छत्तीसगढ़ की सुरम्य झाँकी
समीक्षक
भारत की संस्कृति में कई विविध प्रकार के रंग हैं। उन्हीं रंगों में से एक है छत्तीसगढ़ी संस्कृति। लेखिका शंकुतला तरार ने इस प्रदेश के आदिवासी अंचलों को बहुत करीब से जाना है। तभी तो वे इतनी अच्छी तरह से उसे कागज पर उतार पाईं हैं। शकुंतलाजी की हाल ही प्रकाशित तीन रचनाएँ छत्तीसगढ़ की ही कहानी बयाँ करती हैं, वह भी उसकी अपनी बोली छत्तीसगढ़ी और हल्बी में।पहली रचना 'चूरी' लघु नाटक है। इसमें गाँवों में महिला की कहानी को बहुत सरल तरीके से प्रस्तुत किया गया है। विधवा स्त्री की पीड़ा को बगैर किसी नाटकीयता के पेश किया गया है। इसमें सबसे आकर्षक पहलू इसकी भाषा है। ठेठ छत्तीसगढ़ी बोली एक अलग ही असर पैदा करती है। यह प्रयोग बहुत ही प्रभावशाली बन पड़ा है। कहानी के सारे पात्रों को इतने सरल ताने-बाने में बुना गया है कि इसे समझने में ज्यादा परिश्रम नहीं करना होगा। प्रवाह भी अच्छा है, कभी दिशा से भटकाव नहीं लगा। दृश्यों के समायोजन में जरूर हिन्दी की सहायता ली गई है जो पाठक की सहजता बढ़ाता है। दूसरी रचना 'टेपारी' हल्बी बोली में हाइकू व कविता संग्रह है। बस्तर की प्रमुख बोली हल्बी में हाइकू बस्तर की छवि को बेहतरीन तरीके से पेश करते हैं। आज के रीमिक्स जमाने में जब हर जगह घालमेल ही नजर आता है तो ऐसी मौलिक रचनाओं का स्वागत किया जाना चाहिए। लुप्त होते क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों को यदि मरने से बचाना है तो इस तरह के प्रयास करने ही होंगे। इसका शीर्षक 'टेपारी' का अर्थ भी संदूक है, जो उनके संग्रह को सही परिभाषा देता है। तीसरी रचना 'मेरा अपना बस्तर' हिन्दी कविताओं का संग्रह है। इसमें लेखिका ने बस्तर की प्राकृतिक छटा को दर्द के साथ प्रस्तुत किया है। बस्तर के प्रति अपने प्रेम और संवेदनाओं को 29 कविताओं के माध्यम से शंकुतलाजी ने लेखनीबद्घ किया है। बचपन के बस्तर से आज के बस्तर की तुलना करके उन्होंने उसकी सुंदरता को बचाने की प्रार्थना भी की है। बस्तर का दर्द शब्द बनकर बरबस ही फूट पड़ा है। यह कविता अनायास ही अस्तित्व में आई लगती है, जैसे भीतर से विचारों का प्रवाह आया हो और कोई लेखनी लेकर बैठ गया हो। इसमें बचपन से लेकर अभी तक की दुखद और सुखद यादों का समन्वय देखने को मिलता है। इन कविताओं के बारे में कुछ कहने का विचार करने पर यह पंक्ति विचार सागर से उभरकर सामने आती हैः 'दर्द का दरिया कहूँ या खुशियों का सागर कहूँ'। एक ओर लेखिका का अपने कोमल बचपन और निश्छल आदिवासियों का सुरमय चित्रण है, तो दूसरी और उनको लूटती लंपट आधुनिकता। इसमें लेखिका का अपने बस्तर के छूट जाने का दर्द भी समाया है। छत्तीसगढ़ की सुरम्य झाँकी लेखिकाः शकुंतला तरारप्रकाशकः नारी का संबल, प्लॉट नं. 32, सेक्टर 2, एकता नगर, गुढ़ियारी, रायपुर।मूल्यः क्रमशः 50 रु., 50 रु. एवं 100 रु.