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Last Modified: शनिवार, 22 जुलाई 2017 (15:22 IST)

'स्वर्ग' का सुख भोगने आये थे, बन गए गुलाम

'स्वर्ग' का सुख भोगने आये थे, बन गए गुलाम - Indian laborers slaves in Italy
फोटो प्रतीकात्मक है
पंजाब से लाखों रुपये देकर 'स्वर्ग' में नौकरी करने आये हजारों लोग इटली के खेतों में अफीम खाकर 13-13 घंटे मजदूरी कर रहे हैं। बदले में मिलती है भूख, कर्ज, जिल्लत, नशाखोरी और दासों की जिंदगी।
 
करीब तीन साल से अमनदीप के लिए हर कामकाजी दिन अफीम खाने से शुरू होता है और हेरोइन के कश पर खत्म। इन दोनों के बीच में वह 13 घंटे तक तरबूज ढोता है। हजारों भारतीय मजदूर इसी स्थिति में इटली के रोम शहर के दक्षिण में मौजूद पोंटीन मार्शे में काम कर रहे हैं। 30 साल का अमनदीप (बदला हुआ नाम) कहता है कि नशीली दवाएं उसे चलाती रहती हैं। रॉयटर्स से बातचीत में अमनदीप ने कहा, "गर्मियों में यहां बहुत गर्मी होती है, पीठ दुखती है। थोड़ी सी अफीम मिल जाये तो फिर आप थकते नहीं हैं। ज्यादा ले लिया तो फिर नींद आने लगती है। मैंने बहुत थोड़ा सा लिया है सिर्फ काम करने के लिए।"
 
पोंटिन मार्शे में करीब 30 हजार भारतीय रहते हैं। इनमें से ज्यादातर पंजाब से आये सिख हैं। 1930 के दशक में इटली की फासीवादी सरकार ने इन्हें कृषि कामों के लिए अलग कर दिया था। ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं और हाड़तोड़ मेहनत के बदले जो पैसा मिलता है वह इतना कम होता है कि उन एजेंटों का कर्ज चुकाने में ही खर्च हो जाता है जो शानदार नौकरी का लालच दे कर उन्हें यहां अवैध तरीके से लाते हैं। यह एक तरह से कर्ज में फंसे बंधुआ मजदूर हैं जो संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक आधुनिक दौर की सबसे प्रचलित गुलामी प्रथा है। एक अनुमान है कि इस तरह से पूरी दुनिया में साढ़े चार करोड़ से ज्यादा लोग दासों का जीवन जी रहे हैं।
 
नशे के गुलाम
भारतीय मजदूर उन गांवों और सागर किनारे शहरों में बसे हैं जहां रोमन छुट्टियां मनाते हैं लेकिन इन लोगों की जिंदगी अलग है। टूटी फूटी और ना के बराबर इटैलियन बोलने वाले ये लोग साइकल पर हर रोज मीलों का सफर तय करते हैं। यहां की हजारों फार्मों और ग्रीनहाउसों में मूली, तरबूज, किवी और दूसरी चीजें पैदा होती हैं।
 
मजदूरों, डॉक्टरों, पुलिस और इनके अधिकार के लिए काम करने वाली संस्थाओं से बात करें तो पता चलता है कि इन मजदूरों में ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी है जो काम के लंबे घंटों, खराब हालत और पैसों की कमी से लड़ने के लिए नशीली दवाओं का सहारा लेते हैं। ज्यादातर मजदूर सूखे पोस्ता दाना चबाते हैं जिनमें कम मात्रा में मॉर्फीन होती है। हालांकि लंबे समय तक इसे चबाने पर इसकी आदत लग जाती है। अमनदीप जैसे कुछ मजदूर हेरोइन जैसी दूसरी ड्रग्स भी लेते हैं।
 
लातिना के एक अस्पताल में नशीली दवाओं के आदी लोगों का इलाज करने वाले डॉक्टर एजियो मातचियोनी ने बताया, "ये कोई अलग तरह के नशेड़ी नहीं हैं। ये लोग तनाव के साथ जीने के लिए ड्रग्स लेते हैं...क्योंकि इनके साथ दासों जैसा व्यवहार होता है।"
 
कर्ज के बंधक
अमनदीप को दो साल पहले नशे के इलाज के लिए अस्पताल में भी भर्ती होना पड़ा था। वह पंजाब से इटली 2008 में आया था, आंखों में बेहतर नौकरी का सपना लेकर। उसने एजेंटे को 10 लाख रुपये दिये थे जिनसे उसके यात्रा दस्तावेज और हवाई जहाज का टिकट खरीदा गया था। इनमें से आधा पैसा अमनदीप ने पहले ही दे दिया और आधा पैसा एजेंट ने कर्ज के रूप में उससे वसूला। शर्त ये थी कि उसे कर्ज चुकाने के लिए पहले सात महीने तक मुफ्त में काम करना होगा। अमनदीप ने कहा, "मेरे पास किराये और खाने के पैसों के अलावा और कुछ नहीं बचता।"
 
शरणार्थियों के अधिकार के लिए काम करने वाले संगठन मिग्राजियोनी के मार्को ओमिजीलो बताते हैं कि कई भारतीय मजदूर जो यहां पिछले 10 सालों में आये, उनकी भी यही कहानी है। उन्होंने कहा, "तस्कर इन लोगों से काम, घर और कागजाज के अलावा यात्रा और जरूरी चीजें मुहैया कराने का वादा करते हैं। इन्हें यहां की भाषा भी नहीं आती।" नये नये आये मजदूरों से कई बार उनके कागजात भी जब्त कर लिये जाते हैं ताकि कर्ज पूरा होने तक उन्हें अपनी मुट्ठी में रखा जा सके। इसके बाद ये लोग यहीं रह जाते हैं, यहां का सिख समुदाय इनकी मदद करता है हालांकि फिर भी शोषण तो होता ही है।
 
कई फार्मों में 220-350 रुपये प्रति घंटे की मजदूरी मिलती है जबकि यहां न्यूनतम मजदूरी की दर करीब 600 रुपये प्रति घंटा है। इसके अलावा इन्हें बिना रुके लगातार कई कई घंटे काम करना होता है। कई लोगों को जिन्हें नियमित कांट्रैक्ट मिला है उनकी सेलरी स्लिप पर काम के दिन घटा कर लिखे होते हैं। एक मजदूर ने कहा, "मैं मेरा कांट्रैक्ट नहीं पढ़ सकता। यहां आने से पहले मैं इटली को स्वर्ग समझता था लेकिन मुझे अब तक नहीं पता कि वो स्वर्ग है कहां?"
 
कौन है जिम्मेदार
काम की देखभाल के लिए फार्म मालिकों ने सिख समदाय के लोगों को ही काम पर रखा है जिन्हें कापोराली कहा जाता है। कई बार ये लोग भी बीच में कुछ पैसा हजम कर जाते हैं। भारतीय मजदूरों के एक संगठन से जुड़े गुरुमुख सिंह बताते हैं, "मालिक अगर चार यूरो दे तो ये लोग 3.80 यूरो बताते हैं और बाकी पैसा अपने पास रख लेते हैं।"
 
यहां के मुख्य अभियोजक आंद्रिया जे गैसपेरिस ने कहा कि इन मामलों की जांच करना मुश्किल है क्योंकि बहुत कम लोग ही बोलने को तैयार होते हैं। उनका कहना है, "अगर वो शिकायत नहीं करते तो हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते।" शिकायत करने वाले इसलिए भी डरते हैं कि उन्हें फिर काम नहीं मिलेगा। 2016 में गुरुमुख सिंह ने इसकी काट निकाली और संगठन बना कर बेहतर मजदूरी के लिए हड़ताल की। इन प्रदर्शनों ने दूसरे मजदूरों को भी सामने आने के लिए प्रेरित किया।
 
इसके बाद गुरुमुख सिंह को धमकियां मिलीं और उनके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ। पुलिस ने उसके बाद दर्जनों बार छापा मारा है। दो लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है। इटली के किसानों की संस्था के प्रमुख पीएर्टो ग्रेको कहते हैं कि इटली की कुख्यात लालफीताशाही भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है। क्योंकि अगर लालफीताशाही कम हो तो किसान आसानी से और ज्यादा लोगों को नौकरी पर रख सकेंगे।
एनआर/एके (रॉयटर्स)
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