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Last Updated :बॉन, जर्मनी , मंगलवार, 15 दिसंबर 2015 (12:37 IST)

जर्मनी को अब चाहिये शरणार्थियों से शरण

सीरियाई शरणार्थियों के भंवर में फंसता जा रहा है जर्मनी, इस मुद्दे पर जर्मनी के वरिष्ठ पत्रकार राम यादव का लेख...

जर्मनी को अब चाहिये शरणार्थियों से शरण - Refugees Crisis in Germany By Ram Yadav
शरणार्थियों के प्रति जर्मनी की दरियादिली अब अपनी सीमाएं छूने लगी है। इससे पहले कि जर्मनी खुद ही शरणार्थियों की बाढ़ में डूब जाए, उनसे शरण पाने के उपाय  करने लगा है। 

जर्मनी क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से भारत में मध्य प्रदेश के लगभग बराबर है। भारत की तुलना में काफ़ी छोटा देश होते हुए भी अपनी संपन्नता और अपने संविधान की धारा '16 ए'  के कारण वह विदेशी शरणार्थियों को हमेशा ही लुभाता रहा है। संविधान की इस धारा का कहना है, ''राजनीतिक अत्याचारपीड़ित जर्मनी में शरण पाने के अधिकारी हैं।'' यह धारा द्वितीय विश्वयुद्ध के समय के जर्मनी के कुकर्मों का प्रयश्चित करने के साथ-साथ यह भी याद दिलाती है कि जिस तरह उस समय हिटलर के अत्याचारपीड़ितों को दूसरे देशों ने शरण दी, उसी तरह नया लोकतांत्रिक जर्मनी दूसरे देशों के अत्याचारपीड़ितों को अपने यहां शरण देगा।

कुछ साल पहले तक मुख्यतः पूर्वी यूरोप के भूतपूर्व कम्यनिस्ट देशों, तुर्की, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के शरणार्थी जर्मनी में भीड़ लगाया करते थे। किंतु, इधर कुछ समय से, जब से मध्यपूर्व के अरब देशों में भयंकर राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है, इराक़ और सीरिया से आने वाले शरणार्थियों की बाढ़-सी आ गई है। इन दोनों देशों में गृहयुद्ध जैसी स्थिति और इस बीच उन के काफ़ी बड़े हिस्से पर अपने आप को इस्लामी ख़लीफ़त कहने वाले इस्लामी स्टेट (आईएस) का अधिकार हो जाने से वहां भगदड़ मच गई है। 

एक ही साल में 10 लाख शरणार्थी : इस भगदड़, और सोशल मीडिया में जर्मनी की उदारता के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर फैलाई गई अफ़वाहों का परिणाम है कि 2014 में जहां कुल 3,63,000 शरणार्थी जर्मनी पहुंचे, वहीं 2015 में नवंबर के अंत तक यह संख्या बढ़ कर 9,65,000 हो गई। 4,84,000 हज़ार शरणार्थी सीरियाई हैं, बाक़ी मुख्य रूप से इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान के हैं। गत सितंबर में स्थिति उस समय बहुत ही हृदयविदारक हो गई थी, जब हंगरी यूरोपीय संघ के नियमों का पालन करते हुए तुर्की और ग्रीस से हो कर आ रहे हज़ारों शरणार्थियों का पंजीकरण करने के लिए उन्हें रोकने लगा। 

जर्मनी की चांसलर (प्रधानमंत्री) अंगेला मेर्कल ने उस समय यह कह कर सबको अचंभित कर दिया कि जर्मनी सीरिया से आ रहे सभी शरणार्थियों को बिना पंजीकरण के भी स्वीकार करेगा। सीरिया वालों को न्यूनतम औपचारिकता के साथ शरण दी जायेगी और उन्हें लौटाया नहीं जायेगा। यह सुनते ही दूसरे शरणार्थियों ने भी मान लिया कि ''मदर मेर्कल'' ने अपने दरवाज़े सब के लिए खोल दिए हैं। जर्मनी के लोग भी भौचक्के रह गए कि लाखों मुस्लिम शरणार्थियों को जर्मनी के ईसाई समाज में घुलाना-मिलाना क्या संभव हो पाएगा? चांसलर मेर्कल बार-बार यही दुहराती रहीं कि काम मुश्किल तो है, ''लेकिन हम कर लेंगे।'' उन्होंने शरणार्थियों की कोई अधिकतम संख्या तय करने से भी यह कह कर मना कर दिया की कोई सीमा बांधना ''संविधान की भावना के विरुद्ध होगा।''

चांसलर मेर्कल की ख़ामख़याली : चांसलर मेर्कल को आशा ही नहीं, पूरा विश्वास था कि शरणार्थियों का सारा बोझ जर्मनी को अकेले ही नहीं ढोना पड़ेगा। 28 देशों वाले यूरोपीय संघ के दूसरे देश भी हाथ बंटाएंगे। शरणार्थियों के वितरण की एक कोटा-प्रणाली बनेगी। यूरोपीय संघ के दूसरे देश भी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार शरणार्थियों को लेंगे। उनके रहने-जीने की व्यवस्था करेंगे। लेकिन, जिस चांसलर मेर्कल की यूरोपीय संघ में एकछत्र हेकड़ी चला करती थी, शरणार्थियों के लिए कोटे के प्रश्न पर उनकी हर तरफ किरकिरी होने लगी। हंगरी, क्रोएशिया, स्लोवेनिया, सर्बिया इत्यादि पूर्वी यूरोपीय देश तो अपने यहां से गुज़र रही शरणार्थियों की अनियंत्रणीय भीड़ के लिए चांसलर मेर्कल को रात-दिन कोस ही रहे हैं, फ्रांस, इटली, ब्रिटेन या नीदरलैंड जैसे जर्मनी के पश्चिमी पड़ोसी भी सिर खुजला रहे हैं कि क्या सोच कर उन्होंने शरणार्थियों को खुला निमंत्रण दे दिया और अब भी उस पर अटल हैं?

जर्मनी ने तो अपने दरवाज़े खोल दिये, जबकि विदेशियों को शरण देने के मामले में पश्चिमी यूरोप के डेनमार्क और स्वीडन जैसे सदा उदार रहे देशों तक ने मध्यपूर्व के शरणार्थियों के लिए अपने दरवाज़े बंद कर दिये। उन्हें डर है कि नए शरणार्थिंयों के आने से उनकी अपनी जनता के बीच स्थानीय दक्षिणपंथी पार्टियों के प्रति समर्थन और बढ़ेगा। उग्र-दक्षिणपंथियों का कोप और भी उग्र होने लगेगा, जिससे निपट पाना उनके लिए दुष्कर हो जाएगा। फ्रांस की क्षेत्रीय परिषदों के लिए दिसंबर में हुए चुनावों में मुसलमानों सहित सभी विदेशियों का विरोध करने वाली दक्षिपंथी पार्टी 'फ्रों नास्योनाल' (नैश्नल फ्रंट/राष्ट्रीय मोर्चा) भारी सफलता और उसका सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना इस आशंका को सही साबित करता है कि यूरोपीय देशों की मूल जनता अपने यहां अब और अधिक विदेशी नहीं देखना चाहती।

नहीं चली चांसलर मेर्कल की : चांसलर मेर्कल ने जर्मनी आ रहे शरणार्थियों को अन्य देशों में भी बांटने के लिए यूरोपीय संघ के शिखर स्मेलनों में बहुत हाथ-पैर मारे। तब भी, संघ के 28 देशों में से केवल नौ देश ही, और वे भी केवल 1,60,000 मान्यताप्राप्त शरणर्थियों के वितरण-कोटे पर सहमत हुए। इस सहमति के बावजूद दिसंबर आने तक सौ शरणार्थियों का भी वितरण नहीं हो पाया था। मन ही मन सब का यही मानना है कि शरणार्थियों को वही संभाले, जिसने इस अंतहीन बला को न्यौता दिया है यानी जर्मनी। जर्मनी यदि अपने आर्थिक बाहुबल के साथ-साथ अपनी मानवीयता व उदारता का भी सिक्का जमाना चाहता है, तो अकेले अपने ही बल-बूते पर जमाए!  

हंगरी के प्रधानमंत्री विक्तोर ओर्बान तो जर्मनी पर ''नैतिकता के आतंकवाद'' का आरोप लगाते हुए  बार-बार कह चुके हैं कि शरणार्थी ''हमारी नहीं, जर्मनी की समस्या हैं।'' केवल 20 लाख की जनसंख्या वाले स्लोवेनिया के प्रधानमंत्री मीरो सेरार का कहना है, ''बाल्कन प्रायद्वीप पर यूरोपीय एकता दांव पर लगी हुई है।'' पूर्वी यूरोप के वे सभी दर्जन-भर भूतपूर्व कम्युनिस्ट देश आज जर्मनी को ठेंगा दिखा रहे हैं, जिन्हे एक दशक पहले जर्मनी ने ही ज़ोर देकर एक ही सांस में यूरोपीय संघ में भर्ती कराया था इसलिए, ताकि रूस उन्हें कहीं दुबारा अपनी छत्रछाया में ना खींच ले। हंगरी और स्लोवेनिया तो शरणार्थियों के प्रश्न पर जर्मनी को यूरोपीय संघ के सर्वोच्च न्यायलय तक में घसीटने की सोच रहे हैं।

यूरोपीय संघ के अध्यक्ष नाराज़ : यूरोपीय संघ के वर्तमान अध्यक्ष और इससे पहले पोलैंड के प्रधानमंत्री रह चुके दोनाल्द तुस्क पूरे संघ का अध्यक्ष होने के नाते किसी देश के पक्ष-विपक्ष में नहीं बोलते। लेकिन, शरणार्थी समस्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते ही जाने से वे भी अपना मुंह बंद नहीं रख पाए। विभिन्न देशों के  मीडिया से कह चुके हैं, ''कुछ राजनेता कहते हैं कि शरणार्थियों की लहर इतनी बड़ी हो चुकी है कि उसे रोका नहीं जा सकता। जबकि कहना यह चाहिये कि शरणार्थियों की लहर कहीं इतनी बड़ी न हो जाए कि उसे रोका ही न जा सके'', यानी उसे अब रोकना ही होगा।

तुस्क का कहना है कि ''जर्मनी सहित यूरोप में कोई (देश) इतनी बड़ी संख्या में शरणर्थियों को लेने के लिए तैयार नहीं है।'' यहां तक कि शरणर्थियों के वितरण-कोटे को लेकर जर्मनी द्वारा लगातार डाले जा रहे दबाव को उन्होंने ''राजनीतिक बाध्यीकरण'' की संज्ञा देदी। जर्मनी की चांसलर मेर्कल पर अप्रत्क्ष निशाना साधते हुए उन्होंने यह तीर भी चला दिया कि शरणार्थियों के लिए दरवाज़ा पूरा खोल कर वे ''यूरोप की सुरक्षा को संकट में'' डाल रही हैं। ''आप्रवासियों और शरणर्थियों की जांच के लिए केवल एक मिनट में उंगलियों के निशान लेने भर से काम नहीं चल सकता,'' यूरोपीय संघ के अध्यक्ष का कहना है। यह इशारा है कि शरणार्थिंयों की भारी संख्या के कारण जर्मनी की सीमाओं पर उनकी ठीक से जांच-परख नहीं हो पाने का आतंकवादी लाभ उठा सकते हैं।
इस लेख का दूसरा भाग पढ़ना न भूलें, तो यूरोप वाले एक दिन पछताएंगे...