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Ganpati bappa moriya: कहां से आया गणपति बप्पा मोरिया, क्यों लगाते हैं यह जयकारा

Ganpati bappa moriya: कहां से आया गणपति बप्पा मोरिया, क्यों लगाते हैं यह जयकारा - Meaning of Ganpati bappa moriya
अजित वडनेरकर

गणपति बप्पा से जुड़े इस मोरया नाम के पीछे का राज है एक गणेश भक्त। कहते हैं कि चौदहवीं सदी में पुणे के समीप चिंचवड़ में मोरया गोसावी नाम के सुविख्यात गणेशभक्त रहते थे। कहां से आया गणपति बप्पा मोरिया?? पढ़ें रोचक आलेख...  
 
गणेशोत्सव के 10 दिनों तक चारों तरफ एक ही जयकारा सुनाई देता है गणपति बप्पा मोरिया, मोरिया रे मोरिया.... अब सवाल यह है कि यह मोरिया क्या है? मौर्य से इसका कोई ताल्लुक है या यह गणपति का ही यह कोई नाम है? जी नहीं इस मोरिया शब्द के पीछे का इतिहास बिलकुल ही अलग है और हमें यकीन है कि आपके लिए भी यह जानकारी नई ही होगी....
 
गणेश चतुर्थी से गणेश विसर्जन तक 'मो‍रिया' गुंजन की धूम रहती है। “गणपति बप्पा मोरया, मंगळमूर्ती मोरया, पुढ़च्यावर्षी लवकरया” अर्थात हे मंगलकारी पिता, अगली बार और जल्दी आना। मालवा में इसी तर्ज़ पर चलता है 'गणपति बप्पा मोरिया, चार लड्डू चोरिया, एक लड्डू टूट ग्या, नि गणपति बप्पा घर अइग्या। 
 
गणपति बप्पा से जुड़े इस मोरया नाम के पीछे का राज है एक गणेश भक्त। कहते हैं कि चौदहवीं सदी में पुणे के समीप चिंचवड़ में मोरया गोसावी नाम के सुविख्यात गणेशभक्त रहते थे। चिंचवड़ में इन्होंने कठोर गणेशसाधना की। कहा जाता है कि मोरया गोसावी ने यहां जीवित समाधि ली थी। तभी से यहां का गणेशमन्दिर देश भर में विख्यात हुआ और गणेशभक्तों ने गणपति के नाम के साथ मोरया के नाम का जयघोष भी शुरू कर दिया।
यह तो हम जानते ही हैं कि भारत में देवता ही नहीं, भक्त भी पूजे जाते हैं। आस्था के आगे तर्क, ज्ञान, बुद्धि जैसे उपकरण काम नहीं करते। आस्था के सूत्रों की तलाश इतिहास के पन्नों पर नहीं की जा सकती। आस्था में तर्क-बुद्धि नहीं, महिमा प्रभावी होती है। प्रथम दृष्टया तथ्य तो यही कहता है कि गणपति बप्पा मोरया के पीछे मोरया गोसावी ही हैं। दूसरा तथ्य यह कहता है कि 'मोरया' शब्द के पीछे मोरगांव के गणेश हैं। 
 
मोरया गोसावी के पिता वामनभट और मां पार्वतीबाई सोलहवीं सदी (मतांतर से चौदहवीं सदी) में कर्नाटक से आकर पुणे के पास मोरगांव नाम की बस्ती में रहने लगे। वामनभट परम्परा से गाणपत्य सम्प्रदाय के थे। प्राचीनकाल से हिन्दू समाज शैव, शाक्त, वैष्णव और गाणपत्य सम्प्रदाय में विभाजित रहा है। गणेश के उपासक गाणपत्य कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय के लोग महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में ज्यादा हैं। गाणपत्य मानते हैं कि गणेश ही सर्वोच्च शक्ति हैं।
 
इसका आधार एक पौराणिक सन्दर्भ है। उल्लेख है कि शिवपुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। उसके तीनों पुत्रों तारकाक्ष, कामाक्ष और विद्युन्माली ने देवताओं से प्रतिशोध का व्रत लिया। तीनों ने ब्रह्मा की गहन आराधना की। ब्रह्मा ने उनके लिए तीन पुरियों की रचना की जिससे उन्हें त्रिपुरासुर या पुरत्रय कहा जाने लगा। गाणपत्यों का विश्वास है कि शिवपुत्र होने के बावजूद त्रिपुरासुर-वध से पूर्व शिव ने गणेश की पूजा की थी इसलिए गणपति ही परमेश्वर हुए।
 
बहरहाल, गाणपत्य सम्प्रदाय के वामनभट और पार्वतीबाई मध्यकालीन आप्रवासन के दौर में पुणे के समीप मोरगांव में यूं ही आकर नहीं बस गए होंगे। मोरगांव प्राचीनकाल से ही गाणपत्य सम्प्रदाय के प्रमुख स्थानों में रहा है और शायद इसीलिए दैवयोग से प्रवासी होने को विवश हुए मोरया गोसावी के माता-पिता की धार्मिक आस्था ने ही गाणपत्य-बहुल मोरगांव का निवासी होना कबूल किया। इस आबादी को मोरगांव नाम इसलिए मिला क्योंकि समूचा क्षेत्र मोरों से समृद्ध था। यहां गणेश की सिद्धप्रतिमा थी जिसे मयूरेश्वर कहा जाता है। इसके अलावा सात अन्य स्थान भी थे जहां की गणेश-प्रतिमाओं की पूजा होती थी। थेऊर, सिद्धटेक, रांजणगांव, ओझर, लेण्याद्रि, महड़ और पाली अष्टविनायक यात्रा के आठ पड़ाव हैं।
 
गणेश-पुराण के अनुसार दानव सिन्धु के अत्याचार से बचने के लिए देवताओं ने श्रीगणेश का आह्वान किया। सिन्धु-संहार के लिए गणेश ने मयूर को अपना वाहन चुना और छह भुजाओं वाला अवतार लिया। मोरगांव में गणेश का मयूरेश्वर अवतार ही है। इसी वजह से इन्हें मराठी में मोरेश्वर भी कहा जाता है।
 
कहते हैं वामनभट और पार्वती को मयूरेश्वर की आराधना से पुत्र प्राप्ति हुई। परम्परानुसार उन्होंने आराध्य के नाम पर ही सन्तान का नाम मोरया रख दिया। मोरया भी बचपन से गणेशभक्त हुए। उन्होंने थेऊर में जाकर तपश्चर्या भी की थी जिसके बाद उन्हें सिद्धावस्था में गणेश की अनुभूति हुई।
 
तभी से उन्हें मोरया अथवा मोरोबा गोसावी की ख्याति मिल गई। उन्होंने वेद-वेदांग, पुराणोपनिषद की गहन शिक्षा प्राप्त की। युवावस्था में वे गृहस्थ-सन्त हो गए। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद वे पुणे के समीप पवना नदी किनारे चिंचवड़ में आश्रम बना कर रहने लगे। इस आश्रम में मोरया गोसावी अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियां चलाने लगे। उनकी ख्याति पहले से भी अधिक बढ़ने लगी।
 
समर्थ रामदास और संत तुकाराम के नियमित तौर पर चिंचवड आते रहने का उल्लेख मिलता है जिनके मन में मोरया गोसावी के लिए स्नेहयुक्त आदर था। मराठियों की प्रसिद्ध गणपति वंदना "सुखकर्ता-दुखहर्ता वार्ता विघ्नाची.." की रचना सन्त कवि समर्थ रामदास ने चिंचवड़ के इसी सिद्धक्षेत्र में मोरया गोसावी के सानिध्य में की थी।
 
चिंचवड़ आने के बावजूद मोरया गोसावी प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी पर मोरगांव स्थित मन्दिर में मयूरेश्वर के दर्शनार्थ जाते थे। कथाओं के मुताबिक मोरया गोसावी श्री गणेश की प्रेरणा से समीपस्थ नदी से जाकर एक प्रतिमा लाई और उसे चिंचवड़ के आश्रम में स्थापित किया। बाद में उन्होंने यहीं पर जीवित समाधि ली। उनके पुत्र चिन्तामणि ने बाद में समाधि पर मन्दिर की स्थापना की।
 
यही नहीं, आस-पास के अन्य गणेश स्थानों की सारसंभाल के लिए भी मोरया गोसावी ने काम किया। अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत भी मोरया गोसावी ने ही कराई और इस कड़ी के प्रथम गणेश मयूरेश्वर ही हैं अर्थात अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत मयूरेश्वर गणेश से ही होती है।   
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