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भगवान महावीर स्वामी का जन्म कल्याणक

भगवान महावीर स्वामी का जन्म कल्याणक - mahavir jayanti
महारानी त्रिशला का एक-एक क्षण बमुश्किल से बीत रहा था। वे बेसब्री से शिशु-जन्म की प्रतीक्षा कर रही थीं। उनकी देखभाल के लिए देवराज इंद्र ने देव कन्याओं को नियुक्त कर रखा था अत: उन्हें किसी प्रकार की शारीरिक पीड़ा नहीं होती थी। 


 
जैन मान्यता के अनुसार तीर्थंकर के जन्म के समय उनकी माता को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती थी और न ही उनके शरीर का रूपांतरण होता था। 
 
अंतत: वह घड़ी आ गई। चैत्र शुक्ल त्रयोदशी तद्‍नुसार सोमवार 27 मार्च, 599 वर्ष ई.पू. के दिन भगवान महावीर ने जन्म लिया। उनके जन्म के साथ ही तीनों लोकों में आनंद छा गया। देवलोक स्वयं वाद्य बजाकर मंगल ध्वनि करने लगे। 
 
इंद्र का सिंहासन डोलने लगा। वे समझ गए कि 24वें तीर्थंकर महावीर ने जन्म ले लिया है। वे अपनी पत्नी शचि के साथ महावीर का जन्मकल्याणक मनाने आए। क्षीरसागर के अमृत जल से महावीर का जलाभिषेक किया गया। कुंडलपुर में दो सप्ताह तक उत्सव और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कर महावीर का जन्मोत्सव मनाया गया। 
 
तदंतर ज्योतिषियों ने उनकी जन्म कुंडली बनाई और घोषित किया कि यह बालक या तो चक्रवर्ती राजा बनेगा या जगतगुरु।
 
 

महावीर  की दिनचर्या और परिवार



 
महावीर जब युवा हो गए तो उनका कद 7 हाथ ऊंचा था। शरीर पर चक्र, स्वस्तिक, तारामंडल, सूर्य, चंद्र आदि 1008 शुभ मांगलिक लक्षण सुशोभित थे। निर्मल शरीर स्वेद (पसीना) रहित और सुगंधीयुक्त था। शरीर का वर्ण तप्त स्वर्ण के समान था। रक्त श्वेतवर्णा था। 
 
भगवान महावीर की पारिवारिक पृष्‍ठभूमि धर्म-कर्म प्रधान थी। उनके माता-पिता भगवान पार्श्वनाथ की पूजा करते थे और उनकी शिक्षाओं पर चलते थे। विषयों में अनासक्त और साधना-प्रेमी महावीर के लिए यह वातावरण प्रेरणा का काम करता था। 
 
प्रात:कालीन कर्मों के बाद महावीर अल्पाहार ग्रहण करते थे। उसके बाद आत्मकेंद्रित साधना में लीन हो जाते थे। तदंतर दान-दक्षिणा देना और प्रजा की समस्याओं का समाधान करना उनका नियम था। कुछ समय वे माता-पिता के काम में भी हाथ बंटाते थे। 
 
उनके एक बड़े भाई थे जिनका नाम नंदीवर्द्धन था। महावीर के मुनि बनने के बाद वे राज्य के राजा बने थे। उनकी एक बहन सुदर्शना थी। उसका पुत्र जामालि उस समय बहु्त प्रसिद्ध व्यक्ति हुआ। भाई और बहन भी‍ महावीर से बहुत स्नेह करते थे।
 
 

महावीर ने किया विवाह-बंधन अस्वीकार



 

 
त्रिशलानंदन महावीर की उम्र 28 वर्ष को पार कर गई थी। उनके माता-पिता उनका विवाह करना चाहते थे लेकिन वे हमेशा इस बात को टाल जाते थे। उनके रूप, गुणों और पराक्रम की चर्चा दूर-दूर तक फैली हुई थी। अनेक राजा-महाराजा अपनी राजकुमारियों के विवाह का प्रस्ताव भेज रहे थे। 
 
ऐसे ही एक दिन कलिंग के राजा जितशत्रु का एक दू‍त उनकी पुत्री यशोदा का विवाह प्रस्ताव लेकर कुंडलपुर आया। दूत ने आने का प्रयोजन बताया और बहुमूल्य उपहार भेंट किए। महाराजा सिद्धार्थ बहुत प्रसन्न हुए। जितशत्रु वैसे भी उनके बहनोई थे। अब उनके पुत्र के ससुर बनकर उनकी पारिवारिक मैत्री और प्रगाढ़ हो जाएगी, ऐसा सोचते हुए उन्होंने स्नेहपूर्वक महावीर को अपने कक्ष में बुलवाया। 
 
रानी त्रिशला महावीर के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली- 'पुत्र! महल का यह सूनापन अब मुझसे सहन नहीं होता। हमारी अभिलाषा है कि अब तुम विवाह कर लो। महाराज जितशत्रु का दूत उनकी पुत्री यशोदा का विवाह प्रस्ताव लेकर आया है।' 
 
मां की बात सुनकर महावीर से एकाएक कुछ बोलते नहीं बना। एकदम से इंकार करके वे माता-पिता का दिल नहीं दुखाना चाहते थे अत: केवल मुस्कुराकर चले गए। 
 
उनके मौन को स्वीकृति समझकर राजा-रानी महावीर के विवाह की तैयारी आरंभ कर दी। उधर महावीर स्वयं जितशत्रु के दू‍त के पास गए और बोले- 'हे दूत! मैंने आजन्म अविवाहित रहने के लिए जन्म लिया है। सांसारिक बंधन मुझे मोह में नहीं बांध सकते। न ही मैं उनके साथ न्याय कर सकता हूं अत: महाराज से कहना कि वे क्रोध न करें। बहन यशोदा से कहना कि मैं उनका अपमान करने के लिए ऐसा नहीं कर रहा हूं। यह तो विधि का लेखा है।' 
 
कलिंग दूत महावीर के विचारों से बहुत प्रभावित हुआ और प्रसन्नतापूर्वक लौट गया। भगवान महावीर के विचारों से प्रेरणा लेकर जितशत्रु और यशोदा ने उनका अनुकरण करते हुए जिन दीक्षा ले ली। 

 

महावीर का जीवन त्याग-तपस्या का उदाहरण



 
वर्धमान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या की और तरह-तरह के कष्ट झेले। अंत में उन्हें 'केवलज्ञान' प्राप्त हुआ। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। अर्धमागधी भाषा में वे उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भलीभांति समझ सके।
 
भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था।
 
भगवान महावीर ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका- सबको लेकर चतुर्विध संघ की स्थापना की। उन्होंने कहा- 'जो जिस अधिकार का हो, वह उसी वर्ग में आकर सम्यक्त्व पाने के लिए आगे बढ़े। जीवन का लक्ष्य है समता पाना। धीरे-धीरे संघ उन्नति करने लगा। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर भगवान महावीर ने अपना पवित्र संदेश फैलाया।'
 
भगवान महावीर ने 72 वर्ष की अवस्था में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है।
 
हमारा जीवन धन्य हो जाए यदि हम भगवान महावीर के इस छोटे से उपदेश का ही सच्चे मन से पालन करने लगें कि संसार के सभी छोटे-बड़े जीव हमारी ही तरह हैं, हमारी आत्मा का ही स्वरूप हैं।