पर्यावरण और मेंढकों की भूमिका
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डॉ. महाराज कृष्ण जैन जिसे हम प्रगति और विकास कहते हैं, उससे नई समस्याएँ कैसे पैदा होती हैं - इसका एक रोचक उदाहरण आज हम लेंगे। यातायात के साधन बढ़ जाने से आयात-निर्यात में वृद्धि हुई है। संसार के देशों में आपसी व्यापार बढ़ा है। इसका लाभ उठाते हुए दक्षिण भारत से कुछ व्यापारी मेंढकों की टाँगें बड़ी भारी मात्रा में विदेशों को भेजने लगे। वहाँ ये भोजन के रूप में पसंद की जाती हैं। इस व्यापार में व्यापारियों को बहुत ऊँचा मुनाफा है। क्योंकि मेंढक नदियों व तालाबों के किनारे भारी संख्या में मिलते हैं। सिर्फ उन्हें पकड़ना होता है। अत: मेंढकों की टाँगें डिब्बाबंद करने के बहुत से कारखाने खुल गए हैं। कुछ लोगों को रोजगार मिला। विदेशी मुद्रा भी आने लगी। प्रति वर्ष 20 करोड़ मेंढकों का निर्यात हो रहा है तथा अब सरकार ने इस व्यवसाय को क्रमश: बंद करने का निर्णय लिया है।किंतु मेंढकों का इतनी तेजी से सफाया करने के बहुत भयंकर परिणाम सामने आए हैं। तुम जानते हो कि मेंढक पानी व दलदल में रहने वाला जीव है। इसकी खुराक हैं वे कीड़े-मकोड़े, मच्छर तथा पतंगे, जो हमारी फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। अब हुआ यह कि मेंढकों की संख्या बेहद घट जाने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया। पहले मेंढक बहुत से कीड़ों को खा जाया करते थे, किंतु अब कीट-पतंगों की संख्या बढ़ गई और वे फसलों को भारी नुकसान पहुँचाने लगे। दूसरी ओर साँपों के लिए भी कठिनाई उत्पन्न हो गई। साँपों का मुख्य भोजन हैं मेंढक और चूहे। मेंढक समाप्त होने से साँपों का भोजन कम हो गया तो साँप भी कम हो गए। साँप कम होने का परिणाम यह निकला कि चूहों की संख्या में वृद्धि हो गई। वे चूहे अनाज की फसलों को चट करने लगे। इस तरह मेंढकों को मारने से फसलों को कीड़ों और चूहों से पहुँचने वाली हानि बहुत बढ़ गई। मेंढक कम होने पर वे मक्खी-मच्छर भी बढ़ गए, जो पानी वाली जगहों में पैदा होते हैं और मनुष्यों को काटते हैं या बीमारियाँ फैलाते हैं। कीड़ों को मारने के लिए कीटनाशक दवाओं का और अधिक प्रयोग किया जाने लगा। ये दवाएँ विदेशों से आयात की जाती हैं तथा बहुत महँगी हैं। अत: मेंढकों के निर्यात से होने वाली आय का कुछ भी लाभ नहीं हुआ। दूसरी ओर कीटनाशक दवाओं के अधिक प्रयोग से धरती और पानी में जहर की मात्रा बढ़ चली। यह जहर अनाज, साग, पात, फल आदि में भी चला जाता है। इस तरह हमारा पूरा भोजन विषाक्त बन रहा है। कीटनाशक जहर से मेंढकों के नन्हे बच्चे भी मर जाते हैं। जिससे मेंढकों की संख्या में और भी गिरावट आई है। परिणाम यह है कि कुछ वर्षों में निर्यात के लिए मेंढक तो बचेंगे नहीं, लेकिन प्रकृति का पूरा चक्र गड़बड़ा जाएगा। बजाय लाभ के सभी हानि में रहेंगे। |
प्रकृति बहुत दयालु और उदार है। प्रकृति का आंचल बहुत संपन्न है। यदि स्थानीय निवासी मेंढक खाकर अपनी आवश्यकता पूरी करते हैं, तो प्रकृति कुछ नहीं कहती। |
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इस तरह प्रकृति की एक अपनी व्यवस्था है। उसमें हर जीव-जंतु का, पेड़-पौधों का पूरा-पूरा महत्व है। कोई भी वस्तु फालतू या अनावश्यक नहीं है। सभी एक-दूसरे से जुड़ी हैं। एक जंजीर की कड़ियों या माला के दानों की तरह। सबका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। माला का धागा एक बार टूटा कि पूरी माला के मनके बिखर जाते हैं। हम इस चक्र को पूरी तरह नहीं समझते। सामयिक लाभ के लिए इसे नष्ट कर बैठते हैं। प्रकृति बहुत दयालु और उदार है। प्रकृति का आंचल बहुत संपन्न है। यदि स्थानीय निवासी मेंढक खाकर अपनी आवश्यकता पूरी करते हैं, तो प्रकृति कुछ नहीं कहती। किंतु जब मनुष्य अंधाधुंध किसी वस्तु अथवा जीव-जंतु के पीछे पड़ जाता है तो प्रकृति इसे सहन नहीं कर पाती। यह अपने पाँव, आप कुल्हाड़ी मारना है।बच्चो, तुमने पर्यावरण की चर्चा जरूर सुनी-पढ़ी होगी। मिट्टी, पानी, खेती, कीट, पतंग, मेंढक, साँप, चूहे, मनुष्य आदि ये सभी पर्यावरण के अंग हैं। इस पर्यावरण को दूषित न किया जाए। इसका विनाश न किया जाए। प्रकृति, पर्यावरण का ध्यान स्वयं रखती है। इसके काम में बाधा न डाली जाए।