रविवार, 22 दिसंबर 2024
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Written By वर्तिका नंदा

मैं सब समझती हूं फिजा...

मैं सब समझती हूं फिजा... -
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धुले-धुले बालों को अपने हाथ से झटकती, चांद के साथ किसी चांदनी की तरह सिमटी और शाल ओढ़े मुस्कुराती उस बेहद सुंदर फिजा के बारे में मैं चंडीगढ़ के अपने दोस्तों से अक्सर पूछा करती थी। अगले महीने चंडीगढ़ जाकर उससे मिलने का इरादा भी था।

अभी शायद एक महीने पहले ही तहलका के एक पत्रकार ने फेसबुक पर बताया कि फिजा अब अकेलेपन की जिंदगी बसर कर रही हैं। मैं कुछ लिख रही थी और मेरा मन था कि मैं जाकर फिजा से कहूं फिजा, मैं सब समझ सकती हूं, फिजा।

फिजा की हत्या ज्यादा और आत्महत्या कम के बारे में जिस समय पता चला, मुझे हैरानी से कहीं ज्यादा दुख हुआ लेकिन दुख का यह भाव रात होते-होते कई गुना बढ़ गया। फेसबुक और ट्विटर पर जो भी कमेंट पढ़े, वे फिजा को दोषी ठहराते हुए थे। टीवी की चिल्लाती हुई वार्ताएं भी गीतिका और फिजा पर अंगुली उठाती हुई थीं, पूरी तरह से चरित्र हनन करतीं, तस्वीरों को कई कोणों से दिखाती हुईं, उनके अति महत्वाकांक्षी होने की छवि गढ़तीं और अनकहा अट्टाहास करतीं।

एक युवा और सुंदर लड़की की हत्या कई दृष्टियों से चीजों को खोलकर और उधेड़ कर रख देती है। फिजा का चांद से शादी करना मीडिया ने कुछ इस अंदाज में बयान किया कि जैसे फिजा ही चांद को गोद में लेकर भगा ले गई थी। उनका धर्म को बदलना, उनका सफल होना, नामी होना, कथित बड़े लोगों को जानना, खबर तो बस उनके चरित्र के पन्नों को उधेड़ने पर ही आकर रुक गई। खबर वहां पहुंची ही नहीं जहां उसे पहुंचना चाहिए था।

खबर को उनका एकाकीपन नहीं दिखा। उसकी उदासी, बेबसी, दुख, मातृत्व का अभाव और प्रेमी बनाम पति का विछोह। मीडिया को कहां दिखा कि अगर उनके जिगर में भरे-लदे प्रेम का भाव न होता तो वे एकाकी रहती ही क्यों। मीडिया को यह भी समझ में नहीं आया कि दूसरी पत्नी होना आसान नहीं होता। किसी और के बच्चों की अनकही, अस्वीकृत मां बनना तो और भी नहीं।

मीडिया अंदाजा नहीं लगा सका कि औरत होने की कीमत एक बार नहीं, हर बार अदा की जाती है और ‘दूसरी’ होने पर इसकी कीमत और सजा भी कुछ और होती है। मीडिया जब उनकी जिंदगी के गीले पन्ने उधेड़ रहा था, मैं उस शोर के बीच चांद के लिए उसकी चुप्पी को अपनी हथेली पर तोल रही थी। चांद को लेकर जिस संजीदगी से आरोपों की फेहरिस्त खुलनी और छीली जानी चाहिए थी, मीडिया ने उस उफान को उठने ही नहीं दिया बल्कि वह तो फिजा के मरने को तार्किक मनवाने में जुट गया और इस शोर में उसका साथ देने के लिए उसे कई बंसी बजाने वाले बड़ी आसानी से मिल गए।

इतना ही हो सका तो औरत को मारने वालों को कई बार सोचना तो होगा ही। दुर्गा बनी हुई औरत से अपराधी तो क्या खुद सृष्टि भी डरा ही करती है
ठीक ही हुआ एक तरह से। औरत को थकाते इस समाज में शायद पीड़िता के लिए कोई जगह है भी नहीं। वह भोग्या हो सकती है, परित्यक्ता, बिखरी हुई और पराजित पर उसकी जुबान नहीं होनी चाहिए। वह या तो हाथ में कलम थामे, कुछ बोले, कानून के पास जाए या फिर मर जाए या मारी जाए। सबसे आसान है आखिरी रास्ता ही।

फेसबुक पर जब कुछ सवाल मैंने उछाले तो किसी ने मुझसे कहा- फिजा बोली क्यों नहीं। मेरा जवाब था जो बोलती हैं, उनके साथ क्या होता है, क्या यह जानते हैं आप। बोलने का अपराध अमूमन चुप रहने से भी ज्यादा मारक होता है खासतौर पर जब अपराधी शातिर हो और राजनीति या पुलिस से ताल्लुक रखता हो।

यकीन न हो तो घरेलू हिंसा, बलात्कार, मानहानि का केस दायर करने वाली किसी भी महिला का हश्र पूछकर जान लीजिए या फिर जाइए देश के किसी भी बड़े शहर की महिला अपराध शाखा में। केस दर्ज होने से पहले और फिर बाद में तो स्वाभाविक तौर पर ही अपराधी पूरी तरह से महिला को दोषी साबित करने में जुट जाता है।

वह जायदाद की लोभिनी, पागल, क्रूर, अपराधिनी, शोषिणी वगैरह के तौर पर देखी जाने लगती है जो घर पर कब्जा जमाना चाहती है और मार-पीट करती है। (यह बात अलग है कि असल में जिन विश्लेषणों और अपराधों का ठीकरा औरत पर फोड़ा जाता है, वो असल में उसी अपराधी के होते हैं)

हां, समाज, प्रशासन, पुलिस, कार्यकर्ता, कथित दोस्त एक थकी औरत को श्मशान तक पहुंचाने में बड़ी मदद करते हैं। ऊंचा सुनता कानून, धीमी चलती पुलिस, साजिश रचती राजनीति, शातिर अपराधी और फैसले सुनाता फेसबुक भी - औरत को थकाने और हराने के लिए काफी होता है इतना-सा सामान।

लेकिन औरत हमेशा मरजानी नहीं होती। यह बात इस पूरे समाज को जान लेनी चाहिए। कई बार जब दुखों का अंबार बहुत बड़ा हो जाता है तो सब्र के बांध टूटते भी हैं। समाज अक्सर भूल जाता है कि जो भी औरत मारे जाने से बच जाती है, वह बदल जाती है। जिस दिन उसकी आंखों के आंसू सूखकर एक लाल अंगारे में तब्दील हो जाते हैं, समाज की कई पथरीली पगडंडियां बदल जाती हैं। इन करमजलियों को मारने वालों को समाज सजा दे या न दे, एक अदृश्य शक्ति इनका साथ जरूर देती है और हमेशा देगी।

कानून एकाएक नहीं बदलेगें और लोकपाल बिल जैसे वायदे या घरेलू हिंसा के हांफते अक्षरों की जमात, भ्रष्ट तंत्र में काम करते कथित प्रोटेक्शन ऑफिसर और असंवेदनशीलता को मोहर लगाते राष्ट्रीय या राज्य के महिला आयोग भी औरत को एक खुली सड़क दे सकेंगें, ऐसा बहुत लगता नहीं।

हर औरत को अपनी रक्षा के हथियार खुद बनाने होंगे, उनकी धार को तेज करना होगा और सबसे बड़ी बात उसे दूसरी औरत का साथ देना होगा और न देना हो तो चुप्पी साधनी होगी।

इतना ही हो सका तो औरत को मारने वालों को कई बार सोचना तो होगा ही। दुर्गा बनी हुई औरत से अपराधी तो क्या खुद सृष्टि भी डरा ही करती है।

फिजा के जाने के बाद लगा कि चुप्पी को तोड़ने का समय आ गया है। अपराध की शिकार हर औरत एक दिन अपनी तकदीर को नए सिरे से लिखेगी जरूर और कहेगी - मैं थी, हूं और रहूंगी।

(लेखिका पत्रकार एवं दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज के पत्रकारिता विभाग में सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं।)