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Last Updated : शनिवार, 16 दिसंबर 2017 (12:01 IST)

'देने की खुशी' सत्र में सार्थक रही चर्चा

'देने की खुशी' सत्र में सार्थक रही चर्चा - Indore Literature Festival
इंदौर। शहर में आयोजित 'इंदौर साहित्य महोत्सव' के दौरान 'देने की खुशी' सत्र में रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता अंशु गुप्ता के साथ में कमिश्नर संजय दुबे की परिचर्चा सार्थक रही। इस सत्र को श्रीधांत जोशी ने मॉडरेट किया।
 
 
इंदौर संभागायुक्त संजय दुबे ने पढ़ो-पढ़ाओ योजना (मिल बांचे मध्यप्रदेश) के बारे में विस्तार से बताया कि विद्या दान और आहार दान की योजना में इंदौर ने रिकॉर्ड बनाया है। इसके अंतर्गत शहर के सुशिक्षित लोगों को जोड़ा गया है, जो अपनी सुविधा और समय के अनुसार अपने दिन के कुछ घंटे स्कूलों में दे सकते हैं।
 
दुबे ने कहा कि हमारी विडंबना है कि 8वीं में पढ़ने वाला बच्चा 5वीं का सवाल हल नहीं कर सकता। शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए यह पहल अत्यंत पसंद की गई है। इसी तरह आहार दान के अंतर्गत अगर घर में 10 लोगों का खाना बच गया है तो आहार ऐप को सूचना देने भर से 2 घंटे के भीतर हमारे साथी आकर उसे एकत्र कर लेते हैं।
 
उन्होंने कहा कि अगर खाना हमें देरी से मिले तो उसे सुरक्षित रख दूसरे दिन गरम कर वितरित किया जाता है। उसी तर्ज पर अंग दान को भी इंदौर ने बड़े दिल से अपनाया है। इसके अंतर्गत अगर मरीज ब्रेन डेड हो जाए तो उसके परिजन यह फैसला ले रहे हैं कि उनके अंगों से 8 लोगों को जीवन मिल सकता है।

इस कार्यक्रम के अंतर्गत बतौर वक्ता शामिल गूंज संस्था के मैग्सैसे अवॉर्ड प्राप्त अंशु गुप्ता ने अपनी गतिविधियों की विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने जरूरतमंदों को कपड़े उपलब्ध करवाने संबंधी जानकारी के साथ बताया कि कैसे मात्र 67 कपड़ों के साथ यह काम आरंभ हुआ था।

गुप्ता ने बताया कि वास्तव में जब हम यह कहते हैं कि हम वस्त्र दान कर रहे हैं तो दरअसल हम दान नहीं कर रहे होते हैं बल्कि बेकार कपड़ों से अपना घर खाली कर रहे होते हैं, इसे दान नहीं कहा जा सकता।

इस देश में जब आंकड़े आते हैं कि ठंड से इतनेल लोग मर गए तो वास्तव में वह ठंड से नहीं बल्कि कपड़ों की कमी से मरते हैं। आज देश भर में हमारे 22 सेंटर हैं जो जरूरतमंद लोगों को कपड़े उपलब्ध करवाते हैं।

इस दौरान हम इस बात का डेटा भी रखते हैं कि किन कपड़ों की जरूरत कहां पर किसे है.... और किसने कौन से कपड़े दिए। हम सुव्यवस्थित प्रेस किए धुले हुए कपड़े ही लेते हैं। फिर यह तय करते हैं कि कौन सा कपड़ा कहां जाएगा, किसे दिया जाएगा। जिसे कपड़ा दिया गया है उसका अपनी वेबसाइट पर फोटो भी अपलोड करते हैं।

संस्था अब सेनेटरी नैपकिन पर काम कर रही है। उन्होंने चौंकाने वाला सच बताया कि आज भी दूरस्थ गांवों में महिलाएं नैपकिन के अभाव में मिट्टी, गोबर, घास, कागज और अन्य असुरक्षित सामग्री इस्तेमाल करने को बाध्य है। जब उन्हें कई तरह के इंन्फेक्शन हो जाते हैं तब उनका यूटेरस निकालना पड़ता है।

देश में कई ऐसी मल्टी नेशनल कपंनी की डॉक्टरों से मिली हुई पूरी की पूरी गैंग काम कर रही है जो यूटेरस निकालने और उसका अन्यत्र इस्तेमाल का धंधा कर रही है। यह घृणित व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है। जानकारी के अभाव में भोलीभाली महिलाएं यूटेरस निकलवाने को तैयार हो जाती है जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं होती है। जब यह बिजनेस इतना बढ़ सकता है तो सामाजिक हित में साफ सुथरे सुरक्षित नैपकिन का बिजनेस क्यों नहीं बढ़ सकता?