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Written By समय ताम्रकर

जो काम मुझे मजा दे वही करता हूं : फारुख शेख

Farooq Sheikh | जो काम मुझे मजा दे वही करता हूं : फारुख शेख
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फारुख शेख इस समय अपनी आने वाली फिल्म ‘लिसन... अमाया’ के प्रचार में व्यस्त हैं। फिल्म प्रमोशन उनके लिए एक नया और थका देने वाला अनुभव है। पहली बार वे ऐसा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि यह तो फिल्म बनाने से भी ज्यादा कठिन काम है। फिल्मों में फारुख का सफर 1973 में रिलीज हुई गरम हवा से शुरू हुआ जो 40 वर्षों बाद सतत भी जारी है। उन्होंने टीवी और स्टेज के लिए भी काम किया है। पेश है फारख से बातचीत के मुख्य अंश :

आपने फिल्म, टीवी और नाटक भी किए हैं। एक अभिनेता के तौर पर सबसे ज्यादा मजा किस माध्यम में आया?
तीनों माध्यम का अपना ही मजा है।

आप समानांतर सिनेमा के साथ-साथ कमर्शियल फिल्मों का भी हिस्सा रहे हैं। आपको सफलता भी मिली। आपके फैंस को इस बात की शिकायत है कि आप इतने कम नजर क्यों आते हैं?
इसकी दो वजह हैं। मैं कम काम करना पसंद करता हूं और वही काम करता हूं जिसे करने में मुझे मजा आए। यदि आप अपने काम को एंजॉय ना करें तो वह नौ से पांच की बोरिंग जॉब की तरह हो जाएगी। मुझे ऋषिकेश मुखर्जी की बात याद आती है। वे कहते थे कि फिल्म सफल होगी या नहीं, ये हमारे हाथ में नहीं है इसलिए फिल्म बनने की जो प्रक्रिया है उसका आनंद उठाओ। वही मैं करता हूं।

आपने जब बॉलीवुड में करियर शुरू किया था तब सिर्फ मसाला फिल्में थिएटर में लगती थी और समानांतर सिनेमा को सिनेमाघर नहीं मिलते थे, लेकिन अब न केवल सिनेमाघर बल्कि दर्शक भी इन फिल्मों को मिल रहे हैं। क्या आप मानते हैं कि भारतीय दर्शकों की रूचि में बदलाव आया है?
दर्शकों की रूचि में बदलाव आया तो है। अब पढ़ा-लिखा वर्ग भी सिनेमाघर आता है। उसे मसाला फिल्मों के साथ अच्छे कंटेंट वाली फिल्में भी पसंद आ रही हैं। यही कारण है कि विकी डोनर और पान सिंह तोमर जैसी मूवी भी अच्छा बिजनेस करने लगी हैं। इसके लिए मैं मल्टीप्लेक्स को धन्यवाद कहना चाहूंगा। यह स्वर्ग से भेजे गए तोहफे के समान है। डिजिटल प्रिंट के कारण भी इस तरह की फिल्मों का प्रदर्शन संभव हो पाया है। उस दौर में समानांतर सिनेमा के दर्शक थे, लेकिन इतने बड़े हॉल में 70-80 लोग आते तो किराया भी नहीं निकल पाता था। फिर अमिताभ बच्चन की फिल्मों में ज्यादा मुनाफा होता था, ऐसे में अमोल पालेकर या फारुक शेख की फिल्म कौन लगाता।

फारुक शेख का नाम लेते ही ‘चश्मे बद्दूर’ का नाम याद आता है। ये आपके करियर की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। इसका डेविड धवन रिमेक बना रहे हैं। क्या आप रिमेक को सही मानते हैं?
इसमें सही या गलत जैसा कुछ भी नहीं है। यह तो मौका भी है और चुनौती भी। मौका इसलिए कि बना-बनाया प्लेटफॉर्म है। दर्शकों को पहले से ही पता रहता है कि वे क्या देखने जा रहे हैं। चुनौती यह रहती है कि पुरानी फिल्म के स्तर से आगे जाया जाए। एक उमराव जान मुजफ्फर अली ने बनाई थी और एक जेपी दत्ता ने। दोनों में तुलना हुई। जेपी दत्ता ने कई बेहतरीन फिल्में बनाई हैं, लेकिन उमराव जान फ्लॉप हो गई।

‘चश्मे बद्दूर’ के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?
बहुत सारी यादें उस फिल्म से जुड़ी हुई हैं। हमें निर्माता गुल आनंद ने 35 दिन में फिल्म खत्म करने का आदेश दिया था। दिल्ली में जाड़े में शूटिंग हुई और जाड़े के वक्त सनलाइट बहुत कम समय के लिए रहता था। इसलिए हम चार-पांच घंटे ही शूटिंग कर पाते थे। 35 दिन का शेड्यूल 67 दिन तक चला। गुल आनंद सुलझे हुए इंसान हैं इसलिए उन्होंने किसी प्रकार की आपत्ति नहीं ली। फिल्म की निर्देशक सई परांजपे को भी विश्वास था कि फिल्म अच्छी बन रही है और अंत में ऐसा हुआ भी। दीप्ति, रवि वासवानी, राकेश बेदी, सई परांजपे, हम सबमें अच्छी ट्यूनिंग बन गई थी। एक पिकनिक जैसा माहौल था।

लिसन... अमाया के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
यह नए फिल्मकारों की पहली फिल्म है। मैंने अनुभव किया है कि जो शख्स पहली बार फिल्म बनाता है, दाने बराबर भी कसर बाकी नहीं रखता। जान लगा देता है। मैं बहुत सारे निर्देशकों की पहली फिल्म का हिस्सा रहा हूं। जब लिसन...अमाया की स्क्रिप्ट मुझे दी गई तो ये दिलचस्प लगी। यह बंदर के तमाशे की तरह नहीं है कि देखा और भूल गए। इसे देखने के बाद जब आप थिएटर से निकलेंगे तो एहसास के साथ निकलेंगे। इस फिल्म में हंसी-मजाक है, मनोरंजन है, लेकिन साथ में एक एहसास भी है।

दीप्ति नवल के साथ आपकी जोड़ी खूब जमी है। उनके बारे में कोई ऐसी बात बताना चाहेंगे जो ज्यादा लोग नहीं जानते हों?
वे खाने-पीने के मामले को लेकर बेहद परहेजी हैं। घास-फूस भी खा लेती हैं। मैं ठहरा खाने का शौकीन। हर शहर में खाने का ठिया ढूंढता रहता हूं और इसको लेकर वे मुझे टोकती रहती हैं।

नए कलाकारों में आप किसे पसंद करते हैं?
सारे कलाकार इतनी तैयारी और सूझबूझ के साथ आते हैं कि परदे पर वे कमाल कर देते हैं। चार-पांच साल का बच्चा भी पूरे आत्मविश्वास और काबिलियत से भरा नजर आता है। हमारे वक्त ऐसा नहीं था। शायद यही जनरेशन का बदलाव है। किसी एक का नाम लेना मुश्किल है।

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एक संवेदनशील कलाकार होने के नाते देश के हालात पर क्या कहना चाहेंगे?
प्रजातंत्र कोई पिकनिक नहीं है। हर नागरिक से ये सजगता या चौकन्नापन चाहता है। हर किसी को इसमें योगदान देना चाहिए। यह नहीं कि पांच साल में एक बार वोट दिया और लंबी तान कर सो गए। हम सो जाते हैं तो वे मालिक बन जाते हैं। हम अपनी जिम्मेदारी समझेंगे तभी सुधार होगा। आज आम आदमी चुनाव लड़ने का खर्चा नहीं उठा सकता क्योंकि बड़ी पार्टियों ने सिस्टम को हाइजेक कर लिया है। आज के नेता मायूस करते हैं, लेकिन गलती हमारी भी है क्योंकि हमने ही उन्हें चुना है। अच्छे और ईमानदार लोगों को लाना चाहिए तभी भला हो सकेगा।