सवाल ये है कि बनारस कैसे जीतेगा और कब?
सुबह–ए–बनारस...
बनारस.... काशी.... वाराणसी.... अविमुक्त क्षेत्र... आनंद कानन.... ब्रह्मावर्त... जो भी कह लें... कुछ तो जादू है गंगा किनारे बसी इस नगरी में। शिवजी के त्रिशूल पर धरी इस नगरी में तीन नदियाँ हैं (थीं) ... वरुणा, असि और गंगा। ये तीनों ही मिलकर वो अर्धचंद्र भी बनाती हैं ... अर्धचंद्र जो शिवजी की जटाओं पर भी धरा है। इन पौराणिक आध्यात्मिक प्रतीकों का रहस्यमयी संयोग है या उन महामनाओं का पुण्य जिन्होंने इस नगरी को गुलज़ार किया... ये ठीक-ठीक पता लगाना मुश्किल है, पर ये बात तो पक्की है कि कोई चुंबक यहाँ गड़ा हुआ है जो खींचता है, बुलाता है, रोकता है... कबीर ने जाने क्या किया था कि इस चुंबकत्व को तोड़ पाए, सबके बस की तो है नहीं। ग़ालिब कलकत्ता जाते हुए यहाँ आए तो यहीं ठहर गए। अपनी सबसे लंबी नज़्म चराग-ए-दैर लिखने के लिए वो यों ही तो नहीं प्रेरित हुए होंगे.... या जयशंकर प्रसाद के साहित्य में वरुणा और गंगा का प्रवाह यों ही तो नहीं आ गया, या कि कबीर के दोहों में मानवीय मूल्यों की वो पैठ बनारस में धँसे बगैर हो पाई होगी क्या भला? या खाँ साहब कि शहनाई में वो कशिश क्या अस्सी, गौदोलिया और फातेमान कि फिज़ाओं के बगैर आ सकती थी क्या? या कि जब मार्क ट्वेन लिखते हैं- "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है, और जब इन सबकों एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" तो वो इसीलिए कि वो वाराणसी के इतिहास का दूसरा सिरा पकड़ ही नहीं पाए....। बाबा विश्वनाथ तो ख़ुद यहाँ विराजे हैं हीं... सो वो जादू, वो रहस्य तो बनारस में है और वो रहेगा...पर क्या यही आध्यात्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक आवरण बनारस के लिए, उसकी आधुनिकता के लिए, उसकी प्रगति के लिए कहीं ना कहीं बाधक नहीं बन गया है?