नाम था निर्भया
महिला दिवस विशेष कविता
औरत होना मुश्किल है या चुप रहनाजीना या किसी तरह बस, जी लेनाशब्दों के टीलों के नीचेछिपा देना उस बस पर चिपकी चीखें, कराहें, बेबसी, क्रूरता, छीलता अट्टाहासउन पोस्टरों को भींच लेना मुट्ठी मेंजिन पर लिखा था-हम सब बराबर हैंपानी के उफान में छिपा लेना आंसूफिर भरपूर मुस्कुरा लेना और सूरज से कह देना- मेरे उजास से कम है वोकैलास की यात्रा मेंकुरान की आयतें पढ़ लेनाइतने सामान के साथसाल दर साल कैलेंडर के पन्ने बदलते रहनाकागजों के पुलिंदे मेंभावनाओं की रद्दीथैले में भरी तमाम भद्दी गालियांऔर सीने पर चिपकी वो लाल बिंदीऔर सामने खड़ा-मीडियाइस सारी बेरंगी मेंदीवार में चिनवाई पिघली मेहंदीरिसता हुआ पुराना मानचित्रबस के पहिए के नीचे दबे मन के मनके और उसके मंजीरेये सब दुबक कर खुद को लगते हैं देखने...इतना सब होता रहेऔर तब भी कह ही देना कि वो एक खुशी थीकिसी का काजल, गजरा और खुशबूनाम था - निर्भया