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Written By Author गिरीश उपाध्‍याय
Last Updated : मंगलवार, 29 सितम्बर 2015 (15:45 IST)

शिक्षकों का पेट और बयानों के चने-फुटाने

शिक्षकों का पेट और बयानों के चने-फुटाने - teachers
हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल ने अपनी सार्वकालिक रचना ‘राग दरबारी’ में शिक्षा प्रणाली को लेकर बहुत ही मार्के की बात कही है, वे कहते हैं- ‘‘वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।’’ मैं बस इसमें थोड़ा-सा संशोधन करते हुए कहना चाहूंगा कि अब इसमें शिक्षा पद्धति के साथ शिक्षक को भी जोड़ लिया जाना चाहिए।
 
ऐसा मैंने इसलिए कहा कि हमारे मध्यप्रदेश में पिछले कुछ दिनों से शिक्षकों के साथ ऐसा ही व्यवहार हो रहा है। किसी को यदि यकीन न हो तो ये दो बयान पढ़कर देख लीजिए- 
 
पहला बयान मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का है, जिन्होंने  शिक्षक आंदोलन को लेकर मीडिया से कहा- ‘‘अध्यापक लोगों को जितना दिया है उसके बाद भी ये अध्यापक.... इनका पेट नहीं भरा..... एग्रीमेंट अध्यापकों ने तोड़ा है, शासन और इनके बीच जो एक सद्भावपूर्ण निर्णय हुआ है उस निर्णय का उल्लंघन ये तथाकथित कुछ सीखे सिखाए नेताओं ने अध्यापकों को बरगलाया था... और इनको यह भी होश नहीं कि ईद जैसे त्योहार पर ऐसे आक्रामक तरीके से आंदोलन करके सरकार को दबा लेंगे... ये कुछ साजिशकर्ता लोगों ने इस आंदोलन को हवा दी थी, वो हवा निकल गई... 500 रुपए में चने-फुटाने खाकर काम करने वाले टीचर आज 15 हजार से लेकर 25 हजार के बीच में उनको वेतन मिल रहा है....।’’
 
दूसरा कथन प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष रघुनंदन शर्मा का है। रविवार को भोपाल में हुई भाजपा पदाधिकारियों की बैठक के हवाले से मीडिया में शर्मा का जो कथन आया है, उसमें वे कहते हैं- ‘‘अध्यापक आंदोलन सत्ता-संगठन की गलती के कारण ही खड़ा हुआ। आंदोलन की वजह हम ही तो हैं। इन्हें हम ही सिर पर चढ़ाते हैं। पहले मुरलीधर पाटीदार को हमने नेता बनाया। पार्टी से टिकट देकर विधायक बना दिया। ऐसे ही मंदसौर में पंचायत सचिव दिनेश शर्मा को आगे बढ़ाया। अब वो विधायक के टिकट की दावेदारी कर रहा था। सत्ता से लाभ लेने की कोशिश करने वाले ऐसे लोगों से पार्टी को बचना चाहिए।’’
 
ये दोनों बयान इसलिए चौंकाने वाले हैं क्योंकि इनसे प्रदेश में सरकार और संगठन के बीच तालमेल के तमाम दावे खारिज होते नजर आते हैं। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि संगठन के नेताओं के विपरीत मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने शिक्षक आंदोलन को लेकर मीडिया से कहा था- ‘‘जहां तक अध्यापकों का सवाल है मैं उनके साथ हूं, हमेशा संवेदनशील रहा हूं और उसी संवेदना के साथ सोचता हूं, अध्यापक मेरे दिल में बसते हैं, सदैव उनकी समस्याओं के समाधान के लिए मैंने प्रोएक्टिव और सकारात्मतक कदम उठाए हैं....।’’
 
दरअसल प्रदेश में कुछ दिनों से बड़े नेताओं के अगंभीर बयान लगातर आ रहे हैं। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप चलना अलग बात है लेकिन भाषा का संयम तो बना ही रहना चाहिए। और फिर कोई राजनीतिक दल अपने प्रतिद्वंद्वी दल के खिलाफ इस तरह की बात करे तो एक बार वह उसके औचित्य पर बहस कर सकता है, लेकिन समाज के एक समूह के बारे में राजनीतिक दल के मुखिया द्वारा इस तरह के शब्दों के इस्‍तेमाल को कैसे जायज ठहराया जा सकता है? सरकारें यदि कानून व्यवस्था को लेकर आंदोलनों के प्रति सख्ती की बात करें तो भी समझ में आता है लेकिन राजनीतिक दलों का सांगठनिक ढांचा तो यह जोखिम मोल नहीं ले सकता। 
 
दूसरा बड़ा सवाल विश्वसनीयता का है। भाजपा अध्यक्ष के बयान के बाद पार्टी में अंदरूनी तौर पर जो भी बवाल मचा हो, लेकिन उसका नतीजा यह हुआ कि अध्यक्षजी ने फिर मीडिया से कहा- ‘‘मैंने तो दरअसल दिग्विजयसिंह की बात की थी क्योंकि उनके समय ही शिक्षकों को 500 रुपए मिला करते थे और वे चने- फुटाने खाकर जीने पर मजबूर थे, हमारी सरकार ने तो इनके वेतन और मान-मर्यादा का पूरा ध्यान रखा है।’’ 
 
इस बयान ने मामले को और पेचीदा बना दिया है क्योंकि जिसने भी अध्यक्ष को पहले वाला बयान देते सुना होगा वह अच्छी तरह जानता है कि वह सीधे-सीधे अध्यापकों को लक्ष्य बनाकर ही दिया गया था। उसमें दिग्विजयसिंह एंगल कहीं से नहीं था। खुद के ही बयान की ऐसी तोड़मरोड़ से इतने बड़े पद पर बैठे व्यक्ति के शब्दों का महत्व ही खत्म हो जाता है। मीडिया की तो ‘मजबूरी’ है आपका बयान छापने या दिखाने की लेकिन आप खुद सोचिए कि इससे आपकी विश्वसनीयता बढ़ेगी या घटेगी? 
 
चूंकि चुनाव में संगठन को ही वोट मांगने लोगों के पास जाना पड़ता है। इसलिए उसका लोगों के साथ ज्यादा नजदीकी रिश्ता होता है। हमारे यहां बड़े-बूढ़े यह कहते रहे हैं कि कुछ भी करना पर किसी के पेट पर लात मत मारना। कबीर ने कहा है ना कि- ‘‘दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय। मरे ढोर की चाम से, लोह भसम हो जाय।’’ शिक्षकों का मामला भी ऐसा ही है। ऐसे बयानों का असर आज भले ही उतना नजर न आए लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे मामले चुनाव के समय बहुत भारी पड़ते हैं।