखाती। जब थकान से मेरे लिए खड़े रहना भी मुश्किल होने लगता तो मैं गद्दे पर बैठ जाती और अपने हाथों और बांहों की मुद्राओं से उन्हें सिखाती रहती। सिखाने की मेरी शक्ति सचमुच अलौकिक प्रतीत होती। मैं सिर्फ अपने हाथ का एक संकेत करती और वे नृत्य करने लगते। यह ऐसा था जैसे मैंने उन्हें नृत्य करना न सिखाया हो, बल्कि वह पथ खोल दिया हो जिसके जरिए नृत्य की आत्मा खुद-ब-खुद उनके भीतर प्रवेश कर जाती हो।

हमने यूरिपिड के 'बके' के प्रदर्शन की योजना बनाई। मेरे भाई को इसमें डायोनिसस की भूमिका करनी थी और उसे वह समूची याद थी। वह हर रात इसे हमें पढ़कर सुनाता या शेक्सपियर के नाटकों या बॉयरन के मैनफ्रेड का पाठ करता। द' अनंजियो भी स्कूल को लेकरबहुत उत्साहित था और अकसर दोपहर या रात के खाने के वक्त हमारे साथ होता।

मेरे पहले स्कूल की छोटे समूह की शिष्याएं अब जवान हो गई थीं और छोटी शिष्याओं को सिखाने में मेरी मदद करती थीं। उनमें आया जमीन-आसमान का फर्क और जिस सूझबूझ और आत्मविश्वास से वे मेरी नृत्य-परंपरा को आगे बढ़ा रही थीं, वह मेरे लिए बहुत हृदयस्पर्शी था।मगर 1914 के उस जुलाई माह में पूरी पृथ्वी पर एक अजीब आशंका का माहौल था। मैंने इसे महसूस किया। बच्चों ने भी महसूस किया। जब कभी हम छत से नीचे पेरिस शहर को निहारते, तो बच्चे अक्सर चुप और सहमे रहते। आकाश में काले बादलों का समूह मंडराता दिखता। जमीनपर एक सन्नाटा-सा पसरा दिखता।

मुझे एक अनुभूति-सी हुई कि मेरे पेट के बच्चे की हरकतें कुछ अशक्त हैं और पहले की सी प्रबलता उसमें नहीं है। दुःख और संताप को एक नए जीवन में बदल देने की मेरी कोशिशों ने मुझे बहुत थका दिया था। जुलाई के मध्य में एल ने मश्विरादिया कि स्कूल के बच्चों को छुट्टियां बिताने उसके घर डेवनशायर भेज दिया जाए। तो, एक सुबह वे सब-के-सब मुझे विदा कह कर रवाना हो गए। उन्हें अगस्त समुद्र के किराने बिताकर सितंबर में लौटना था। उन सबके चले जाने के बाद घर बहुत खाली दिखाने लगा और मेरे बहुतसंघर्ष के बावजूद मैं बहुत थक गई थी। देर-देर तक छत पर बैठी मैं पेरिस को देखती रहती और और मुझे पूरब से किसी खतरे के मंडराने की आशंका भी महसूस होती। फिर एक सुबह काल्मेत की हत्या की भयानक खबर आई।

सारा पेरिस अचानक आशंकाओं और भय से घिर गया। यह एक दुखद घटना थी- और ज्यादा दुखद घटनाओं का आरंभ थी। काल्मेत मेरी कला और मेरे स्कूल का प्रशंसक था। इस खबर से मुझे बहुत धक्का पहुंचा और दुख हुआ। मैं बेचैनी और भय महसूस कर रही थी। बच्चे जा चुकेथे। बेलेव्यू इतना विराट और खामोश प्रतीत होता और विशाल नृत्य-कक्ष नितांत अवसाद में डूबा हुआ, मैं यह सोच कर अपने भय को शांत करने की कोशिश करती कि जल्दी ही बच्चा जन्म लेगा, शिष्य इंग्लैंड से लौट आएंगे और बेलेव्यू फिर से गुलजार हो उठेगा। फिर भी समय जैसे ठहर गया था।

एक अगस्त को मुझे प्रसव का पहला दर्द हुआ। मेरी खिड़की के नीचे सैन्य-भरती की खबरें जोर-शोर से सुनाई जा रही थीं। उस दिन काफी गरमी थी और खिड़कियां खुली हुई थीं। मेरी कराहों, मेरी पीड़ा, मेरी प्रताड़ना में गूंजते ड्रमों और साइरन की आवाजें भी शामिल हो गई थीं।

मेरी मित्र मेरी ने कमरे में पालना रख दिया था, जिसके चारों ओर मखमली पर्दे थे। मेरी आंंखें पालने पर टिक गईं। मैं पूरी तरह मान चुकी थी कि द्रेर्द्रे और पेट्रिक मेरे पास वापस आ रहे हैं। ड्रमों की गूंज लगातार सुनाई पड़ती। सैन्य-भरती... युद्ध... युद्ध... 'क्या युद्ध शुरू हो गया?' मैं अविश्वास से पूछती। मगर मेरे बच्चे को जन्मना ही होगा। संसार में आगमन उसके लिए कितनी मुश्किलों से भरा था। मेरे मित्र डॉ. बॉसन को सेना से बुलावा आने के कारण जाना पड़ा था। उनकी जगह एक अजीब डॉक्टर आ गया।

वह यही कहता रहता, 'हिम्मत रखो'। भयानक पीड़ा से बिलबिलाते दयनीय प्राणी से हिम्मत रखने को क्यों कहा जा रहा था? बेहतर होता यदि वह कहता, 'भूल जाओ कि तुम स्त्री हो, तुम्हें गौरव से यह पीड़ा सहनी है' या बेहतर होता कि वह थोड़ा मानवीय होकर मुझे शैंपेन देता। पर उस डॉक्टर का अपना तरीका था और वह था, 'हिम्मत रखो'। नर्स परेशान थी और 'युद्ध चल रहा है। मैडम युद्ध चल रहा है', ही कहती रहती थी। मैंने सोचा, 'मुझे बेटा होगा। पर वह युद्ध में जा सकने के लिए बहुत छोटा होगा'। आखिरकार बच्चे की रुलाई गूंजी- वह रोया- वह जिया। साल भर मैं जिस भयानकआशंका और डर में डूबी रही थी- हर्ष के एक रेले ने उन सबको खत्म कर दिया। शोक और दुःख और आंसू। लंबी प्रतीक्षा और पीड़ा आनंद के उस महान क्षण की भूमिका थे। बेशक अगर कोई ईश्वर है तो वह महान नाट्य-निर्देशक है। जब मेरी बांहों में वह सुंदर-सा बच्चारखा गया तो शोक और भय की वे लंबी घड़ियां आनंद में रूपांतरित हो गईं।

मगर सेना के ड्रम लगातार बज रहे थे। 'सैन्य-भरती... युद्ध... युद्ध...।'

'क्या वाकई युद्ध छिड़ गया है?' मुझे हैरत थी। 'मुझे क्या परवाह? मेरा बच्चा यहां मेरी बांहों में सुरक्षित है। उन्हें लड़ने दो। मुझे क्या पड़ी है?' इंसान की खुशी कितनी आत्मसीमित होती है। मेरी खिड़की और दरवाजे के बाहर गहमागहमी मची थी। स्त्रियों का रोना, पुकारें और सैन्य-भरती पर चर्चाएं चल रही थीं, मगर मैं इस व्यापक नाश से विमुख अपने बेटे को गोद में लिए बेइंतहा खुश थी।

अपने खुद के बच्चे को फिर से अपनी बांंहों में पा मैं अलौकिक दुनिया में जी रही थी। शाम हुई। बच्चे के जन्म की बधाइयां देने आए लोगों से मेरा कमरा भर गया। उन्होंने कहा, 'तुम्हारी खुशियां लौट आई हैं।' फिर एक-एक करके वे चले गए। मैं और बच्चा अकेले रह गए। मैं फुसफुसाई, 'तुम कौन हो, द्रेर्द्रे या पेट्रिक? तुम मेरे पास लौट आए हो'। अचानक वह नन्हा जीव मुझे ताकने लगा और उसका मुंह खुल गया, जैसे सांस न ले पा रहा हो। फिर उसके ठंडे होंठों से एक लंबी सीटी की आवाज-सी निकली। मैंने नर्स को आवाज दी। वह आई, देखा और तेजी से बच्चे को अपनी बांहों में उठा कर चली गई। दूसरे कमरे से मुझे ऑक्सीजन और गर्म पानी लाने की आवाजें सुनाई दे रही थीं।

एक घंटे की यातना भरी प्रतीक्षा के बाद ऑगस्टिन ने भीतर आकर कहा- 'पुअर इजाडोरा- तुम्हारा बच्चा...तुम्हारा बच्चा नहीं रहा...'
उस क्षण मुझे लगा धरती पर मुझे जो भी पीड़ा झेलनी थी, यह उसका चरम क्षण था, इस बच्चे की मृत्यु के साथ जैसे वे दोनों दोबारा मर गए थे। पहली त्रासदी जैसे और ज्यादा गहराई के साथ फिर से घट गई हो।

मेरी दोस्त मेरी आई और रोती हुई पालना उठाकर ले गई। दूसरे कमरे से मुझे हथौड़े से बक्सा ठोंकने की आवाजें आ रही थीं, जो मेरे प्यारे बच्चे का एकमात्र पालना बन गया था। हथौड़े की ये चोटें मेरे दिल पर पड़ रही थीं, प्रलाप के आखिरी वाद्य की तरह। मैं वहां उधड़ी हुई, असहाय-सी पड़ी थी और आंसुओं, दूध और खून का एक तिरहा फुहारा मेरे भीतर से बहता चला जा रहा था।

मेरी एक मित्र मुझसे मिलने आई और बोली, 'तुम्हारा व्यक्तिगत दुःख क्या मानी रखता है? पहले ही युद्ध ने सैकड़ों जानें ले ली हैं, मोर्चे से घायल और मृतक लगातार आ रहे हैं?' मुझे बड़ा स्वाभाविक लगा बेलेव्यू को एक अस्पताल के लिए समर्पित कर देना। युद्ध के उन दिनोंमें हर कोई बहुत उत्साहित महसूस करता था। सर न झुकाने का वह भव्य संदेश, वह अद्भुत जोश जो मीलों और मीलों तक देश को तबाह कर देने वाला था, जाने कितना सही या गलत था? आज के इन क्षणों में यह व्यर्थ लग रहा है, पर हम कैसे कोई फैसला कर सकते हैं? औरफिर सबसे ऊपर स्विट्जरलैंड में वह रोम्यां रोलां बैठा है, जिसके पीले, चिंतनशील चेहरे पर कुछ के लिए श्राप है तो कुछ के लिए वरदान।

जो भी हो, उन दिनों तो हम सभी आग और चिंगारी बने हुए थे। और तो और, कलाकार भी कहते पाए जाते थे, 'कला क्या है? यहां लड़के अपनी जानें दे रहे हैं, सैनिक अपना सब कुछ न्योछावर कर रहे हैं- कला क्या है?' अगर उस समय मैं अपनी सामान्य बुद्धि से काम ले पाती तो कहती, 'कला जिंदगी से बड़ी है,' और अपने स्टूडियो में कला में ही लिप्त रहती। पर मैं भी तो बाकी दुनिया में ही शामिल हो गई थी, 'ये सभी बिस्तर ले लो, यह पूरा घर ले लो, जो कला के लिए बनाया गया था, और घायलों के इलाज के लिए एक अस्पताल में बदल दो।' एक दिन दो स्ट्रैचर-वाहक मेरे कमरे में आए और पूछने लगे कि क्या मैं अपना अस्पताल देखना चाहूंगी।

क्योंकि मैं चल नहीं सकती थी, इसलिए वे मुझे स्ट्रैचर पर लिटाकर पूरे अस्पताल में घुमाते रहे। मैंने देखा कि कमरों से रंग-बिरंगे परदे और नृत्य करते देवताओं और परियों के चित्र हटा दिए गए हैं, और सुनहरी क्रॉस पर ईसा की सस्ती-सी आकृतियां दीवारों पर टांग दी गई हैं, जिन्हें युद्ध के दौरान कैथलिक दुकानों ने हजारों की तादाद में वितरित किया था। मुझे लगा कि क्या घायल सैनिकों के लिए पहले वाला परिवेश ज्यादा आशाजनक नहीं होता? क्या पीड़ा के बीच उदासी का माहौल कायम करना जरूरी है?

मेरे शानदार नृत्य-कक्ष के भी नीले परदे गायब हो चुके थे और वहां बिस्तरों की कतारें-ही-कतारें लगी हुई थीं, घायल सैनिकों के आने की प्रतीक्षा करती हुई। मेरी लाइब्रेरी, जहां शेल्फों पर एक-से-एक कविगण विराजमान थे, अब एक ऑपरेशन-थिएटर में बदल दी गई थी। अपनी उस कमजोर हालत में मैं और भी ज्यादा मायूस महसूस करने लगी। मुझे लगा कि डायनिसस पूरी तरह पराजित हो गया है। हर तरफ सलीब पर टंगे क्राइस्ट का राज है।

इसके कुछ ही दिन बाद मुझे स्ट्रैचर-वाहकों के भारी बूटों की आवाजें सुनाई देने लगीं। घायल सैनिक आने लगे थे।

बेलेव्यू! मेरा एक्रोपोलिस, जो प्रेरणा का एक फव्वारा और दर्शन, काव्य और महान संगीत से प्रेरित ऊंचे जीवन की अकादमी बनने वाला था। पर अब कला और आनंद अदृश्य हो गए थे। अब इन दीवारों के भीतर मांंओं और बच्चों की चीत्कारें सुनाई देती थीं, युद्ध से डरे हुए,सहमे हुए। कला का मंदिर शहादत की मजार बन गया था, मृत्यु और रिसते घावों की खत्म न हो रही एक श्रृंखला लिए। अलौकिक संगीत के मेरे सपने पीड़ा के प्रलाप में बदल गए थे।

बर्नार्ड शॉ का कहना है कि जब तक मनुष्य जानवरों को यातना देकर उन्हें मारता रहेगा और उनका मांस खाता रहेगा, युद्ध होते रहेंगे। मुझे लगता है कि सभी समझदार, विचारवान लोग यही विचार रखते होंगे। मेरे स्कूल के सभी बच्चे शाकाहारी थे और सब्जियों और फलों की खुराक पर खूब तंदुरुस्त और खूबसूरत दिखते थे। युद्ध के दौरान कई बार जब मैं घायलों की कराहें सुनती तो मुझे कसाईखानों में जानवरों की कराहें याद आ जातीं। मुझे लगता कि जैसे हम इन निरीह, असहाय जानवरों को सताते हैं, वैसे ही देवतागण हमें सताते हैं। इस भयानक चीज 'युद्ध' से आखिर कौन, प्यार करता है? शायद मांस खाने वाले, जो हत्या करने के बाद हत्याएं करने की एक जरूरत-सी महसूस करने लगते हैं- पक्षियों को मारो, पशुओं को मारो- डरे-सहमे, नाजुक हिरन को मारो- लोमड़ों का शिकार करो।

अपने खून से सने लिबास से कसाई खून-खराबे और हत्या का संदेश देता है। और क्यों न दे? एक नन्हे बकरे का गला काटने और एक भाई या बहन का गला काटने में आखिर कितनी दूरी होती? जब तक हम खुद हत्या किए गए जानवरों की जिंदा कब्रगाहें हैं, हम कैसे इस धरतीपर किसी आदर्श स्थिति की कामना कर सकते हैं?

अनुवाद : युगांक धीर, प्रकाशक : संवाद प्रकाशन, मेरठ
मेरे उन्‍माद ने मुझमें एक ऐसी मदहोश-सी करने वाली ऊर्जा भर दी कि मैं अपने आपे से बाहर निकल आया। मैंने एक अद्भुत महत्‍वाकांक्षा का अहसास किया, इतनी विराट कि खुद मुझको हैरानी हुई- कि घर छोड़ दूँ और बाहर गलियों में निकल भागूँ।

‘फ्लॉबेयर को देखो, सारी जिंदगी वह उसी मकान में रहा, जहाँ उसकी माँ रहती थी।’ अपने नये पत्‍तों को गौर से जाँचते हुए, थोड़ी दया व थोड़ी कातरता से अम्‍मी ने बात आगे बढ़ाई। ‘लेकिन मैं नहीं चाहती कि तुम अपना सारा जीवन इसी मकान में मेरे साथ पड़े-पड़े बिताओ। वह फ्राँस था। जब लोग कहते हैं कि देखो, महान कलाकार जा रहा है तो वहाँ पानी भी बहना बंद कर देता है। जबकि यहाँ कोई पेंटर स्‍कूल छोड़कर अगर अपनी माँ की संगत में जिंदगी काटे तो या तो वह दारूबाज हो जायेगा या फिर उसका अंत पागलखाने में होगा।’ और फिर एक नया तुरुप: ‘तुम्‍हारा अगर एक पेशा होता, तब यकीन मानो, तुम्‍हें अपनी पेंटिंग से सचमुच खुशी मिलती।’

‘अगर तुम आर्किटेक्‍ट न बने या कमाई का कोई और ज़रिया नहीं खोजा तो उन कंगाल, विक्षिप्‍त तुर्की कलाकारों जैसे हो जाओगे, जिनके पास अमीरों व ताक़तमंदों की दया पर आश्रित होने से अलग और कोई चारा नहीं बचता- भेजे में घुसती है बात? ज़रूर घुसेगी। इस मुल्‍क में महज़ पेंटिंग के बूते किसी का गुज़ारा नहीं चल सकता। तुम दयनीय हो जाओगे, लोग नीची नज़रों से देखेंगे। ग्रंथियाँ, बेचैनी और कुढ़न मरने के दिन तक तुम्‍हारा पीछा न छोड़ेंगी। तुम्‍हारे जैसा ज़हीन, इतना प्‍यारा और जिस तरह जिंदगी से तुम लबालब भरे रहते हो- वाक़ई तुम इस तरह की चीज़ करना चाहते हो?’

जिन लोगों को तुमने अभी-अभी चिडी दिमाग कहकर खारिज़ किया, एक दिन उन्‍हीं लोगों को तुम्‍हें अपनी तस्‍वीरें बेचनी होंगी। ऐसे गरीब मुल्‍क में, जहाँ हर तरफ कमज़ोर, हारे हुए और अधपढ़े लोग भरे पड़े हैं, वहाँ लोग आपको कुचलें नहीं और आपको ऊँचा जीवन मिले, आप इज्‍जत से अपना सिर उठाकर चल सकें, इसके लिए आपको अमीर बनना पड़ेगा। इसलिए आर्किटेक्‍चर मत छोड़ो, मेरे बेटे। ऐसा करके बाद में बहुत दुख उठाओगे। ले’काबुर्जिये को ही देखो। वह पेंटर होना चाहता था, लेकिन उसने आर्किटेक्‍चर की पढाई की।’

बेयोलू की सड़कें, उनके अँधेरे कोने, भाग निकलने की मेरी ख्‍वाहिश, मेरा अपराध- सब जलती-बुझती नियॉन बत्तियों की तरह मेरे माथे में झिलमिला रहे थे। मैं जानता था, आज की रात अम्‍मी और मेरे दरमियान झगड़ा नहीं होगा। कुछ मिनटों में मैं दरवाज़ा खोलूँगा और शहर की सुकूनदेह सड़कों पर भाग निकलूँगा। आधी रात तक भटकने के बाद घर लौटूँगा और अपनी मेज़ के आगे बैठूँगा और कागज़ पर उस पूरे गणित को कैद करूँगा।

‘मैं कलाकार नहीं होना चाहता,’ मैंने कहा। ‘मैं एक लेखक बनूँगा।’


(साहित्‍य के लिए नोबल पुरस्‍कार प्राप्‍त करने वाले तुर्की के लेखक ओरहान पामुक की संस्‍मरणात्‍मक आत्‍मकथा ‘इस्‍तांबुल’ के आखिरी अध्‍याय से साभार)