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Written By WD

सिंहस्थ केन्द्रित उपन्यास ‘नतोऽहं’ के कुछ अंश

सिंहस्थ केन्द्रित उपन्यास ‘नतोऽहं’ के कुछ अंश - Natoham
मीनाक्षी स्वामी
एल्विस सिंहस्थ की तैयारियों की तस्वीरें राजीव को मेल कर रहा था। कहीं साधुओं के डेरे बन रहे थे तो कहीं बन चुके थे। कहीं गाड़ी में भर-भरकर पुलिसवाले आ रहे थे। कहीं मुस्तैदी से गाड़ी से कूद रहे थे। कहीं महिला पुलिस डंडा लेकर घूम रही थी।


कहीं धूप से बचने को पुलिस वाले पेड़ की या किसी भवन की छांह में खड़े थे। कहीं कार्यकर्ता तैयारियों में जुटे थे। कहीं प्याऊ बन रही थी। कहीं शिप्रा की सफाई चल रही थी, कहीं घाटों की। ट्रकों, मेटाडोरों में लाद-लादकर सामान लाया जा रहा था। कहीं उतारा जा रहा था। फुटकर दुकानों में सामान भरा जा रहा था। कहीं कंडे बन रहे थे। कहीं सूख रहे थे। कहीं मंदिरों पर रंग-रोगन हो रहा था, कहीं सजावट। कहीं रोशनी लगाने की तैयारी हो रही थी। 
 
साधु-संतों की दिनचर्या को भी उसने अपनी फोटोग्राफी का हिस्सा बनाया था। उसने, उनका स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ, श्रंगार, भोजन, भक्तों के साथ समागम की सुंदर कलात्मक फोटोग्राफी की थी। और तो और, साधुओं की हाईटेक लाइफ स्टाइल के भी ढेरों फोटो खींचे थे। राजीव उन फोटोग्राफ्स को देखकर मुग्ध हो गया। उसने एल्विस को तुरंत मेल किया-
‘‘सारे फोटो देखे। तुमने सिंहस्थ की तैयारियों के ही इतने सुंदर फोटो खींचे हैं, सिंहस्थ में तो कमाल कर दोगे। इन फोटोग्राफ्स में तुमने अपने रचनात्मक कौशल और तकनीकी दक्षता का परिचय दिया है। तुम्हारी कंपनी को सिंहस्थ के फोटोग्राफ्स पर आधारित जिस किताब को बनाने की जिम्मेदारी मिली है, वह किताब सचमुच बहुत ही अच्छी बनेगी। मुझे उसकी प्रतीक्षा रहेगी। ढेर सारी शुभकामनाएं।’’ 
   
राजीव के जवाब ने एल्विस के उत्साह को और बढ़ा दिया। देर तक मुग्ध भाव से अपने फोटोग्राफ्स का खजाना देखता रहा। फिर नींद आने लगी। थका हुआ तो था ही, जरा ही देर में गहरी नींद में सो गया। अगले दिन पहला शाही स्नान था। एल्विस उसे देखने को, उसके बारे में जानने को उत्सुक था। उसने पौराणिक जी से पूछा। ‘कुछ लोग मानते हैं कि शाही शब्द मुगल काल में शाहजहां के समय से आया। उन्होंने स्नान करने आए साधुओं का शाही तरीके से स्वागत किया था। इसलिए इसका नाम शाही स्नान हो गया।’
 
‘ओ. के....।’
 
‘और कुछ मानते हैं कि शाही का मतलब है राजसी तरीके से। इस स्नान के लिए साधु-संत राजसी वैभव के साथ निकलते हैं इसलिए इसे शाही स्नान कहते हैं।’
‘बट वास्तव में क्या है..?’
‘दोनों ही अपनी जगह सही हैं।’
‘बहुत रोमांचित हूं इसे देखने के लिए।’
‘कल सुबह पांच बजे के भी पहले से शाही सवारी निकलनी शुरू होंगी। 
‘ठीक है। मैं सुबह चार बजे ही तैयार रहूंगा।’
अगली सुबह एल्विस पौराणिक जी के साथ देखता हुआ घूम रहा था।
सवारी में सबसे आगे ध्वजा चल रही थी। 
‘ध्वजा हर अखाड़े की पहचान के साथ उनकी शान का भी प्रतीक होती है। इसे निशान कहा जाता है। इसीलिए यह सबसे आगे चलती है।’ पौराणिक जी ने बताया
एल्विस सब कुछ कैमरे की आंख से देख रहा था। कैमरे में कैद कर रहा था। 
 
पहले अखाड़े के ध्वजा की पूजा हुई। फिर साधु इसे लेकर आगे चलने लगे। ढोल-नगाड़े-ताशे बज रहे थे। बड़ा ही अद्भुत दृश्य था। सब तरफ उल्लास बिखरा था। सजे-धजे घोड़े, ऊंट, बग्घी और हाथी। एक हाथी पर मुख्य महंत। बाल संत चंवर डुला रहे थे। हाथियों पर चांदी की पालकियां, चांदी के रथ। सबमें संत थे। बीच-बीच में संत ‘जय महाकाल’ का उदघोष कर रहे थे। सबमें भरपूर उमंग थी।
 
एल्विस के कानों में पौराणिक जी बातें पड़ रही थी ‘साधु संतों के पास अपार संपत्ति है। सिंहस्थ उनके वैभव के प्रदर्शन का भी पर्व है। हिन्दू सनातन धर्म में धन-संपदा, वैभव को लक्ष्मी माना गया है। इसी कारण साधु लक्ष्मी रूप में वैभव रखते हैं।’ 
 
 ‘पर इतना सब आता कहां से है ?’
 
‘यह सारा वैभव, ऐश्वर्य उन्हें दुनिया भर के भक्तों की तरफ से मिलता रहता है। तभी तो जाने-अनजाने हजारों लाखों भक्तों को भोजन प्रसाद कराते, धार्मिक कर्मकांड करते, दुनिया भर में आश्रम बनाते, उनकी व्यवस्था करते उनके खजाने भरे रहते हैं।’ 
 
साधु ‘हर-हर महादेव’ का जयघोष करते आगे बढ़ रहे थे। 
 
पौराणिक जी बता रहे थे ‘रामघाट पर पहले साधु स्नान करेंगें। उनके बाद ही दूसरे लोग कर पाएंगें। साधुओं के अखाड़ों का भी क्रम निश्चत है।’
 
‘क्यों ?’
 
‘सदियों से यही परंपरा है। पहले शैव, फिर दिगंबर, उनके बाद वैष्णव और अंत में निर्मल अखाड़े से समापन होता है। बताते हैं कि करीब दो हजार साल पहले शंकराचार्य ने यह क्रम बनाया था।’
 
एल्विस सुन रहा था, देख रहा था, अभिभूत हो रहा था। 
 
‘धर्म का ऐसा वैभव केवल ऊपरी दिखावा नहीं। समृद्धि भीतर तक है। आत्मा तक...अद्भुत...दिव्य...अलौकिक...।’ 
वह तस्वीरें खींच रहा था। मन में ‘जय महाकाल....हर-हर महादेव’ के जयघोष की लय स्वतः चल रही थी। तभी उसके कानों में किसी की आवाज पड़ी। उसने मुड़कर देखा। पीला धोती-कुर्ता पहने, गौरवर्णी, प्रभावशाली व्यक्तित्व और आवाज के मालिक कोई अजनबी सज्जन थे। 
 
वे कह रहे थे ‘शैव सम्प्रदाय के सारे साधु दिगम्बर स्थिति में स्नान करते हैं। इसलिए वे इसी स्थिति में स्नान को जा रहे हैं। शिवस्वरूप इन साधुओं के शरीर पर भस्म का लेप है। यह भस्म ही इनका वस्त्र है। वेदों में कहा है कि नागा साधु के स्नान करने से नदी पवित्र हो जाती है। एक बार ब्रिटिश सरकार ने दिगंबर स्नान का विरोध किया था। मगर साधुओं के आगे उनकी एक नहीं चल सकी।’ 
 
‘जी साहब, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। भारतीय संस्कृति ने कई आघात झेले हैं। मगर इस पर्व में वह आज भी अपने मूल रूप में दिखाई देती है।’ एल्विस कुछ देर सोचता रहा फिर कह ही दिया। उसकी इस बात से वे सज्जन गदगद हो गए। उसके बिल्कुल समीप आ गए। 
 
कहने लगे ‘हां...सो तो है। वैसे इस बार कई नए घाट बने हैं। पुराने घाटों का जीर्णोद्धार भी हुआ है। कई घाटों पर उसी समय आम लोग भी स्नान कर पाएंगें।’
 
‘अच्छा...!’
 
‘हां, अभी भी बाहर से लोग आ रहे हैं। उनके वाहन तो उज्जैन के बाहर ही रुकवा दिए हैं।’
 
 ‘क्यों ?’
 
‘‘वो क्या है कि इधर हर घाट पर तो भीड़ है। इसलिए कोई भी वाहन लाने की इजाजत नहीं है। मगर लोगों की इच्छाशक्ति तो देखो! स्नान के लिए सामान माथे पे धर के कई-कई किलोमीटर पैदल चल रहे हैं, उत्साह और उमंग से।’’ कहते हुए उनका उत्साह भी छलका पड़ने लगा।  
 
 ‘‘ऐसी मान्यता है कि एक बार सिंहस्थ में शिप्रा स्नान हजारों अश्वमेघ यज्ञ के बराबर है। अमृत कलश से कभी अमृत की बूंद यहां छलकी थी। इसीलिए यहां स्नान से मोक्ष मिलता है। अब मानव की जीवन का एक ही तो लक्ष्य है-मोक्ष।’’
 
‘मैं भी शिप्रा में स्नान करुंगा....जरुर...।’ एल्विस ने तय किया
 
 ‘ये जो मेलों और तीर्थों की परंपरा है, व्यक्ति को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से समृध्द करती है।’
 
‘अच्छा ! पर कैसे ?’ 
 
‘जब लाखों-करोड़ों श्रध्दालु एक साथ शिप्रा में हर-हर शिप्रे...हर-हर महादेव कहते हुए डुबकी लगाते हैं, तब सामाजिक समरसता की कई धाराएं इसमें एक साथ इकट्ठी हो जाती हैं।’    
 
 ‘जी।’
 
आसमान में अंधेरा था, घाट पर जगमग रोशनी। रात्रि या अति भोर का कोई चिन्ह नहीं था। शिप्रा के तट पर बिल्कुल दिन का सा उजाला फैला था। 
 
‘कहते हैं नदी सबका पाप हरती है। मगर जब तपस्वी साधु स्नान करते हैं तो वे नदी का ताप हर लेते हैं। वे विधि-विधान से स्नान करते हैं। पहले निशान का स्नान होता है, फिर मान्य देवता का। उसके बाद साधु डुबकी लगाते हैं।’ वे कह रहे थे।
 
साधु शिप्रा में डुबकी लगा रहे थे, अपनी बड़ी-बड़ी जटाएं खोलकर स्नान कर रहे थे। स्नान कर चुके साधुओं की जमात धीरे-धीरे अपने अखाड़ों में लौट रही थी। 
इन सारे दृश्यों को एल्विस तो अपने कैमरे में कैद कर ही रहा था। उसने देखा कई विदेशी दर्शक भी बड़े शौक और उत्साह से तस्वीरें खींच रहे थे।
 
आसमान का अंधेरा हल्का पड़ने लगा। भोर के उजाले का आभास होने को था। धीरे-धीरे सूरज का गुलाबी उजाला फैल रहा था। मगर अभी धूप की चकाचौंध नहीं थी। यह थी मालवा की मीठी गुलाबी सुबह। स्नान अभी भी जारी था। 
 
‘कुछ अखाड़े प्रशासन के अधिकारियों की अगुवाई पर ही आते हैं। उन्हें वापस भी वे ही छोड़ने जाते हैं। ये सब परंपरा है।’ पौराणिक जी ने बताया। ‘ये बिल्कुल ठीक समय है। मैं भी स्नान कर लूं। आखिर हजारों अश्वमेघ यज्ञ के पुण्य को मैं भी तो कमाऊं।’ 
 
‘जरुर...जरुर...’
 
एल्विस ने अपना कैमरा पौराणिक जी को सौंपा और डुबकी लगा ही दी।
 
यह स्नान उसे आज तक के सारे स्नानों से बिल्कुल अलग लगा। अच्छे से अच्छे स्वीमिंग पूल में तैरा था, नहाया था। नदी तो क्या समुद्र में भी डुबकी लगा चुका था। मगर यहां डुबकी लगाते ही जैसे उसका कायांतरण हो गया। अनोखी पावनता तन, मन से आगे आत्मा तक में समाती महसूस हुई। क्या यह उस आध्यात्मिक शक्ति का चमत्कार था जो साधु-संतों के स्नान से नदी में भी समा गई थी!
या सचमुच ही शिप्रा के पुण्य सलिला होने का प्रभाव था या वातावरण का? या फिर अमृत की उन बूंदों का, जो कभी यहां छलकी थी। जो भी हो एल्विस अलौकिक अनुभूति के साथ बाहर निकला। 
                                       
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