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इंसानियत पर कविता : ऐसा मजहब चलाएं...

इंसानियत पर कविता : ऐसा मजहब चलाएं... - poem on insaniyat
चलो 
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं


 
दर्द होरी के आंगन में उतरा हो
आंखें जुम्मन की भर आए
रामचरित मानस की चौपाइयां
और कुरान के पैगाम
जहां साथ बैठकर
सुनाए जाएं
चलो 
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं।
 
सुन के मंदिर के नगाड़े जहां
मीर साहब गले से लग जाएं
हो मस्जिद में अजान जब
पंडितजी सम्मान में बैठ पाएं
 
ईद ‍की सिवइयां दिवाली के दीये
साथ मिल के खिलाई-सजाए जाएं
सपने अकबर ने जो आंखों में पाले
अमर की नजरों से देखे जाएं
 
चाहे मदरसे हों या गुरु आश्रम
गीत देशभक्ति के केवल गाए जाएं
चाहे गुरुद्वारा हो या गिरजाघर
केवल नफरत समाप्त करने के संदेश आएं
 
केवल एक सपना आंखों में पालें
सबसे बेहतर हो हिन्दुस्तान वाले
केवल तरक्की और विकास के
सपने आंखों में पाले जाएं
 
झंडा ऊंचा रहे हमारा
ये सपने लेकर जिंदा रहें
और इसी सपने को पूरा
करते हुए खप जाएं
 
चलो 
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं।