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नर्मदा घाटी : धीरज तो वृक्ष का

नर्मदा घाटी : धीरज तो वृक्ष का - narmada ghati
-चिन्मय मिश्र
 

 

 
'अफलज, सुर सदा सी रह रहे, वद ना लाख करोड़।
सबको पहले कुद पड़, पीछे न आवे मोड़।।'
 
अफजल साहब
 
'अफजल साहब कहते हैं कि जो शूरवीर होते हैं, वे लाखों-करोड़ों शत्रुओं का पता नहीं करते। वे सबसे पहले रणभूमि में कूद पड़ते हैं और कभी मुंह नहीं मोड़ते।' -गांधी
 
आज से करीब 250 वर्ष पहले बड़वानी (मध्यप्रदेश) की गलियों में इकतारा बजाते और रामनाम जपते अफजल साहब ने सोचा भी नहीं होगा कि नर्मदा घाटी में इक्का-दुक्का नहीं बल्कि ऐसे शूरवीरों की पूरी सेना खड़ी हो जाएगी, जो विपक्ष की अगाध शक्ति व सत्ता की परवाह किए बिना अपने तरह की अनूठी रणभूमि में बिना आगा-पीछा सोचे कूद पड़ेगी। 
 
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने जब सरदार सरोवर बांध पर पहली बार प्रश्न उठाए तो शायद उसे भी अंदाजा नहीं होगा कि उनका संघर्ष पीढ़ियों की सीमा पार कर लेगा। आज आंदोलन के साथ तीसरी पीढ़ी जुड़ गई है। विजय अभी दूर कहीं क्षितिज पर दिखाई तो देती है, लेकिन बढ़ते कदमों के साथ वह पीछे घिसटती-सी दिखाई पड़ती है। परंतु नर्मदा घाटी में निवासरत मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात का डूब प्रभावित समुदाय जानता है कि वह एक न एक दिन इस क्षितिज को पा ही लेगा।
 
पिछले दिनों मप्र उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ में न्यायमूर्ति एससी शर्मा की एकल पीठ के निर्णय ने डूब प्रभावितों की सच्चाई और संघर्ष के प्रति उनके विश्वास को नवजीवन प्रदान किया है। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) ने सरदार सरोवर जलाशय (बांध) के लिए गठित शिकायत निवारण प्राधिकरण (जीआरए) के निर्णय, कि प्रत्येक खातेदार फिर चाहे वह बालिग व शादीशुदा लड़की हो या नाबालिग उसे पुनर्वास नीति के अंतर्गत वर्णित सभी लाभ प्राप्त करने का अधिकार है, के खिलाफ मप्र उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। 
 
एनवीडीए विरुद्ध हीरुबाई वाले इस मुकदमे में उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्येक खातेदार को पुनर्वास नीति का संपूर्ण लाभ मिलना ही चाहिए। किसी प्रकार का लैंगिक (जेंडर) भेदभाव अस्वीकार्य है। ऐसी करीब 110 याचिकाएं अभी लंबित हैं। इस निर्णय में करीब 15 याचिकाओं का निपटारा हुआ है। इसके अलावा निर्णय में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक कब्जाधारी को भी 2 हैक्टेयर भूमि देना ही पड़ेगी। इसी के साथ सह-स्वामित्व वाले मामलों में भी यह निर्णय लागू होगा।
 
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने नबआं विरुद्ध मध्यप्रदेश शासन के मामले में निर्णय दिया था कि पुनर्वास उस व्यक्ति के (जीवन) स्तर की पुनर्स्‍थापना है जिसका कुछ चला गया है और वह विस्थापित हो गया है तथा यह एक ऐसे व्यक्ति को बनाए रखने का प्रयास है जिसके पास अब गरिमामय जीवन जीने का कोई और रास्ता न बचा हो।

यह संविधान के अनुच्छेद 300 अ के अंतर्गत मुआवजा व संपत्ति से संबंधित है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) में दर्शाए गए तत्वों के अंतर्गत आता है। ऐसे लोग जो दीन-हीन और निराश्रय हो गए हैं, उन्हें स्वयं को बनाए रखने के लिए आजीविका का स्थायी स्रोत सुनिश्चित कराना अनिवार्य है। इसी निर्णय के अनुच्छेद 84 में अधिक स्पष्टता के साथ कहा गया है कि पुनर्वास को विस्थापन के स्तर तक का किया जाना चाहिए। पुनर्वास अपनी प्रकृति में ऐसा होना चाहिए, जो कि विस्थापित (व्यक्ति) को यह सुनिश्चित करा सके कि उसका जीवन स्तर उस दिन जैसा होगा जिस दिन सन्‌ 1894 के कानून के अंतर्गत अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू की गई थी। (उपरोक्त अनुवाद साधारण भाषा में है।) नर्मदा बचाओ आंदोलन और डूब प्रभावित सरकार से उतना ही मांग रहे हैं जितना कि पुनर्वास नीति में उल्लेखित है और सर्वोच्च न्यायालय ने अपेक्षा की है। 
 
मप्र उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एससी शर्मा ने भी अपने निर्णय में उपरोक्त को उद्धृत किया है, परंतु सरकारों की जिद व मंशा दोनों ही समझ के परे हैं। इसी क्रम में 18 जनवरी 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार पुन: महत्वपूर्ण सुझाव दिया है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर का कहना था कि सरदार सरोवर बांध परियोजना पर कानूनी मसले से कोई हल नहीं निकलेगा। इससे न तो उन लोगों का फायदा होगा जिनकी जमीन चली गई है और न ही सरकार को। यहां तक कि सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई का काम भी पूरा हो चुका है, लेकिन उसका असर नहीं दिख रहा। बेहतर हो कि राज्य सरकार और नर्मदा बचाओ आंदोलन योजना व व्यावहारिक समाधान लेकर न्यायालय में आएं।' इस सुझाव ने नई संभावनाओं के द्वार खोले हैं।
 
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से पिछले 1 दशक से मिलने का प्रयास नर्मदा बचाओ आंदोलन कर रहा है। वे बड़वानी आए, लेकिन वे वहां भी नहीं मिले। जब नबआं कार्यकर्ता भोपाल गए तो समय दिए जाने के बावजूद वे नहीं मिले और कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर लिए गए।
 
भले ही कोई नतीजा न निकला हो, पर मुख्यमंत्री रहते और बाद में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री के नाते उमा भारती नबआं से मिलती रही हैं। ऐसा ही दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में भी था। यही स्थिति केंद्र में भी बनी हुई है। वीपी सिंह, देवेगौड़ा, चन्द्रशेखर, नरसिम्हा राव व मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर नबआं से मिलते रहे, वहीं नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद नबआं कार्यकर्ताओं से नहीं मिल रहे हैं। 
 
वैसे राजीव गांधी के समय पर्यावरण व पुनर्वास को लेकर नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण का विस्तार किया गया और सशर्त अनुमति दी गई थी। यह भी माना जाता रहा है कि यह अनुमति विश्व बैंक के दबाव में दी गई थी जबकि बाद में विश्व बैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ खींचते समय कहा था कि यह योजना (सरदार सरोवर) असमर्थनीय मार्ग से ही पूरी की जा सकती है।
 
'अफजल उजड़ जाय बसाएंगे, छाड़ बस्ती बास।
उपर पंथी या पंथ चले, गउ चर सी घास।।'
 
अफजल साहब कहते हैं कि 'लोग बस्तियां छोड़कर उजड़े क्षेत्र को बसा रहे हैं। यहां की बस्तियां उजड़ जाएंगी। तब यहां गायें चरेंगी।'
 
अफजल साहब सपने में भी नहीं सोच पाते कि भविष्य में कभी बड़वानी के आसपास ऐसा प्रलय आएगा कि गाय के लिए घास मिलना तो दूर पानी में रहने वाली मछलियों का जीवन भी संकट में पड़ जाएगा। वस्तुत: आज की अनिवार्यता यह है कि सरकार अपनी जिद को छोड़े और एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बातचीत की शुरुआत करे।

इसके लिए पहली आवश्यकता यह है कि दोषारोपण बंद कर नर्मदा घाटी में ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया जाए, जो कि आपसी बातचीत के माध्यम से रास्ता निकालने में प्रयासरत हों। साथ ही एनवीडीए और नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण को भी अपना दायित्व पूरी एकाग्रता से निभाना चाहिए। राज्य और केंद्र शासन को इस बात का सम्मान करना चाहिए कि 3 दशकों से भी ज्यादा चलने वाला यह आंदोलन पूरे विश्व के लिए अहिंसात्मक प्रतिरोध का पर्याय है। यदि किसी आपसी समझौते से हल निकलता है तो यह गांधीजी की 150वीं जयंती के पहले बड़ी व उल्लेखनीय उपलब्धि होगी।
 
निमाड़ के एक अन्य संत सिंगाजी कहते हैं- 
 
तपस्या तो पत्थर की/ धीरज तो वृक्ष का/ सुफेरा तो सूरज का। 
 
नर्मदा घाटी के निवासी इन तीनों उपमाओं पर खरे उतरे हैं। वे अपने स्थान पर अडिग रहे हैं। उन्होंने अपनी जड़ों को उखड़ने नहीं दिया है और सूरज की तरह पूरी दुनिया में अहिंसात्मक आंदोलन की रोशनी को फैलाया है। अब पहल केंद्र व राज्य सरकारों को करनी है, साथ ही बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए नबआं को चर्चा के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। इससे शासन व प्रशासन दोनों की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। वर्ना न्यायालय आज नहीं तो कल कुछ न कुछ निर्णय तो देगा ही। 
 
डूब क्षेत्र के आदिवासी नायक बाबा महरिया ने तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को लिखा था कि सरकारी और तमाम शहरी लोग यह मानते हैं कि हम जंगल में रहने वाले गरीब-गुरबा पिछड़े और बंदरों की तरह बसर करने वाले लोग हैं। पर हम 8 साल से लड़ रहे हैं, लाठी-गोली झेल रहे हैं, कई बार जेल जा चुके हैं, आंजनवाड़ा गांव में पुलिस ने पिछले साल गोलीबारी भी कर दी थी, हमारे घर-बार तोड़ दिए थे लेकिन हम लोग- 'मर जाएंगे, पर हटेंगे नहीं' का नारा लगाते हुए आज भी उसी जगह पर बैठे हुए हैं।'
 
आप सबकी सूचनार्थ प्रेषित है कि बाबा महरिया अभी भी वहीं पर बैठे हैं।

साभार- सर्वोदय प्रेस सर्विस   
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