शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. dust storms
Written By

स्वास्थ्य के लिए चुनौती बन रही हैं धूलभरी आंधियां

स्वास्थ्य के लिए चुनौती बन रही हैं धूलभरी आंधियां - dust storms
-दिनेश सी. शर्मा
 
पिछले साल मई के महीने में एक के बाद एक लगातार 3 धूलभरी आंधियों ने दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्सों में कहर बरपाया था। अब एक अध्ययन में पता चला है कि इन आंधियों से जन-धन का नुकसान होने के साथ-साथ वायु गुणवत्ता और वायुमंडलीय रासायनिक गुणों में भी ऐसे परिवर्तन हुए हैं, जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
 
इस अध्ययन में पाया गया है कि धूलभरी आंधियों से वायु की गति, तापमान और वायुमंडलीय मापदंडों के ऊर्ध्वाधर परिवहन के स्वरूप में परिवर्तन होने के कारण ग्रीनहाउस और सूक्ष्म मात्रिक गैसों की मात्रा में भी बदलाव हो रहा है। ये बदलाव वायु गुणवत्ता के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
 
पिछले साल मई में इन 3 धूलभरी आंधियों में से 2 बेहद खतरनाक थीं जिनके कारण 100 से अधिक लोग मारे गए थे। दर्जनों हवाई उड़ानें रद्द करनी पड़ी थीं या फिर उनके रास्ते बदलने पड़े थे। सिंधु-गंगा के मैदानों में आने वाली अधिकांश धूलभरी आंधियां अरब प्रायद्वीप और थार के रेगिस्तानी क्षेत्रों में उत्पन्न होती हैं। पुन: ऑक्सीकरण प्रक्रिया द्वारा इन आंधियों में समाए नाइट्रेट, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों में परिवर्तित हो जाते हैं।

 
शोधकर्ताओं के अनुसार धूलभरी तेज आंधियों के बाद ओजोन बनाने वाली कार्बन मोनो ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसों में वृद्धि होने से धरती के निचले वायुमंडल में ओजोन में बढ़ोतरी की आशंका बढ़ जाती है। इन प्रक्रियाओं के कारण जमीन की सतह के ऊपर पीएम-2.5 और पीएम-10 के साथ ही हानिकारक ग्रीनहाउस गैसें भी बढ़ जाती हैं जिनका मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
 
वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में मौजूद ओजोन परत सूर्य के पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी पर जीवन को बचाती है जबकि धरती की सतह के ऊपर अर्थात निचले वायुमंडल में यह एक खतरनाक प्रदूषक मानी जाती है। सतह की ओजोन में वृद्धि और धूल के बीच महत्वपूर्ण संबंध है और धूलभरी आंधी जैसी घटनाओं में भी यह संबंध देखा गया है। इस अध्ययन के दौरान दिल्ली में सतह के ऊपर मौजूद ओजोन में वृद्धि अधिक पाई गई है जबकि कानपुर में यह बहुत कम थी।

 
इस शोध के परिणाम वैश्विक जलवायु मॉडलों के अलावा ग्राउंड स्टेशनों, उपग्रह आंकड़ों और बैलून नेटवर्क से प्राप्त रेडियो-ध्वनि आंकड़ों पर आधारित हैं। नासा के एरोनेट नेटवर्क के अंतर्गत आने वाले दिल्ली, कानपुर, बलिया, जयपुर के साथ-साथ कराची और लाहौर स्टेशनों से ग्राउंड आंकड़े एकत्रित किए गए हैं। प्रदूषण संबंधी आंकड़े केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के स्टेशनों और नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास से लिए गए थे।

 
इस अध्ययन में शामिल नासा गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वैज्ञानिक डॉ. सुदीप्त सरकार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि धूलभरी आंधियों के अल्प और दीर्घकालिक प्रभाव हो सकते हैं। कुछ अल्पकालिक प्रभावों का मानव स्वास्थ्य पर गहरा असर हो सकता है।
 
इन आंधियों के कारण वायु गुणवत्ता में होने वाली कमी के लिए जिम्मेदार कारणों में एरोसॉल सांद्रता में वृद्धि, पीएम-10 एवं पीएम-2.5 जैसे सूक्ष्म कणों में वृद्धि तथा कार्बन मोनो ऑक्साइड और ओजोन जैसी क्षोभमंडलीय ग्रीनहाउस गैसों में अस्थायी उतार-चढ़ाव शामिल हैं।
 
 
आईआईटी-मंडी में चैपमैन यूनिवर्सिटी के विजिटिंग फैकल्टी तथा शोध टीम के सदस्य डॉ. रमेश पी. सिंह ने बताया कि धूलभरी आंधियों के प्रभाव की बेहतर समझ होने से पूर्व चेतावनी और भविष्यवाणी की रणनीति तैयार की जा सकती है, क्योंकि निम्न वायु गुणवत्ता के कारण लाखों लोग प्रभावित होते हैं। भारत के उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भागों में मानसून के पहले धूलभरी आंधियों की उच्च आवृत्ति को देखते हुए व्यापक निगरानी या शुरुआती चेतावनी प्रणालियों की तत्काल आवश्यकता है।

 
यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड में वायुमंडल और समुद्र विज्ञान के प्रोफेसर तथा आईआईटी-मुंबई में विजिटिंग प्रोफेसर डॉ. रघु मुर्तुगुड्डे, जो इस अध्ययन में शामिल नहीं हैं, ने स्पष्ट किया कि उत्तरी और पश्चिमी भू-भागों के अत्यधिक गर्म होने से भारत में अतिरिक्त हवाएं बन जाती हैं, जो मानसून के दौरान बाढ़ और मानसून के पहले के महीनों में धूलभरे अंधड़ों को बढ़ावा देती हैं।
 
हालांकि इन दोनों की भविष्यवाणी की जा सकती है, क्योंकि इससे संबंधित तंत्र भारत में बनता है। इसके लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित की जा सकती है। हरियाली बढ़ाने और भूमि उपयोग में बदलाव जैसे तरीकों से इन घटनाओं के प्रभाव को पर्याप्त रूप से कम नहीं कर सकते, क्योंकि इनके दूरस्थ स्रोत क्षेत्र लगातार गर्म होते रहते हैं।

 
शोधकर्ताओं में सुदीप्त सरकार और रमेश पी. सिंह के अलावा आकांक्षा चौहान और राजेश कुमार (चैपमैन यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा) शामिल थे। यह शोध 'जर्नल जियोहेल्थ' में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)
 
(भाषांतरण : शुभ्रता मिश्रा)