8वीं सदी में ईरान से भागकर भारत पहुंचा पारसी समुदाय अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। क्या सरकार की पहल पारसी समुदाय में जान फूंक सकेगी।
आठवीं शताब्दी में फारस में सख्ती से इस्लामिक कानून लागू किया जाने लगा। बड़े स्तर पर लोगों को सजाएं दी जाने लगीं। दंड से बचने के लिए पारसी समुदाय के लोग पूरब की तरफ भागे और गुजरात पहुंचे। वहां स्थानीय लोगों के साथ वह आसानी से घुल मिल गए। इसके बाद पारसी समुदाय का विस्तार हुआ।
कई लोग मुंबई पहुंचे और कारोबार करने लगे। वक्त के साथ कारोबार फलता फूलता गया। टाटा, वाडिया और गोदरेज जैसे कारोबारी घराने पारसी समुदाय से निकले। कारोबारी सफलता और एक अलग पहचान के बावजूद पारसियों की दूसरे समुदायों के साथ सामाजिक समरसता भी बनी रही। लेकिन सपन्नता की भी एक कीमत होती है।
1941 में करीब डेढ़ लाख की आबादी वाला पारसी समुदाय 2011 आते आते 57,264 पर सिमट गया। इस बीच करीब डेढ़ दशक में पारसी समुदाय में सिर्फ 200 बच्चों का जन्म हुआ। लुप्त होने का खतरा झेल रहे इस समुदाय को बचाने के लिए भारत सरकार को भी पहल करनी पड़ी। चार साल पहले अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और पारजोर फाउंडेशन ने "जियो पारसी" नाम का अभियान शुरू किया।
मुंबई में इस पहल के अच्छे नतीजे दिखायी दे रहे हैं। अभियान शुरू होने के बाद से अब तक चार साल के भीतर पारसी समुदाय में 101वें बच्चे का जन्म हुआ है। पारसी समुदाय के फरहाद मिस्ट भी 2017 में पिता बने। मिस्ट कहते हैं, "यह गजब की अनुभूति है। हम सात महीने के बच्चे के माता पिता है और योजना ने हमारी काफी मदद की। शुरू में पंजीकरण को लेकर उदासीन थे।"
असल में पारसी अपने ही समुदाय में शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाह करने पर उन्हें अपने ही समुदाय का दबाव झेलना पड़ता था। आज भी दूसरे धर्म में शादी करने वाले को पारसी नहीं माना जाता है। इन दबावों के चलते 1970 और 1980 के दशक में कई युवाओं ने शादी नहीं की। इसका असर बाद में आबादी पर साफ दिखायी पड़ा।
लेकिन अब जियो पारसी स्कीम के तहत पारसी समुदाय को कुछ अस्पतालों में मुफ्त प्रसव संबंधी इलाज दिया जा रहा है। मेडिकल टेस्ट और अस्पताल का खर्चा स्कीम के तहत सरकार उठाती है। अभियान के तहत बेबाक विज्ञापन अभियान भी छेड़ा गया है। एक विज्ञापन कहता है, "जिम्मेदार बनें- आज रात कंडोम का इस्तेमाल न करें।"
पारसी समुदाय की प्रभावशाली सदस्य नरगिस मिस्त्री कहती हैं, "जब समुदाय सिकुड़ रहा हो तो यह पहल अच्छी है। लेकिन यह स्कीम अंतर्जातीय विवाह वाले जोड़ों के लिए नहीं है और यह दुर्भाग्यपूर्ण है। एक सामाजिक जिद को धार्मिक आधार में नहीं बदला जा सकता।"
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर माजा दारुवाला कहती हैं, "हम अपने मूल देश से भगाए गए लोग थे जो यहां आए और घुल मिल गए। अपने अलग तौर तरीकों के बावजूद पारसियों ने समाज के लिए बड़ा योगदान दिया है। मुझे उम्मीद है कि यह स्कीम अच्छे से काम करेगी।"
जियो पारसी की सफलता के बाद अब "जॉय ऑफ लाइफ" अभियान की तैयारी की जा रही है। इस स्कीम के तहत लोगों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। बड़े परिवार को चलाने के लिए आर्थिक मदद के विकल्पों पर भी विचार किया जा रहा है।