-अनिल त्रिवेदी
आज का भारत आजाद, लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई शासन व्यवस्था का देश है। फिर भी आज हमारे देश में आजादी को लेकर वैसे जुनून या निष्ठा नहीं दिखाई देती है, जैसी जंग-ए-आजादी के दौर में दिखाई देती थी। गुलामी के दौर में आजादी के लिए मर मिटने का जज्बा देश की प्रेरणा थी। पर आज संवैधानिक आजादी के बाद भी हमारे देश में आर्थिक, मानसिक एवं व्यवस्थागत गुलामी के खिलाफ लड़ा जाना चाहिए, यह भाव ही खत्म-सा हो गया है। जीवन के हर क्षेत्र में हम सब स्वेच्छा से गुलामी की व्यवस्था को निमंत्रण देते दिखाई देते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी, प्रेस की स्वतंत्रता, सेंसरशिप की खिलाफत, बोलने, आंदोलन करने, मानव अधिकार के लिए लड़ना, सवाल उठाना सब निरंतर कम होता जा रहा है।
आज हम एकतरफा आजादी के दौर से गुजर रहे हैं। आजादी के मामले में नाइंसाफी और गैरबराबरी निरंतर बढ़ती जा रही है। भारतवर्ष में ताकतवर मनमानी करने को आजाद हैं और आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से कमजोर लोगों के पास अपनी जिंदगी के लिए जरूरी बातों या सवाल को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से अभिव्यक्त करने की ताकत दिनोदिन सिकुड़ती जा रही है। आजादी के समय राष्ट्रीय आंदोलन या जंग-ए-आजादी की लड़ाई का देश के मन पर इतना प्रभाव था कि ताकतवरों के मन में यह विचार भी नहीं आता था कि वे अपनी ताकत के बल पर आम लोगों की जिंदगी के सवालों को उठने से रोक सकें। पर आज के भारत में हर क्षेत्र में खास लोगों की ताकत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि उसके सामने आज लोगों के सवालों पर चर्चा का किसी को अवकाश ही नहीं है।
आजादी जब आई तो देश 33 करोड़ नागरिकों का था, आज 65 साल बाद सवा अरब से ज्यादा नागरिकों का देश बन गया। आजाद भारत की राजनीति, राज्यनीति, अर्थनीति में ताकतवर नागरिकों के सवालों, समस्याओं ने देशभर के गांवों, दूरस्थ क्षेत्रों के लोगों की जिंदगी के सवालों पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया। आजाद भारत में अब ताकतवर लोगों की जिंदगी के सवाल ही देश की राजनीति, अर्थनीति और शासन-प्रशासन की पहली प्राथमिकता के सवाल बन गए।
आज का काल पैसे की ताकत का काल बन गया है। पैसे की गुलामी के सामने आजादी और नागरिक अधिकार होते हुए भी देश का नागरिकत्व निस्तेज होता जा रहा है। जीवन के हर आयाम को पैसे की ताकत प्रभावित कर रही है। नतीजा यह हुआ है कि आजाद भारत में विचार की ताकत को कमतर बनाने के लिए पैसे की ताकत को पूरी बेरहमी के साथ झोंका जा रहा है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि आजाद देश का आदमी यह कहने लगा है- मेरे पास पैसा तो है ही नहीं, ऐसे में आजादी का क्या करूंगा? नतीजा समूची सभ्यता, सरकार, संस्कृति, सोच-विचार सब कोई पैसे की ताकत का गुलाम होता जा रहा है। पैसे की गुलामी से संघर्ष करने की जब लोक समाज में ताकत ही नहीं बचेगी तो फिर हर चीज बिकाऊ होती जाती है और देश जीवन-मूल्यों का रक्षक होने के बजाय तरह-तरह के लोभ-लालचों का खुला बाजार हो जाता है।
आजादी की ललक ने देश को विदेशी दासता के खिलाफ जूझना सिखाया और देश की आजादी के लिए लोगों के मन में जो ललक पैदा हुई, उससे लंबे संघर्ष के बाद हमने आजादी हासिल की। आज के काल में पैसे की ललक ने मनुष्य को अशांत बना दिया है। भोजन की भूख दो रोटी से शांत हो जाती है, पर पैसे की भूख में शांति का आयाम ही नहीं है। नागरिक, समाज, देश और विश्व में भोजन के कुपोषण का प्रश्न नहीं, पैसे के कुपोषण की अंतहीन चिंता चल पड़ी है। पैसा जो कभी मनुष्य का साधन था, आज की दुनिया के ताकतवर तबके का साध्य बन गया।
आज की समूची दुनिया की विकास यात्रा शुद्ध आर्थिक लाभ-हानि की होती जा रही है। ताकतवरों को ताकत बढ़ाने की पूरी आजादी है, पर आजाद देश में आजाद होते हुए भी कम ताकत वाले लोग गरिमामय जीवन तो दूर की बात, जीवन जीने की आजादी को तरस रहे हैं।
आज का भारत दुनिया का सबसे बड़ी युवा आबादी का देश है, पर देश का युवा भी पैसे की ताकत से अपने आपको ताकतवर बनाने की राह पर चलने लगा है जबकि आजाद भारत के युवाओं की ताकत को बढ़ाकर देश, समाज की ताकत को बढ़ाने का विचार इन दिनों दम तोड़ता दिखाई दे रहा है।
युवाओं को ऊर्जा का अनंत भंडार कहा जा सकता है, पर हमारा चिंतन देश के युवाओं की ऊर्जा से देश, समाज की ताकत बढ़ाने के बजाय दुनियाभर से उधार का पैसा बटोरकर देश को संपन्न बनाने की राह को राष्ट्र-जीवन का एजेंडा बना रहा है। गुलाम भारत में आजादी की ऊर्जा में देश के बच्चे से लेकर बूढ़ों तक को ऊर्जावान बनाकर आजादी हासिल करने के ध्येय ने समूचे लोकमानस में जागृति की लहर पैदा करने में सफलता हासिल की।
पर अड़सठ साल की आजादी में हम हर मामले को लाभ-हानि की लोभ-लालचभरी दृष्टि से देखने के रास्ते पर चलकर नागरिक के तन, मन और धन को निरंतर कमतर आंककर आर्थिक गुलामी की जंजीरों को खुला निमंत्रण देकर समूचे देश में आजादी को ही व्यक्ति और समाज की बरबादी का कारण बता रहे हैं। आम आदमी की आजादी से ज्यादा पैसे की तानाशाही को गले लगाने का अस्वाभाविक, आत्मघाती मानस बनाते जा रहे हैं। जो भारत जैसे गहरी और दार्शनिक विचार प्रधान चिंतन विरासत के नागरिकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में आज के कालखंड का सुलगता हुआ प्रश्नचिह्न है जिसका उत्तर किसी और को नहीं, हमें ही खोजना होगा।
हमें यह हमेशा याद रखना होगा कि आजादी, आजाद चिंतन विचारधारा का ऐसा लोक-प्रवाह है, जो देश, समाज को निरंतर तेजस्वी और तपस्वी लोकजीवन की ताजगी का अहसास कराती रहती है। आजादी सबको आगे बढ़ने, फलने-फूलने का मौका देती है। आजादी हम सबकी प्राकृतिक ताकत है, जो हमें अपनी ऊर्जा के बल पर खुद को जीने का अवसर देती है और दूसरे के जीवन जीने के अवसरों को छीने बिना ही उन्हें भी गरिमामय रूप से जीवन जीने का प्राकृतिक अवसर प्रदान करती है। आजादी मनुष्य जीवन की मूल प्रकृति है।
इसी से हर कालखंड में मनुष्य आजादी के साथ जीवन के अवसरों को बढ़ाते रहने में ही जीवन के विभिन्न आयामों, रंगों, रूपों, तौर-तरीकों को खुलकर जीता रहता है। मनुष्य समाज का आलस्य और आरामतलबी उसे गुलामी की दिशा में ढकेलती है, पर आजादी की अनंत ऊर्जा, गुलामी की जकड़ से बाहर निकाल आदमी को खुद अपनी अनोखी ताकत का अहसास करती रहती है। (लेखक वरिष्ठ अभिभाषक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)