इस हाथ बढ़ाने को जानने की जरूरत
इस बार ब्लॉग चर्चा में अनुराग वत्स का सबद
आगाज हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था व्यक्ति को मैं नहीं जानता था हताशा को जानता था इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया मैंने हाथ बढ़ायामेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ मुझे वह नहीं जानता था मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था हम दोनों साथ चले दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे साथ चलने को जानते थे यह कविता हिन्दी के मूर्धन्य कवि विनोदकुमार शुक्ल की है। सबद की शुरुआत इन्हीं शब्दों से। ब्लॉग दुनिया में कई तरह के ब्लॉग हैं। सबद उनमें नया और अलग है। नया इसलिए नहीं कि यह दो महीने पहले शुरू किया गया है, नया इस अर्थ में है कि इसमें अनुराग वत्स ने अपने को भरसक पीछे रखकर हिंदी की तमाम विधाओं में सक्रिय सर्जनात्मक प्रतिभाओं को गरिमामय ढंग से प्रस्तुत किया है। और अलग इस मायने में है कि इसमें एकदम नए स्तंभों के जरिए श्रेष्ठ रचनात्मकता से रूबरू कराने का एक विनम्र प्रयास है।अनुराग की मंशा उनके द्वारा लिखी गई इस छोटी सी टिप्पणी में समझी जा सकती है कि गुफ्तगू उन सबसे है जिनका एक घर सबद निरंतर में भी है। जरिया सबद है। गरज इतनी कि लोगों का उससे सम्बन्ध और घना हो। ख़ुद भी लिखता रहूँगा और कोशिश रहेगी कि उन समर्थ रचनाकारों की नई-पुरानी रचनाओं को भी सबद के माध्यम से आपके सामने लाऊँ, जिसका होना हमें कई तरह से समृद्ध करता है।और यदि आप सबद की पोस्ट पर गहरी नजर डालेंगे तो जान जाएँगे कि सचमुच यहाँ ऐसी नई-पुरानी रचनाएँ हैं, जो हमें कई तरह से समृद्ध करती हैं। उन्होंने सबद के जरिए जो हाथ बढ़ाया है, उस हाथ बढ़ाने को जानते हुए हिंदी के कई रचनाकारों ने अपना हाथ बढ़ाकर उन्हें जो रचनात्मक सहयोग दिया है, उससे यह सबद समृद्ध हुआ है और सबद के जरिए हम सब। सबद में हिंदी की बहुत सारी विधाओं की सुंदर और मार्मिक झलकियाँ देखी जा सकती हैं। इसमें कविता है, कविताओं पर टिप्पणियाँ, कवि हैं अपनी कविताओं और आत्मकथ्य के साथ, नाटककार हैं, डायरियों के अंश हैं, किताबों पर बातें हैं, रचना प्रक्रिया से लेकर अनकहा कुछ तक है। इसकी सबसे ताजा पोस्ट में अनुराग ने हिंदी के ख्यात ------मंगलेश डबराल की डायरी के अंश दिए हैं। इन अंशों को पढ़कर मंगलेशजी की चिंताओं का पता चलता है। इस अंश पर गौर कीजिए-
क्या जीवितों की तुलना में मृतकों से संवाद आज ज़्यादा संभव और ज़्यादा सार्थक हो गया है ? इन्हें लिखते हुए-- खासकर गुजरात के मृतकों और मोहन थपलियाल पर-- मुझे बहुत पीड़ा हुई, कभी रोया भी, लेकिन लिख चुकने के बाद लगा जैसे मेरा कोई बोझ उतर गया है, मैं भारहीन-सा हो गया हूँ और वह एक नैतिक मूल्य मुझमें भी समा गया है जिसका प्रतिनिधित्व ये प्रतिभाएँ करती हैं। इस तरह मृतक मेरे, 'कन्सायन्स-कीपर' हैं। मृतकों का अपना जीवन है, जो शायद हम जीवितों से कहीं ज़्यादा सुंदर, उदात्त और मानवीय है। इतने अद्भुत लोग, और जिंदगी में उन्होंने कितना कुछ झेला और वह भी बिना कोई शिकायत किए। जो नहीं हैं मैं उनकी जगह लेना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ वे मेरे मुँह से बोलें। यह अंश उनकी जल्द आ रही किताब कवि का अकेलापन से लिया गया है और इसमें कवि के सादे लेकिन मार्मिक गद्यकार की धीमी लेकिन जरूरी करुणा को सुना जा सकता है। इसमें दया नहीं, दीनता नहीं और आत्मदया तो बिलकुल भी नहीं है बल्कि करुणा को एक प्रतिरोध में बदल देने की ताकत है। सबद में कुछ कॉलम ध्यानाकर्षी हैं, जैसे कोठार से बीज के तहत हिंदी के अप्रतिम कवि शमशेर बहादुर सिंह का वह ख्यात गद्य दिया गया है- टूटी हुई बिखरी हुई जिसमें कवि की गद्यकारी का जलवा साफ देखा जा सकता है। अनकहा कुछ स्तंभ के तहत प्रभात रंजन ने बिल ब्रायसन की किताब शेक्सपियर : द वर्ल्ड एज स्टेज के बहाने इस नाटककार के इर्द-गिर्द फैले मिथ और कुहासे पर बात की है और कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी हैं। एक कवि एक कविता स्तंभ के तहत केदारनाथ सिंह की कविता बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर और कुँवरनारायण की कविता अमीर खुसरो पर यतींद्र मिश्र की टिप्पणी दी है। ये दोनों कविताएँ भी हैं और इन दो पोस्टों को पढ़कर सहज ही कहा जा सकता है कि यतींद्रजी ने क्रिटिकल जार्गन से बचकर इन दोनों कविताओं के मर्म को बहुत ही आत्मीय ढंग से विश्लेषित करने की कोशिश की है बल्कि कहा जाना चाहिए कि यह एक आलोचक की टिप्पणी नहीं एक सहृदय कविता प्रेमी की टिप्पणियाँ हैं, जो हमें सीधे काव्य मर्म तक ले जाती हैं। सबद पर विदेशी लेखकों द्वारा अपनी रचना प्रक्रिया पर लिखे गए लेखों के अंशों के अनुवाद भी हैं। इनका बहुत ही अच्छा अनुवाद उपन्यासकार-कहानीकार राजी सेठ ने किया है। इसमें रचना प्रक्रिया पर गेब्रियल गार्सिया मार्खेज, इतालो काल्वीनो, हेनरी मिलर, आक्टोवियो पाज, मिलान कुंदेरा, इवान मेक्वान के विचार पढ़े जा सकते हैं। राजी सेठ ने रिल्के द्वारा अपने युवा मित्र को लिखे पत्रों का बेहतरीन अनुवाद किया है। यहाँ राजीजी एक बार फिर रिल्के के अनुवाद के साथ मौजूद हैं। इसके अलावा रिल्के पर बढ़त स्तंभ के तहत युवा रचनाकार गिरिराज किराड़ू ने रिल्के की कृति जीवन-विलाप एक मित्र के लिए शीर्षक के लिए अपनी रचना दी है। इसमें रिल्के की छाया में अपनी रचनात्मकता को लगभग काव्यात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। इसमें कविता से कथा और कथा से कविता के इलाके में जाने की एक प्रीतिकर आवाजाही देखी जा सकती है।
पूर्वरंग स्तंभ के तहत धरती आबा शीर्षक से नाटककार हृषिकेश सुलभ ने बिरसा मुंडा को अनूठे ढंग से याद किया है। एक बानगी देखिए : 'लौटकर आऊँगा मैं, ...जल्द ही लौटूँगा मैं अपने जंगलों में, अपने पहाड़ों पर। ...मुंडा लोगों के बीच फिर आऊँगा मैं। ...तुम्हें मेरे कारण दुःख न सहना पड़े इसलिए माटी बदल रहा हूँ मैं। ...उलगुलान ख़त्म नहीं होगा। आदिम खून है हमारा। ...काले लोगों का खून है यह। भूख...लांछन...अपमान...दुःख...पीड़ा ने मिल-जुलकर बनाया है इस खून को। इसी खून से जली है उलगुलान की आग। यह आग कभी नहीं बुझेगी ...कभी नहीं। ....जल्दी ही लौटकर आऊँगा मैं।‘ हकू शाह से पीयूष दईया की बातचीत भी ध्यान खींचती है। सबद की विशेषता यह भी है कि इसमें वैविध्यपूर्ण सामग्री है। सिनेमा को लेकर विनोद अनुपम का स्तंभ सेवेंटीएमएम शुरू किया गया है। इसमें विनोदजी ने हिंदी फिल्मों के अच्छे आलोचक के अभाव पर विचारोत्तेजक टिप्पणी की है और हिंदी फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों के व्यावसायिक सोच पर भी चोट की है। आशा है इस स्तंभ में आगे और अच्छी टिप्पणियाँ पढ़ने को मिलेंगी। कवि की संगत कविता के साथ स्तंभ के तहत चंद्रकांत देवताले का आत्मकथ्य और दो कविताएँ दी गई हैं। देवतालेजी हिंदी के बेहतरीन कवियों में से एक हैं और उनका आत्मकथ्य एक बार फिर उनके आवेग, उनकी चिंता और प्रतिबद्धता को बताता है। वे अपने आत्मकथ्य एक लंबी चीख की तरह में लिखते हैं - कविता लिखते हुए मैं घिरा हुआ महसूस करता हूँ। उस मुसाफिर की तरह जो यादों, सपनों और अपने यथार्थ के जख्मों का असबाब लिए प्लेटफॉर्म छोड़ चुकी ट्रेन पकड़ने दौड़ता है और जैसे-तैसे सवार हो जाता है।सबकुछ को बार-बार कहना, जबकि उजागर है वह चीथड़ा-चीथड़ा होकर चमकते हुए इस महोत्सव में, अजीब लगता है। जैसे अपने जीवनानुभवों की नदी को कविता की नाव में लाद कर ले जाना कठिन है, वैसे ही है यह। पर यह भी लेखक की नियति है। नि:सहाय गवाही देते ख़ुद को भी गुनाहगार की तरह देखता हूँ। सुनता हूँ अपने को उत्सवों-गुणगान-कीर्तन के बोगदे में एक लम्बी चीख की तरह...वे स्त्री पर लिखी अनेक बेहतरीन कविताओं के लिए जाने जाते हैं। यहाँ तुम्हारी आँखें कविता है जिसमें वे कहते हैं -पृथ्वी के उस तरफ़ से एकटक देखती तुम्हारी आँखेंमेरे साथ कुछ ऐसे ही करिश्मे करती हैंकभी-कभी चमकती हैं तलवार की तरह मेरे भीतरऔर मेरी याद्दाश्त के सफों में दबे असंख्य मोरपंखउदास हवाओं के सन्नाटे मेंफड़फड़ाते परिंदों की तरह छा जाते हैंउस आसमान पर जो सिर्फ़ मेरा हैइसके अलावा अनुराग वत्स ने कृष्ण बलदेव वैद, जाँ निसार अख्तर, कुँवरनारायण आदि पर अपनी टिप्पणियाँ दी हैं। एक नए कवि तुषार धवल की कविता को अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया है। सबद पर आना और पढ़ना हिंदी की बेहतरीन रचनात्मकता से रूबरू होना है। एक ऐसे समय में जब समाज लगातार साहित्य की तरफ पीठ करके बैठा नकली परिदृश्य पर टकटकी लगाए मगन है तब सबद हमें एक असली और जरूरी परिदृश्य को देखने-समझने का एक आत्मीय और विनम्र मौका देता है। विनोदकुमार शुक्ल की कविता से ही शब्द लेकर कहूँ तो सबद के इस हाथ बढ़ाने को जानने की जरूरत है। सबद का यूआरएल है http://vatsanurag.blogspot.com