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Last Updated : शनिवार, 22 मई 2021 (13:07 IST)

1970 से अब तक मनुष्‍यों ने दुनिया में 60 फीसदी घटा दी जीव-जंतुओं की संख्या

1970 से अब तक मनुष्‍यों ने दुनिया में 60 फीसदी घटा दी जीव-जंतुओं की संख्या - Biodiversity, Environment, Forest, Pollution
नई दिल्ली, मानव और प्रकृति के बीच एक महत्वपूर्ण और स्थायी संबंध है। मनुष्य विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन करता रहा है, जिसके कारण वन्यजीवों के साथ-साथ प्रकृति के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा हो गया है।
मनुष्य ने इस कथित विकासक्रम में वायु एवं जल को प्रदूषित किया है। इसी तरह, वन-संपदा के अनियंत्रित दोहन ने वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है।

वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की रिपोर्ट लिविंग प्लैनेट के अनुसार प्राकृतिक क्षेत्रों में लगातार बढ़ती मानवीय गतिविधियों के कारण वर्ष 1970 के बाद से अब तक दुनियाभर में जीव-जंतुओं की संख्या में 60 फीसदी कमी आई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वन्य क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियां इसी तरह बढ़ती रहीं, तो दुनिया में वन्यजीव अपने अंत की ओर अग्रसर हो जाएंगे।

पर्यावरण में संतुलन बनाए रखने के लिए जैव-विविधता बेहद महत्वपूर्ण है। जैव-विविधता से तात्पर्य विभिन्न प्रकार के जीव−जंतु और पेड़-पौधों की प्रजातियों से है। वैज्ञानिक मानते हैं कि जैव-विविधता की कमी से बाढ़, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ जाता है।

जैव-विविधता से संबंधित विषयों के संदर्भ में जागरूकता विकसित करने के लिए प्रति वर्ष 22 मई को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस की थीम ‘प्रकृति में हमारे समाधान’ है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शुरू किए गए इस दिन को 'विश्व जैव-विविधता संरक्षण दिवस' भी कहा जाता है।

वर्ष 1993 में सबसे पहले जैव-विविधता के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया गया। वर्ष 2000 तक यह दिवस 29 दिसंबर को आयोजित किया जाता था, क्योंकि इस दिन जैव-विविधता पर कन्वेंशन लागू हुआ था। लेकिन, बाद में इसे 29 दिसंबर से शिफ्ट करके 22 मई कर दिया गया। अंतरराष्ट्रीय जैव-विविधता सम्मेलन, जो एक बहुपक्षीय संधि है, के तहत वर्ष 1992 में ब्राज़ील में हुए संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी सम्मेलन के दौरान सहमति बनी थी। इसके तीन प्रमुख लक्ष्य हैं- जैविक विविधता का संरक्षण, प्रकृति का टिकाऊ उपयोग और आनुवांशिकी-विज्ञान से मिलने वाले लाभों का निष्पक्ष व न्यायोचित ढंग से वितरण।

अंतरराष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस का उद्देश्य ऐसे पर्यावरण का निर्माण करना है, जो जैव-विविधता में समृद्ध, टिकाऊ एवं आर्थिक गतिविधियों हेतु अवसर प्रदान कर सके। इसमें विशेष तौर पर वनों की सुरक्षा, संस्कृति, जीवन के कला शिल्प, संगीत, वस्त्र, भोजन, औषधीय पौधों का महत्व आदि को प्रदर्शित करके जैव-विविधता के महत्व और उसके न होने पर होने वाले खतरों के बारे में जागरूक करने जैसे विषय शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र की प्रोटेक्टेड प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार जैव-विविधता के नजरिये से महत्वपूर्ण एक-तिहाई क्षेत्रों, जैसे- भूमि, अन्तर्देशीय जलक्षेत्र, एवं महासागरों को किसी प्रकार की सुरक्षा प्राप्त नहीं है। विश्व संरक्षण निगरानी केंद्र (डब्ल्यूसीएमसी) के निदेशक नेविल एश ने कहा है कि सुरक्षा प्राप्त क्षेत्र, जैव-विविधता को लुप्त होने से रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं और हाल के वर्षों में रक्षित व संरक्षित क्षेत्रों के वैश्विक नैटवर्क को मजबूती प्रदान करने में बड़ी प्रगति भी हुई है।

पूरे विश्व में जैव-विविधता संरक्षण मुख्य रूप-से मनुष्य द्वारा जल, जंगल, जमीन एवं महासागरों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार पर निर्भर है।

पृथ्वी पर अधिकांश जैव-विविधता वन्य क्षेत्रों में फलती-फूलती है। इसीलिए, वनों का संरक्षण कई मायनों में बेहद अहम हो जाता है। वर्ष 2020 में स्टेट ऑफ द वर्ल्ड फॉरेस्ट रिपोर्ट के अनुसार वनों में विभिन्न वृक्षों की 60 हजार से अधिक प्रजातियां पायी जाती हैं। इसी तरह, 80 प्रतिशत उभयचर प्रजातियां, पक्षियों की 75 फीसदी प्रजातियां, और पृथ्वी के स्तनपायी जीवों की 68 प्रतिशत प्रजातियां पायी जाती हैं। इन प्रजातियों के संरक्षण के लिए प्रभावी प्रयास आवश्यक हैं।

दूसरी तरफ मानवीय गतिविधियों का प्रभाव समुद्री जीव-जन्तुओं पर भी पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार वर्ष 1980 के बाद से समुद्री जल में 10 गुना प्लास्टिक प्रदूषण की बढ़ोतरी देखने को मिली है, जिसके कारण कम से कम 267 समुद्री प्रजातियों के लिए खतरा बढ़ गया है। इन प्रजातियों में करीब 86 फीसदी समुद्री कछुए, 44 फीसदी समुद्री पक्षी और 43 प्रतिशत समुद्री स्तनपायी जीव शामिल हैं।

मनुष्य ने अपने विकास के लिए संपूर्ण प्रकृति और पर्यावरण को विनाश की ओर अग्रसर कर दिया है। आज प्रकृति में ऐसा कोई स्थान नही है, जहां किसी भी प्रकार का मानवीय हस्तक्षेप न हो। मनुष्य यह भूल जाता है कि उसका विकास प्रकृति के सह-आस्तित्व पर निर्भर करता है। आज मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के प्रति सजग अवश्य हुआ है, लेकिन पर्यावरण की रक्षा के प्रति उसकी रफ्तार बेहद धीमी है, जिसे उचित प्रारूप में गति देने की आवश्यकता है। (इंडिया सांइस वायर)
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